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द पब्लिक एजेंडा, मई 2012
प्रकृति की अद्भुत देन है जंगल। इन जंगलों की वजह से हमें फल-फूल, जलावन के लिए लकड़ी, हरियाली, आदि मिलती है। इन जंगलों को जहां कुछ माफिया लोग अपने फायदे के लिए उजाड़ रहे हैं वहीं कुछ ऐसे भी महापुरुष हैं जो इनको बचाने में लगे हुए हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के इस दौर में भरत मंसाता, जादव और नारायण सिंह जैसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपने संकल्प से अकेले दम पर वीराने में बहार ला दी। इन अद्भुत प्रयास के बारे में जानकारी देती सुधांशु कुमार झा की रिपोर्ट।
वन वाड़ी के संस्थापक सदस्य भरत मंसाता का कहना है कि इतने बड़े इलाके की प्राकृतिक दशा को बचाते हुए सुनियोजित ढंग से विकास करना आसान भी नहीं था। सबसे बड़ी समस्या इलाके की घेराबंदी की थी। फिर नजदीक के आदिवासी लोग भी अपने मवेशी लेकर इलाके में घूमते रहते थे। ऐसे में पेड़-पौधों को बचाना मुश्किल था। इसलिए इन्होंने कुछ आदिवासियों को भी वन वाड़ी के विकास में साथ ले लिया। फायदा यह हुआ कि इन आदिवासियों को काम मिला। साथ ही इन्हें जीने का नया मकसद भी मिला। घेरेबंदी के लिए दीवार के अलावा वहां बहुतायत मात्रा में उगने वाले काथी, कलक, निर्गुदी, सबरी, चंद्रज्योति, करवंदा, रत्नज्योति और सगरगोटा जैसे कंटीली झाड़ी, बांस, चिकित्सकीय पौधे और लताएं लगायी गयीं। वन वाड़ी में एक बड़े भाग पर तरह-तरह के पेड़ पौधे हैं। आदिवासियों की मदद से इस इलाके में पाये जाने वाले सौ से भी अधिक प्रकार के पौधों की प्रजातियों की खोज की गयी।
वन वाड़ी में लगभग चालीस हजार पेड़ हैं। इनमें आम, सीताफल, ड्रमस्टिक, चीकू, नारियल, अमरूद, आंवला, करंज, काजू, पीपल, बरगद, पलाश, चंपा और कई तरह के फलदार और लकड़ी वाले पेड़ हैं। यहां आने वाली पर्यटक सुजाता गुहा का कहना है कि जंगल में समय बिताने का मजा ही अलग है। टीवी और मोबाइल से दूर यहां प्रकृति को करीब से देखने का अवसर मिलता है। ऐसे ही एक और पर्यावरणप्रेमी जादव पायेंग ने असम में जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में 550 हेक्टेयर रेतीली जमीन पर लगभग तीस साल की कड़ी मेहनत से जंगल बनाया है। दरअसल सन् 1980 के आसपास जिले के कोकिलामुख से पांच किलोमीटर की दूरी पर अरुना चापोरी इलाके में असम वन विभाग द्वारा इस क्षेत्र में हरियाली लाने के लिए करीब 200 हेक्टेयर जमीन पर पौधारोपण का कार्यक्रम चलाया गया था।
कार्य पूरा होने के बाद सारे कामगार चले गये, जबकि जादव वहीं रह गये। जादव ने इस काम को रुकने नहीं दिया, बल्कि इसे बढ़ाते हुए इस क्षेत्र में और पौधारोपण कर एक विशाल जंगल तैयार कर दिया। जादव वहां आज मुलाइ के नाम से जाने जाते हैं। असमी भाषा में इस जंगल को मुलाइ कथोनी कहा जाता है। अब वे वहां अपने परिवार के साथ रहते हैं। इस जंगल में गैंडा, हाथी, हिरण और बाघ के अलावा कई जानवर भी हैं, जिन पर शिकारियों की नजर रहती है। हालांकि, अलगाववादी संगठन अल्फा ने शिकार नहीं करने की चेतावनी दी है। जादव खुद पूरी मुस्तैदी से इलाके की सुरक्षा करते हैं और शिकारियों पर निगाह रखते हैं। जादव की वजह से शिकार की संख्या में कमी आयी है। इसके लिए उनकी सराहना भी की जाती है।
