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जनसत्ता (रविवारी), 23 सितंबर 2012
देश में अभ्यारण्यों की दुर्दशा देखने के बाद सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ा है। कभी-कभार बाढ़ और आग से होने वाले नुकसान के अलावा भी कई मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। शिकारियों की घुसपैठ और पर्यटन एजेंसियों की दखलंदाजी ने संकट को और गहरा किया है। काजीरंगा और जिम कार्बेट अभ्यारण्यों के कुप्रबंधन का जायजा ले रहे हैं शेखर पाठक।
वन्य अभ्यारण्य संरक्षण की अवधारणा में समुदायों को शामिल नहीं किया गया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है। तस्कर, शिकारी, पर्यटक, अधिकारी, शोधकर्ता सब इन अभ्यारण्यों से लाभ प्राप्त करते हैं पर जो इनके आसपास सदियों से थे और हैं उन प्रकृति पुत्रों को हमारी व्यवस्था ने तटस्थ बना दिया है। इन लोगों को जोड़कर ही वन्य जीवों के नए संरक्षक और हितैषी विकसित किए जा सकते हैं। हाल ही में, जब सर्वोच्च न्यायालय ने बाघ संरक्षित क्षेत्रों में किसी भी तरह की पर्यटन गतिविधि को रोक दिया और पर्यावरण तथा वन मंत्रालय से चार हफ्ते के भीतर दिशा-निर्देश बनाने के लिए कहा तो बाघ संरक्षित के कुप्रबंधन, जीवों की असुरक्षा, तस्करों की घुसपैठ, पर्यटक एजेंसियों की दखलंदाजी जैसे मामले भी सामने आए। फिलहाल, यहां काजीरंगा और जिम कार्बेट राष्ट्रीय अभ्यारण्य की चर्चा की जा रही है, जो बाघ संरक्षित क्षेत्र भी है। ये दोनों, देश के सबसे पुराने और सुप्रसिद्ध संरक्षित क्षेत्र हैं। पहले ने अपनी स्थापना की शताब्दी मना ली है तो दूसरे ने पचहत्तरवीं जयंती। 1905 में शुरू काजीरंगा और 1936 में शुरू जिम कार्बेट अभ्यारण्य (जिसे पहले हेली, बाद में रामगंगा राष्ट्रीय पार्क कहा जाता था) उत्तरी भारत के दो ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मपुत्र घाटी और हिमालय के पाद प्रदेश में पड़ते हैं। उत्तराखंड में स्थित कार्बेट के बीचों-बीच पश्चिमी रामगंगा नदी बहती है, जिसमें कालागढ़ बांध बनाया गया है। इस कारण पार्क में एक बड़ी झील भी बन गई है। असम का काजीरंगा पार्क तिब्बत से आने वाली विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के बाईं तरफ है।
काजीरंगा पार्क के साथ मैरी विक्टोरिया कर्जन और लार्ड कर्जन का नाम जुड़ा है, तो कार्बेट के साथ संयुक्त प्रांत के लाट मेलकम हेली और शिकारी, प्रकृतिविद् और शिकार कथाओं के लेखक जिम कार्बेट का। 1903 में जब लार्ड कर्जन उत्तराखंड की यात्रा से लौट गया था तो लेडी कर्जन ने असम के विशिष्ट वन्य प्राणी गैंडे को देखने की इच्छा जताई। 1904 में वह असम गई थी। वहां उन्हें एक भी गैंडा नहीं दिखा। कहा जाता है कि तब वहां सिर्फ बारह गैंडे जीवित बचे थे। लेडी कर्जन ने अपने पति से गैंडों के संरक्षण के लिए तत्काल पहल करने के लिए कहा। इस तरह, काजीरंगा संरक्षित क्षेत्र का विचार जन्मा। कार्बेट पार्क में मेल्मक हेली और जिम कार्बेट की मित्रता और उनकी वन्य जीवन में एक समान रुचि काम आई। हालांकि, इसका प्रस्ताव संयुक्त प्रांत की काउंसिल में 1934 में कुमाऊं से चुने गए एमएलसी नारायण दत्त छिमवाल ने रखा था।
