वृक्ष पुरुष किशन सिंह मलड़ा के प्रयास से प्यास बुझा रहे कई गांव

Submitted by Shivendra on Sat, 07/18/2020 - 11:25

पहाड़ के लोग हमेशा से ही प्रकृति के करीब रहे हैं। वे न केवल जीवनयापन करने के लिए प्रकृति से संसाधन (घर बनाने के लिए पत्थर, चूना, रेत-बजरी, ईंधन, चारा आदि) जुटाते थे, बल्कि प्रकृति का अभिन्न अंग ‘वनों’ का संरक्षण भी करते थे। वन और पर्यावरण के प्रति पहाड़ के प्रेम का उदाहरण ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में मिलता है। लेकिन वक्त के साथ पहाड़ के लोगों से उनके वनाधिकारों को छीन लिया गया और वनों पर सरकार/वन विभाग का एकाधिकार हो गया। लोगों को पशुओं को चराना तो दूर, जंगल से एक पत्ता तक तोड़ने की अनुमति नहीं थी। परिणामतः लोगों ने भी जंगल का ध्यान रखना बंद कर दिया। वनों का व्यवसायीकरण हुआ और बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने (शहरीकरण आदि) के लिए जंगलों को काटा जाने लगा। ऐसे में जैव विविधता के संकट में आने से पहाड़ों पर जल संकट गहराने लगा। स्प्रिंग्स सूखने लगे। कई लोगों ने प्रकृति की इन धरोहरों को सहेजने का प्रयास किया। इन लोगों में उत्तराखंड के बागेश्वर जिलेे के मंडलसेरा निवासी किशन सिंह मलड़ा भी शामिल हैं, जिन्होंने अभी तक खुद और लोगों के साथ मिलकर 6 लाख से ज्यादा पौधों का रोपण किया है। इनमें से अधिकांश पौधें अब वृक्ष बन चुके हैं।

हम अक्सर देखते हैं कि लोग पानी और पर्यावरण को लेकर केवल चिंता ही ज़ाहिर करते हैं। धरातल पर जब काम करने की बात आती है तो अधिकांश लोग पैर पीछे खींच लेते हैं। सरकार, प्रशासन/वन विभाग सहित ऐसे लोग जो पौधारोपण करते हैं, उनमें से एक प्रतिशत पौधे भी पेड़ बनने में सफल नहीं हो पाते। अधिकांश शुरुआती वर्षों में ही दम तोड़ देते हैं, लेकिन किशन सिंह मलड़ा के साथ ऐसा नहीं है।

उन्होंने इंडिया वाटर पोर्टल (हिंदी) को बताया कि ‘‘हमने बचपन से देखा कि पर्यावरण पर खतरा मंडरा रहा है। 20 साल पहले क्षेत्र में पानी के स्रोत (नौला) में पानी का स्तर आधा हो गया था। उस समय पेयजल की योजनाएं नहीं थी। पानी लेने के लिए लाइन लगी रहती थी। जंगलों के घटने से चारा भी कम हो गया था। इन सभी के बारे में जानना शुरु किया तो पता चला कि पानी को बचाने के लिए पेड़ों का होना बेहद जरूरी है।’’

पर्यावरण संरक्षण की तरफ बढ़ते हुए किशन सिंह ने वर्ष 1987 में पहला पौधा ‘पीपल’ लगाया। इसके तीन साल बाद वर्ष 1990 में अपनी मां के नाम से ‘देवकी लघू’ वाटिका की स्थापना की। तभी से पौधा रोपण का कार्य निंरतर जारी है। उन्होंने बताया कि ‘‘जहां भी उन्हें नए या पुराने बीज मिले, उन्हें संग्रहित कर उन्हें लगाना शुरू किया। ऐसे कई बहुपयोगी पेड़ों की जानकारी भी मिली जो हमारे क्षेत्र में नहीं हैं।’’ साथ ही उन्होंने अपने द्वारा लगाए गए एक वन को ‘शहीद शांति वन’ नाम दिया है। 