हालांकि, अब कुछ महीनों से वन अधिकारी भी गश्त लगाकर शिकारियों से जानवरों को बचाने में लगे हैं। वन अधिकारियों को इस जंगल की खबर तीन साल पहले हुई, जब वे कुछ ग्रामीणों को तबाह करने वाले हाथियों की खोज में वहां पहुंचे और विशाल जंगल देखकर हैरान रह गये। अब यह इलाका पर्यटकों में भी चर्चित होने लगा है। कुछ समय पूर्व ब्रिटिश फिल्मकार टॉम रोबर्ट भी आये। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए तस्वीरें भी लीं। जादव की तरह ही जंगल बसाने की धुन उत्तराखंड के 88 वर्षीय नारायण सिंह नेगी में भी रही है। नेगी ने लगभग चार दशक पहले गढ़वाली क्षेत्र चमोली के सवणकोट गांव में बंजर भूमि पर पेड़ लगाने की सोची। उनकी इस सोच के आगे गांव वालों के अलावा सरकारी स्तर पर भी कई तरह की बाधाएं आयीं। लेकिन इरादे के पक्के नेगी ने प्रांरभ में वन विभाग से बीस हजार पौधे खरीदकर लगाना शुरू किया, जो बाद में बढ़ता ही गया। आज लगभग 27 हेक्टेयर जमीन पर वे कई लाख पेड़ लगा चुके हैं।
यहां पेड़ों के अलावा कई तरह के पक्षी, हिरण, भालू और बंदर जैसे जानवर भी हैं। जानवरों के लिए यहां से चारा भी मिलता है और लोगों को दो पल की शांति भी। इलाके के लोग नरेन सिंह नेगी को 'ग्रीन वारियर' यानी हरित योद्धा कहते हैं। लेकिन एक समय था, जब उन्होंने यह काम शुरू किया था, तो उन्हें 'सनकी' तक कहा गया था। लेकिन नारायण ने हार नहीं मानी। पेड़ लगाना उनका रोज का काम था। पर्व-त्योहारों पर पूरे पहाड़ के लोग आनंद में डूबे रहते थे तो नेगी पहाड़ों पर जंगल लगाने के अपने अभियान में लगे रहते थे। बाद में लोगों ने उनके प्रयास और समर्पण को देखते हुए मान देना शुरू किया और लोगों को यह समझ में आया कि उनके द्वारा किया जा रहा यह काम सिर्फ राज्य के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए कल्याणकारी है। लोगों ने यह भी माना कि 'चिपको आंदोलन' की प्रख्यात नेता गौरा देवी की विरासत को नारायण सिंह नेगी ने उत्तराखंड में जीवित कर दिया।
सवणकोट गांव के बंजर को हरियाली में बदलने के पहले नारायण सिंह के खिलाफ गांव वाले ही खड़े हो गये थे। उन्हें यह समझाने में काफी वक्त लगा कि इससे न सिर्फ पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को फायदा होगा, बल्कि गांव के लोगों को भी काफी फायदा होगा। बाद में गांव वालों ने उनकी बात मान ली और फिर उन्हें उनका लगातार सहयोग मिलने लगा। नारायण कहते हैं, 'काफी दिनों तक जमीन बंजर पड़ी थी और भू माफिया इसे कब्जा करने के लिए नजरें गड़ाये हुए थे। लेकिन तब तक मैं काम शुरू कर चुका था और जमीन के कुछ हिस्सों में हरियाली नजर आने लगी थी। इससे गांव के पशुओं के लिए चारे और जलावन के लिए बेकार लकड़ियों की जरूरतें पूरी होने लगी। फिर गांव वालों ने ही मेरे अभियान में सहयोग देना शुरू कर दिया, जिससे जमीन माफिया पीछे हट गये।'