काजीरंगा जब शुरू हुआ था तो गोलाघाट और नौगांव जिलों के 232 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इसका फैलाव था। 1968 में नेशनल पार्क बनने पर इसका क्षेत्रफल 430 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया, जिसमें पचास वर्ग किलोमीटर के करीब जमीन बाढ़ और भूमि कटाव से नष्ट हो गई है। अब यह पार्क कारबी आंगलांग में भी फैला है। कार्बेट पार्क 1288 वर्ग किलोमीटर में है, जो अल्मोड़ा, पौड़ी, नैनीताल जिलों के अलावा 125 वर्ग किलोमीटर उत्तर प्रदेश में भी पड़ता है, जिसे अब बफर जोन घोषित कर दिया गया है। हाथी, बाघ, तेंदुआ, अनेक प्रकार के हिरन और पक्षी तो दोनों पार्कों में हैं लेकिन गैंडा और जंगली भैंसा काजीरंगा की विशेषता है। इसी तरह कार्बेट पार्क में घड़ियाल को एक अतिरिक्त प्रजाति माना जा सकता है। दोनों पार्क टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आते हैं और इस लिहाज से इनका महत्व बढ़ जाता है। क्षेत्रफल भी बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें साथ के बफर जोन और अन्य बाघ क्षेत्र जुड़ जाते हैं। काजीरंगा टाइगर रिजर्व 1033 वर्ग किलोमीटर में फैला है और कार्बेट टाइगर रिजर्व 1288 वर्ग किलोमीटर में (कार्बेट राष्ट्रीय पार्क, सोना नदी वन्य जीव विहार और बफर क्षेत्र सहित) लेकिन कार्बेट लैंडस्केप (यमुना से शारदा नदी के बीच का क्षेत्र, जिसे तराई आर्क लैंडस्केप भी कहा जाता है) का विस्तार 1901 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है।
अब सही वक्त आ गया है कि इन दोनों पार्कों को विशिष्ट प्रजातियों के साथ-साथ समस्त वन्यता (यानी जीव-जंतु, वनस्पति, जल प्राणी, पक्षी और दूसरी छोटी प्रजातियां) के हिसाब से देखा जाना चाहिए। सिर्फ बाघ, हाथी, गैंडे, जंगली भैंस या घड़ियाल पर केंद्रित करके न इन पार्कों की जैव विविधता को समझा जा सकता है और न उसका संरक्षण किया जा सकता है। सिर्फ बाघ, हाथी या गैंडा प्रजातियों की ही चर्चा करके कभी-कभी लगता है जैसे हम इन प्रजातियों के लिए खतरे बढ़ा रहे हैं। आज ये दोनों पार्क अनेक प्रकार के संकटों से गुजर रहे हैं। अवैध शिकार, तस्करों का वर्चस्व, बाढ़ आग, ढीला प्रशासन तंत्र, अनियंत्रित पर्यटन और गैरजिम्मेदार पर्यटकों में बढ़ोतरी, राज्य और वन विभाग की उदासीनता और स्थानीय लोगों की कम दिलचस्पी या तटस्थता वगैरह इनके मुख्य संकट हैं। कभी यह संकट अलग-अलग प्रकट होते हैं और कभी संयुक्त रूप से। इन संकटों को समझे बिना न इन पार्कों में मौजूद वन्य जीवों की रक्षा हो सकती है और न ही संरक्षण का अचूक रास्ता ही निकल सकता है।