उन्होंने बताया कि वृक्षों से जुड़े कुछ शोध पढ़ने पर पता चला कि ‘‘पर्यावरण पर काम करने वाले देहरादून के ही एक विश्वविख्यात संस्थान के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं का कहना था कि रुद्राक्ष का पेड़ बीज से नहीं पनप पाता है, लेकिन हमने लगभग 50 रुद्राक्ष के पेड़ बीज से ही उगाए हैं। इसी प्रकार चंदन और अर्जुन सहित कई प्रकार के औषधीय पेड़ लगाए हैं। अभी तक आसपास के इलाकों में खुद से और लोगों के साथ मिलकर लगभग 6 लाख पेड़ लगाए जा चुके हैं। नौलों के आसपास भी पौधों का रोपण किया गया था। इसका परिणाम ये रहा है कि पंत क्वैराली में जटायु स्रोत में पानी दोगुना हो गया है। इस स्रोत से अब करीब 13 छोटी पेयजल योजनाएं संचालित की जा रही हैं। जिससे घिरौली, जोशी गांव, भागीरथी, मंडलसेरा समेत कई इलाकों को पानी मिलता है। 

वन विभाग के साथ पौधा रोपण करते हुए किशन सिहं मलड़ा।

यहां जल संरक्षण के लिए सबसे बेहतरीन काम किया मणिपुरी बांज ने। इसके अलावा नर्सरी में 50 हजार से ज्यादा पौधों को तैयार किया जा रहा है। अखरोट की विभिन्न प्रकार की प्रजाति यहां उपलब्घ हैं। पर्यावरण के प्रति मलड़ा के कार्यों को देखते हुए उन्हें निजी संस्थानों से लेकर उत्तराखंड सरकार द्वारा विभिन्न मंचों पर सम्मानित किया जा चुका है। उत्तराखंड की राज्यपाल बेबीरानी मौर्य द्वारा उन्हें ‘वृक्ष पुरुष’ की उपाधि भी दी जा चुकी है। इसके अलावा उनके कार्यों व वनों को देखने तथा उन पर शोध करने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं। मलड़ा ने बताया कि ‘‘किसी भी प्रकार का कोई संस्थान न होने के बावजूद भी विभिन्न काॅलेजों से छात्र-छात्राएं लोग उनके काम को देखने आते हैं। जापान और रूस से भी लोग आए थे। रूस से आए लोग मेरे द्वारा स्थापित वन को देखकर काफी खुश हुए और उन्होंने कहा कि ‘आइ लाइक दिस फाॅरेस्ट’। जंगल होना चाहिए तो इसी तरह का होना चाहिए। वे रुद्राक्ष के पौधे भी ले गए थे। लेकिन किसी कारण वे पौधे वहां पनप नहीं सकें, तो वें दो साल बाद फिर वापिस आए और नए पौधे ले गए।’’

किशन सिंह ने इंडिया वाटर पोर्टल को बताया कि ‘‘मैं जहां भी जाता हूं, हमेशा दो प्रकार की ही प्रकृति बताता हूं - धरती मां और महिला। मनुष्य अपने जीवन में इन दोनों प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ न करें। यदि मनुष्य किसी भी तरह से प्रकृति का संरक्षण करे तो उसका उत्थान होगा।’’ 

वे कहते हैं कि ‘‘मैंने रामायण में देखा था कि हनुमान जी जब चाहे, मां गंगा उनके पास आ जाती थी। इस पर मैंने विचार किया तो पता चला कि गंगा कोआप जब चाहें अपने पास बुला सकते हैं। अपने पास रख सकते हैं।’’ वास्तव में यहां गंगा माता को जल से जोड़कर देखा जाए, तो सभी लोगों को समग्र प्रयास से पर्यावरण को बचाया जा सकता है।


हिमांशु भट्ट (8057170025)