नेगी द्वारा तैयार हरियाली के इस संसार में आज ओक, अखरोट, देवदार, रिंगल, चंदन सहित हजारों किस्मों के पौधे और पेड़ लहलहा रहे हैं। नेगी ने गांव के सूख चले झरने को भी रिचार्ज कर दिया है, जिसमें अब लबालब पानी भरा रहता है। नारायण कहते हैं, ' मुझे धन की कोई आवश्यकता नहीं है। अब मेरी उम्र डॉक्टरों के यहां चक्कर लगाने की है।' नेगी ने अपने जंगल के कुछ हिस्सों का नाम महात्मा गांधी, गौरा देवी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ अंबेडकर, चंदर सिंह गढ़वाली और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वाधीनता सेनानियों के नाम पर रखा है। वे अपने आसपास के गांव के लोगों के लिए रोल मॉडल बन गये हैं और वहां भी ऐसे छिटपुट प्रयास शुरू हो गये हैं।
पर्यावरणप्रेमी जादव पायेंग ने असम में जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में 550 हेक्टेयर रेतीली जमीन पर लगभग तीस साल की कड़ी मेहनत से जंगल बनाया है। दरअसल सन् 1980 के आसपास जिले के कोकिलामुख से पांच किलोमीटर की दूरी पर अरुना चापोरी इलाके में असम वन विभाग द्वारा इस क्षेत्र में हरियाली लाने के लिए करीब 200 हेक्टेयर जमीन पर पौधारोपण का कार्यक्रम चलाया गया था। कार्य पूरा होने के बाद सारे कामगार चले गये, जबकि जादव वहीं रह गये।
घने वृक्ष, वृक्षों से लिपटी लताएं, पक्षियों की चहचहाहट और जंगली जानवरों से बसे जंगल में हर कोई सैर करना चाहता है। शहर की भागदौड़ से दूर यहीं तो प्रकृति का आनंद है। लेकिन इन प्राकृतिक जगहों को बसाने में कुछ लोगों के ही कदम आगे बढ़ते हैं। भरत मंसाता, जादव पायेंग और नारायण सिंह नेगी जैसे कुछ ही हैं, जिन्होंने शहर की सुविधाओं को छोड़ वीरान इलाके को चुना और वहां हरियाली लाकर लोगों को पर्यावरण बचाने का संदेश दे रहे हैं। महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में पश्चिमी घाट की पहाड़ियों की गोद में मुंबई-पुणे मार्ग से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर अपने साथियों के सहयोग से भरत मंसाता द्वारा बसाया गया 'वन वाड़ी' प्राकृतिक प्रेम का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। लगभग डेढ़ दशक पहले कुछ लोगों ने मिलकर इस इलाके में दो मराठा जमींदारों से पूरे 64 एकड़ जमीन खरीदकर फॉरेस्ट फार्म बनाने का मन बनाया। प्रारंभ में इसका नाम 'विजन एकड़' रखा गया। लेकिन पांच साल बाद नाम बदलकर स्थानीय नाम 'वन वाड़ी' कर दिया गया, जिसका मतलब है फॉरेस्ट सेटलमेंट या फॉरेस्ट फार्म।