अवैध शिकार इन दोनों पार्कों की सबसे बड़ी समस्या है। एक जमाने में सत्ता के सबसे बड़े लोग शिकार करने इन क्षेत्रों में आते थे। काजीरंगा के पहले कूच बिहार और बुक्सा के जंगलों में कूच बिहार के महाराजा द्वारा 1871 से 1907 के बीच 207 गैंडों का शिकार किया गया था। 25 साल बाद 1932 में बंगाल सरकार ने गैंडों के संरक्षण के लिए एक कानून लागू किया गया। फिर यह दबाव असम की तरफ चला गया। ताज्जुब लग सकता है कि 1850 के आसपास तक उस क्षेत्र में भी गैंडे थे, जिसमें अब कार्बेट और राजाजी पार्क हैं। अब गैंडे नेपाल के चितवन पार्क और काजीरंगा में सिमट गए हैं।
जो पहले वैध था, वह अब अवैध जरूर हो गया लेकिन शिकार अभी भी जारी है, चाहे प्रजातियां बदल गई हों। इस तरह आज शिकार सभी पार्कों की सबसे बड़ी समस्या है। काजीरंगा में 1980 से 2005 के बीच 567 गैंडे शिकारियों – तस्करों द्वारा मारे गए। अकेले 2007 में 18 गैंडे मारे गए। इसी तरह जिम कार्बेट पार्क में हर महीने-दो महीने में किसी बाघ या किसी हाथी के मरने, मारे जाने के समाचार आते रहते हैं। पिछले एक दशक में यह क्रम बढ़ गया है। अभी हाल में पर्यावरण और वन राज्यमंत्री ने संसद मे बताया कि 2008 से अब तक जिम कार्बेट पार्क में 19 बाघों की मौत हुई है। यह वह संख्या है जो अधिकारियों या वन विभाग ने दी है। 31 अगस्त 2012 को पकड़े गए शिकारी गिरोह ने बताया कि उन्होंने दो बाघ बिजरानी और दो कोसी में मारे थे।
इस बीच, यह समाचार भी आया कि 2006 में कार्बेट लैंडस्केप के 1901 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 178 बाघों की मौजूदगी थी जो 2009-10 में कार्बेट लैंडस्केप के 3476 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सर्वेक्षण करने पर यह संख्या 227 अनुमानित की गई। (लेकिन इसी अवधि में 65 बाघों की जान भी गई, जिनमें 42 प्राकृतिक कारणों से मारे बताए गए।) 2010 में तराई आर्क लैंडस्केप के ज्यादा हिस्सों में सर्वे किया गया। बाघों की संख्या में वृद्धि रामनगर, तराई पश्चिमी, रानीखेत के निचले क्षेत्र, नैनीताल के मैदानी भागों, हल्द्वानी, तराई केंद्रीय और तराई पूर्वी वन प्रभागों में यानी पश्चिमी वृत्त के पांच वन प्रभागों और नैनीताल और रानीखेत के निचले क्षेत्रों में सर्वे करने के कारण होने का अनुमान है। दरअसल नेशनल टाइगर कन्जर्वेशन अथॉरिटी की रिपोर्ट में बाघों की संख्या में वृद्धि सिर्फ कार्बेट के लिए नहीं कही गई है बल्कि यह पूरे तराई आर्क लैंडस्केप की वृद्धि मानी गई है।
दोनों पार्क अपनी शुरुआत के समय अधिक सघन वन क्षेत्र थे। तब जनसंख्या के लिहाज से आसपास के क्षेत्र विरल थे। धीरे-धीरे काजीरंगा के आस-पास असम में चाय बागानों का और जिम कार्बेट पार्क के आसपास खेती का विस्तार हुआ। दोनों जगह कुछ उद्योग भी आए। आस-पास के क्षेत्रों में जनसंख्या बढ़ी। काजीरंगा में चाय बागानों में प्रयुक्त कीटनाशक और नुमालीगढ़ के रिफाइनरी का प्रदूषण भी पहुंचने लगा तो जिम कार्बेट पार्क में रामगंगा के अंतर्वर्ती जलागम की हलचलों का कुछ असर दिखने लगा। राजनीतिक आंदोलनों और सामाजिक तनावों ने भी इन दबावों को बढ़ाया। पर, यह रोचक तथ्य है कि बोडोलैंड आंदोलन के समय आंदोलनकारियों ने वन्य जीवों की रक्षा की और उनके हाथों अनेक शिकारी और तस्कर मारे गए।
