दिव्यांगता को लोग शरीर की कमजोरी समझने लगते हैं और पेंशन तथा ट्राईसाइकिल को दिव्यांगों का सहारा। इसलिए ज्यादातर लोग दिव्यांग की मदद के नाम पर उसे समाज कल्याण विभाग से पेंशन लगवाने की बात तक कह देते हैं, लेकिन किसी भी दिव्यांग की हौंसलाअफ़ज़ाई के लिए उसकी मानसिक जरूरत को समझना बेहद जरूरी है। दिव्यांगों की जरूरतों को समझने का ये कार्य उत्तरप्रदेश के मोदीनगर निवासी शिशिर कुमार चौधरी बखूबी कर रहे हैं। वे खुद दिव्यांग हैं, लेकिन दिव्यांगता को अपनी ताकत बनाकर जैविक खेती से अन्य दिव्यांगों को सक्षम बना रहे हैं।
शिशिर की मेहनत का ही नतीजा है कि चार राज्यों के 1500 गांवों के करीब 17 हजारे दिव्यांग स्वयं पर निर्भर हैं, जिसमे में 5 हजार दिव्यांग कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा शिशिर द्वारा दिव्यांगों को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलवाने में भी मदद की जाती है। शिशिर कहते हैं कि समाज में दिव्यांग वर्ग सबसे अधिक वंचित और उपेक्षित रहा है। लेकिन इसे यदि पर्याप्त अवसर और तवज्जो मिले तो ये किसी भी काम को अच्छे तरीके से कर सकते हैं।
शिशिर कुमार चौधरी का जन्म दिल्ली के समीप मोदी नगर में हुआ था। पढ़ाई लिखाई के लिए माता-पिता ने उन्हें बड़ी बहन के पास उत्तराखंड भेज दिया। बाहरवी तक की पढ़ाई उत्तराखंड से करने के बाद शिशिर वापस मोदी नगर आ गए। यहां मेरठ से उन्होंने स्नातक किया। इसके बाद दिल्ली से एमबीए। सामाजिक कार्यों में रूचि होने के कारण दूरस्थ प्रणाली (प्राइवेट) से एमएसडब्ल्यू का कोर्स भी किया। एमएसडब्ल्यू करने के बाद समाज को करीब से जानने का अवसर मिला तो सामाजिक कार्यों में रूचि बढ़ने लगी। मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में एक एनजीओ के साथ कार्य करने का मौका मिला। ये एनजीओ बुजुर्गों के लिए कार्य करता था। सामाजिक सरकारो से जुड़े शिशिर का जीवन एनजीओ में काम करने के बाद से खुशनुमा चल रहा था। एक दिन वे एनजीओ के कार्य से बैतूल से इटारसी जा रहे थे। रास्ते में एक दुर्घटना में उन्होंने अपने दाएं पैर के लीगामेंट्स खो दिए, जिस कारण वें 60 प्रतिशत विकलांगता की चपेट में आ गए। ये हादसा उनके लिए काफी दर्दनाक था, जिसको लेकर वे काफी दिनों तक परेशान रहे। दुर्घटना के बाद शिशिर करीब नौ महीने तक बेड रेस्ट पर रहे। इस दर्द ने उन्हें दिव्यांगों की जीवनशैली के करीब पहुंचा दिया। विशेषकर गांव में रहने वाले अशिक्षितों की अनुभूतियां उन्होंने करीब से देखी। जिसके बाद उनके अंदर दिव्यांगों के लिए कार्य करने की इच्छा उदित हुई।
बेड रेस्ट के तुरंत बाद उन्होंने अपने कुछ दोस्तों से बात कर ‘‘नमन’’ नाम से दिव्यांगो को समर्पित एनजीओ शुरू किया और दिव्यांगों की हर स्तर पर हर संभव मदद करने का बीड़ा उठाया। उन्होंनें अपनी एक टीम बनाई और महाराष्ट्र, उत्तराखंड और राजस्थान के नौ जिलों के हजारों दिव्यांगों को अपने संगठन से जोड़ा। रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने भरसक प्रयास कर दिव्यांगों को जैविक खेती से जोड़ा। उनकी जागरुकता का ये प्रयास इतना रंग लाया कि 250 से ज्यादा दिव्यांग किसानों की एक कंपनी बनाई। इस कंपनी के माध्यम से किसान अपने उत्पादों को बाजार तक आसानी से पहुंचाते हैं। हालाकि इसके लिए जापानी संस्था के अनुभवों की मदद ली जाती है, लेकिन कभी दिव्यांगता से परेशान लोग आज शिशिर के कारण खुशहाली के परिवार पाल रहे हैं और समाज के लिए प्ररेणास्त्रोत भी हैं। आज ये शिशिर की मेहनत का ही नतीजा है कि चार राज्यों के 1500 गांवों के करीब 17 हजारे दिव्यांग स्वयं पर निर्भर हैं, जिसमे में 5 हजार दिव्यांग कृषि क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा शिशिर द्वारा दिव्यांगों को रोजगारपरक प्रशिक्षण दिलवाने में भी मदद की जाती है। शिशिर कहते हैं कि समाज में दिव्यांग वर्ग सबसे अधिक वंचित और उपेक्षित रहा है। लेकिन इसे यदि पर्याप्त अवसर और तवज्जो मिले तो ये किसी भी काम को अच्छे तरीके से कर सकते हैं।