वन वाड़ी के संस्थापक सदस्य भरत मंसाता का कहना है कि इतने बड़े इलाके की प्राकृतिक दशा को बचाते हुए सुनियोजित ढंग से विकास करना आसान भी नहीं था। सबसे बड़ी समस्या इलाके की घेराबंदी की थी। फिर नजदीक के आदिवासी लोग भी अपने मवेशी लेकर इलाके में घूमते रहते थे। ऐसे में पेड़-पौधों को बचाना मुश्किल था। इसलिए इन्होंने कुछ आदिवासियों को भी वन वाड़ी के विकास में साथ ले लिया। फायदा यह हुआ कि इन आदिवासियों को काम मिला। साथ ही इन्हें जीने का नया मकसद भी मिला। घेरेबंदी के लिए दीवार के अलावा वहां बहुतायत मात्रा में उगने वाले काथी, कलक, निर्गुदी, सबरी, चंद्रज्योति, करवंदा, रत्नज्योति और सगरगोटा जैसे कंटीली झाड़ी, बांस, चिकित्सकीय पौधे और लताएं लगायी गयीं। वन वाड़ी में एक बड़े भाग पर तरह-तरह के पेड़ पौधे हैं। आदिवासियों की मदद से इस इलाके में पाये जाने वाले सौ से भी अधिक प्रकार के पौधों की प्रजातियों की खोज की गयी।
वन वाड़ी में लगभग चालीस हजार पेड़ हैं। इनमें आम, सीताफल, ड्रमस्टिक, चीकू, नारियल, अमरूद, आंवला, करंज, काजू, पीपल, बरगद, पलाश, चंपा और कई तरह के फलदार और लकड़ी वाले पेड़ हैं। यहां आने वाली पर्यटक सुजाता गुहा का कहना है कि जंगल में समय बिताने का मजा ही अलग है। टीवी और मोबाइल से दूर यहां प्रकृति को करीब से देखने का अवसर मिलता है। ऐसे ही एक और पर्यावरणप्रेमी जादव पायेंग ने असम में जोरहाट जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में 550 हेक्टेयर रेतीली जमीन पर लगभग तीस साल की कड़ी मेहनत से जंगल बनाया है। दरअसल सन् 1980 के आसपास जिले के कोकिलामुख से पांच किलोमीटर की दूरी पर अरुना चापोरी इलाके में असम वन विभाग द्वारा इस क्षेत्र में हरियाली लाने के लिए करीब 200 हेक्टेयर जमीन पर पौधारोपण का कार्यक्रम चलाया गया था।
कार्य पूरा होने के बाद सारे कामगार चले गये, जबकि जादव वहीं रह गये। जादव ने इस काम को रुकने नहीं दिया, बल्कि इसे बढ़ाते हुए इस क्षेत्र में और पौधारोपण कर एक विशाल जंगल तैयार कर दिया। जादव वहां आज मुलाइ के नाम से जाने जाते हैं। असमी भाषा में इस जंगल को मुलाइ कथोनी कहा जाता है। अब वे वहां अपने परिवार के साथ रहते हैं। इस जंगल में गैंडा, हाथी, हिरण और बाघ के अलावा कई जानवर भी हैं, जिन पर शिकारियों की नजर रहती है। हालांकि, अलगाववादी संगठन अल्फा ने शिकार नहीं करने की चेतावनी दी है। जादव खुद पूरी मुस्तैदी से इलाके की सुरक्षा करते हैं और शिकारियों पर निगाह रखते हैं। जादव की वजह से शिकार की संख्या में कमी आयी है। इसके लिए उनकी सराहना भी की जाती है।
हालांकि, अब कुछ महीनों से वन अधिकारी भी गश्त लगाकर शिकारियों से जानवरों को बचाने में लगे हैं। वन अधिकारियों को इस जंगल की खबर तीन साल पहले हुई, जब वे कुछ ग्रामीणों को तबाह करने वाले हाथियों की खोज में वहां पहुंचे और विशाल जंगल देखकर हैरान रह गये। अब यह इलाका पर्यटकों में भी चर्चित होने लगा है। कुछ समय पूर्व ब्रिटिश फिल्मकार टॉम रोबर्ट भी आये। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए तस्वीरें भी लीं। जादव की तरह ही जंगल बसाने की धुन उत्तराखंड के 88 वर्षीय नारायण सिंह नेगी में भी रही है। नेगी ने लगभग चार दशक पहले गढ़वाली क्षेत्र चमोली के सवणकोट गांव में बंजर भूमि पर पेड़ लगाने की सोची। उनकी इस सोच के आगे गांव वालों के अलावा सरकारी स्तर पर भी कई तरह की बाधाएं आयीं। लेकिन इरादे के पक्के नेगी ने प्रांरभ में वन विभाग से बीस हजार पौधे खरीदकर लगाना शुरू किया, जो बाद में बढ़ता ही गया। आज लगभग 27 हेक्टेयर जमीन पर वे कई लाख पेड़ लगा चुके हैं।