शिकारियों और तस्करों द्वारा किए जा रहे वन्य जीवन के विनाश के बाद जंगल में लगने वाली आग और बाढ़, बड़ी समस्याएं हैं। जिम कार्बेट में बाढ़ अभी तक परेशानी का कारण नहीं बनी है, पर काजीरंगा में यह त्रासदी हर साल आती है। हर साल सैकड़ों जीव बाढ़ में मर जाते हैं। इसी साल यह संख्या 560 जानवरों तक पहुंच गई है। निश्चय ही, वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। आग दोनों पार्कों में एक-सा संकट पैदा करती है। काजीरंगा अधिक नमी और वर्षा वाला क्षेत्र होने के बावजूद आग का आतंक झेलता है। जिम कार्बेट पार्क में आग का संकट अधिक है। अनेक बार बफर जोन की आग भीतर पहुंचती है और अनेक बार बाहर की आग पार्क में आ जाती है। उस पर नियंत्रण करना हर बार मुश्किल होता है।
कार्बेट पार्क में कुछेक बार पर्यटकों की लापरवाही और पार्क प्रबंधकों द्वारा उन पर नजर न रखने के कारण भी आग लगी है। यही स्थिति काजीरंगा की है। पर्यटक एजेंसियों और पर्यटकों के लिए कोई आचार संहिता नहीं है। कार्बेट पार्क में बार-बार यह पाया गया है कि पर्यटक यहां भी वही व्यवहार करते हैं यानी नशाखोरी, हल्ला गुल्ला, कैंप फायर और मनमाफिक कहीं भी पार्क में निकल पड़ना, वर्जित हिस्सों में भी। वन्य जीवों के जीवन में इस तरह का हस्तक्षेप न स्वीकार्य हो सकता है और न क्षम्य ही। काजीरंगा और कार्बेट दोनों में यह संभावना अनेक बार व्यक्त की गई है कि पर्यटकों के वेश में तस्कर या शिकारी भी पार्क में घुसते हैं।
वन विभाग या प्रबंध तंत्र की कम दिलचस्पी और ढीला-ढाला प्रबंधन और वीआइपी जनित दबाव दोनों पार्कों की बड़ी समस्या है। कुछ अपवाद, पार्क निर्देशकों को छोड़कर अधिकांश बार सुस्त सरकारी मिजाज के अधिकारियों के कारण दोनों पार्कों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। वन्य जीवन, पार्कों की प्राकृतिक विविधता और आसपास के समाजों, उनकी संस्कृति और आर्थिकी में दिलचस्पी रखने वाले अधिकारी इन दोनों पार्कों को कम ही मिले हैं। इस कारण दोनों पार्कों में होटल और दूर व्यवसायी राज करते हैं। वे इतने प्रभावशाली हैं कि कोर जोन में सड़क निर्माण करवा सकते हैं और कार्बेट पार्क के कोसी नदी की तरफ खुलने वाले सीमांत में इतने अधिक होटल-रिसोर्ट वगैरह बना सकते हैं कि इससे रामनगर की तरफ के बाघ क्षेत्र के कॉरीडोर में स्थायी व्यवधान पड़ गया है। कार्बेट पार्क के पूर्वी हिस्से के जो जीव सदियों से कोसी में पानी पीते थे, उनका मार्ग भी होटलों के कारण बंद हो गया है।
वन विभाग, पर्यावरण और वन मंत्रालय या भारतीय वन्य जीव संस्थान आदि टाइगर रिजर्व के विचार से इतने आतंकित हैं कि वे टाइगर रिजर्व के क्षेत्र से बाहर अभी भी बचे जीवों-विशेषकर बाघों-की तरफ नहीं देखते हैं। कार्बेट लैंडस्केप में 2006 में 178 बाघ थे जो 2010 में 227 हो गए और काजीरंगा में अभी 118 बाघ हैं (पूरे देश में मात्र 1706 बाघ बताए जाते हैं) लेकिन यह भी सच है कि कार्बेट पार्क में पूर्व-उत्तरी और हल्द्वानी, लैंसडौन, काशीपुर, उत्तर-पश्चिमी नैनीताल और दक्षिणी रानीखेत खंडों में 164 बाघों की उपस्थिति मानी गई है लेकिन सभी तरह की सुविधाएं, सुरक्षा टुकड़ी, कैमरा व्यवस्था आदि सब सिर्फ पार्क के भीतर है। बाहर किसी तरह की सुविधा नहीं है। एक वन अधिकारी ने हाल में पार्क के बाहर मौजूद असंरक्षित बाघों को ‘बीपीएल बाघ’ और पार्क के भीतर के बाघों को ‘एपीएल बाघ’ कहकर बेबाकी से स्थिति सामने रख दी है। क्योंकि पार्क के बाहर के बाघों की हिफाजत के लिए वन विभाग के पास संसाधन नहीं है और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, नेशनल टाइगर, कन्जर्वेशन अथॉरिटी या वन्य जीव संस्थान की इनमें खास दिलचस्पी नहीं है, जबकि पार्क के भीतर के बाघों की सुरक्षा में सभी एजेंसियां लगी हैं। फिर भी, वहां बाघ मारे जा रहे हैं।
दरअसल, जबसे बाघ संरक्षित क्षेत्रों के कोर जोन और बफर जोन की चर्चा शुरू हुई है, उससे ऐसा कृत्रिम विभाजन हो गया लगता है जैसे वे क्षेत्र अलग-अलग हों। जबकि दोनों क्षेत्र अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। सच यह है कि राजाजी, कार्बेट और दुधवा में रिश्ता था और होना चाहिए जैसे काजीरंगा, नामधापा और मानस में रिश्ता था और यह कायम रहना चाहिए। इनके बीच के बफर अगर सुरक्षित नहीं हैं तो कोर जोन भी सुरक्षित नहीं रह सकता है। यह काजीरंगा और कार्बेट दोनों की वर्तमान स्थिति से सिद्ध होता है।
इन दोनों पार्कों की दिक्कत यह है कि आसपास के गांवों के निवासियों को न पार्क के भीतर या बफर जोन के संरक्षण से जोड़ा जा सका है और न ही पार्क के भीतर के कार्यकलापों से। काजीरंगा या कार्बेट पार्क के आसपास समुदाय आधारित पर्यटन के प्रयास जिस तेजी से बढ़ने चाहिए थे, वे अधिकांश अधिकारियों की बड़े पर्यटन में रुचि, होटल और दूर व्यवसायियों के प्रभाव के कारण नहीं पनप पा रहे हैं। संरक्षण के पूरे प्रसंग में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही है कि इन क्षेत्रों में पर्यटक और एजेंसियां तो जा सकती हैं और वन्य जीवन को क्षति पहुंचा सकती हैं पर आसपास के समुदाय वहां नहीं जा सकते हैं। बल्कि एफटीए 2006 को इन क्षेत्रों में लागू करने का विरोध किया गया।
इसी तरह वन्य जीव अधिनियम भी समुदायों के विरोध में इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल, वनवासी इस सबकी सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों के आसपास अवैध शिकारी, होटल व्यवसायी, खनन और वृक्षारोपण कंपनियां और रियल इस्टेट वाले राज करते हैं और न सिर्फ वन्य जीवों पर बल्कि वनवासियों के संसाधनों पर भी डाका डालते हैं। इस तरह बाघ और वनवासी इस प्रक्रिया के शिकार हुए हैं और सभी प्रकार के व्यवसायी लाभ कमाते रहे हैं। पूरी व्यवस्था इस तरह हो गई है कि अगर कोई सही सोच का वनाधिकारी इन पार्कों में आता है तो निहित स्वार्थ उसे टिकने नहीं देते हैं।