यहां पेड़ों के अलावा कई तरह के पक्षी, हिरण, भालू और बंदर जैसे जानवर भी हैं। जानवरों के लिए यहां से चारा भी मिलता है और लोगों को दो पल की शांति भी। इलाके के लोग नरेन सिंह नेगी को 'ग्रीन वारियर' यानी हरित योद्धा कहते हैं। लेकिन एक समय था, जब उन्होंने यह काम शुरू किया था, तो उन्हें 'सनकी' तक कहा गया था। लेकिन नारायण ने हार नहीं मानी। पेड़ लगाना उनका रोज का काम था। पर्व-त्योहारों पर पूरे पहाड़ के लोग आनंद में डूबे रहते थे तो नेगी पहाड़ों पर जंगल लगाने के अपने अभियान में लगे रहते थे। बाद में लोगों ने उनके प्रयास और समर्पण को देखते हुए मान देना शुरू किया और लोगों को यह समझ में आया कि उनके द्वारा किया जा रहा यह काम सिर्फ राज्य के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए कल्याणकारी है। लोगों ने यह भी माना कि 'चिपको आंदोलन' की प्रख्यात नेता गौरा देवी की विरासत को नारायण सिंह नेगी ने उत्तराखंड में जीवित कर दिया।
सवणकोट गांव के बंजर को हरियाली में बदलने के पहले नारायण सिंह के खिलाफ गांव वाले ही खड़े हो गये थे। उन्हें यह समझाने में काफी वक्त लगा कि इससे न सिर्फ पर्यावरण और पारिस्थितिक तंत्र को फायदा होगा, बल्कि गांव के लोगों को भी काफी फायदा होगा। बाद में गांव वालों ने उनकी बात मान ली और फिर उन्हें उनका लगातार सहयोग मिलने लगा। नारायण कहते हैं, 'काफी दिनों तक जमीन बंजर पड़ी थी और भू माफिया इसे कब्जा करने के लिए नजरें गड़ाये हुए थे। लेकिन तब तक मैं काम शुरू कर चुका था और जमीन के कुछ हिस्सों में हरियाली नजर आने लगी थी। इससे गांव के पशुओं के लिए चारे और जलावन के लिए बेकार लकड़ियों की जरूरतें पूरी होने लगी। फिर गांव वालों ने ही मेरे अभियान में सहयोग देना शुरू कर दिया, जिससे जमीन माफिया पीछे हट गये।'
नेगी द्वारा तैयार हरियाली के इस संसार में आज ओक, अखरोट, देवदार, रिंगल, चंदन सहित हजारों किस्मों के पौधे और पेड़ लहलहा रहे हैं। नेगी ने गांव के सूख चले झरने को भी रिचार्ज कर दिया है, जिसमें अब लबालब पानी भरा रहता है। नारायण कहते हैं, ' मुझे धन की कोई आवश्यकता नहीं है। अब मेरी उम्र डॉक्टरों के यहां चक्कर लगाने की है।' नेगी ने अपने जंगल के कुछ हिस्सों का नाम महात्मा गांधी, गौरा देवी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ अंबेडकर, चंदर सिंह गढ़वाली और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वाधीनता सेनानियों के नाम पर रखा है। वे अपने आसपास के गांव के लोगों के लिए रोल मॉडल बन गये हैं और वहां भी ऐसे छिटपुट प्रयास शुरू हो गये हैं।