वैसे भी, संरक्षण की अवधारणा को समुदायों को शामिल नहीं किया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है। इस तरह तस्कर, शिकारी, पर्यटक, अधिकारी, शोधकर्ता सब तरह के लाभों को इन पार्कों से प्राप्त करते हैं पर जो इनके आसपास सदियों से थे और हैं उन प्रकृति पुत्रों को हमारी व्यवस्था ने तटस्थ बना दिया है। इन लोगों को जोड़कर ही वन्य जीवों के नए संरक्षक और हितैषी विकसित किए जा सकते हैं। जरूरत है उन्हें यह समझाने कि एक मरे बाघ, हाथी, हिरन, गैंडे या जंगली भैंसे के मुकाबले उनका जीवित होना सिर्फ अभ्यारण्य के लिए ही नहीं, स्वयं उनके लिए भी लाभदायक हो सकता है। ऐसा उन्हें पार्क के कार्यकलापों से काट कर नहीं, बल्कि जोड़कर किया जा सकता है।
वन्य अभ्यारण्य संरक्षण की अवधारणा में समुदायों को शामिल नहीं किया गया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है। तस्कर, शिकारी, पर्यटक, अधिकारी, शोधकर्ता सब इन अभ्यारण्यों से लाभ प्राप्त करते हैं पर जो इनके आसपास सदियों से थे और हैं उन प्रकृति पुत्रों को हमारी व्यवस्था ने तटस्थ बना दिया है। इन लोगों को जोड़कर ही वन्य जीवों के नए संरक्षक और हितैषी विकसित किए जा सकते हैं। हाल ही में, जब सर्वोच्च न्यायालय ने बाघ संरक्षित क्षेत्रों में किसी भी तरह की पर्यटन गतिविधि को रोक दिया और पर्यावरण तथा वन मंत्रालय से चार हफ्ते के भीतर दिशा-निर्देश बनाने के लिए कहा तो बाघ संरक्षित के कुप्रबंधन, जीवों की असुरक्षा, तस्करों की घुसपैठ, पर्यटक एजेंसियों की दखलंदाजी जैसे मामले भी सामने आए। फिलहाल, यहां काजीरंगा और जिम कार्बेट राष्ट्रीय अभ्यारण्य की चर्चा की जा रही है, जो बाघ संरक्षित क्षेत्र भी है। ये दोनों, देश के सबसे पुराने और सुप्रसिद्ध संरक्षित क्षेत्र हैं। पहले ने अपनी स्थापना की शताब्दी मना ली है तो दूसरे ने पचहत्तरवीं जयंती। 1905 में शुरू काजीरंगा और 1936 में शुरू जिम कार्बेट अभ्यारण्य (जिसे पहले हेली, बाद में रामगंगा राष्ट्रीय पार्क कहा जाता था) उत्तरी भारत के दो ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मपुत्र घाटी और हिमालय के पाद प्रदेश में पड़ते हैं। उत्तराखंड में स्थित कार्बेट के बीचों-बीच पश्चिमी रामगंगा नदी बहती है, जिसमें कालागढ़ बांध बनाया गया है। इस कारण पार्क में एक बड़ी झील भी बन गई है। असम का काजीरंगा पार्क तिब्बत से आने वाली विशाल ब्रह्मपुत्र नदी के बाईं तरफ है।
काजीरंगा पार्क के साथ मैरी विक्टोरिया कर्जन और लार्ड कर्जन का नाम जुड़ा है, तो कार्बेट के साथ संयुक्त प्रांत के लाट मेलकम हेली और शिकारी, प्रकृतिविद् और शिकार कथाओं के लेखक जिम कार्बेट का। 1903 में जब लार्ड कर्जन उत्तराखंड की यात्रा से लौट गया था तो लेडी कर्जन ने असम के विशिष्ट वन्य प्राणी गैंडे को देखने की इच्छा जताई। 1904 में वह असम गई थी। वहां उन्हें एक भी गैंडा नहीं दिखा। कहा जाता है कि तब वहां सिर्फ बारह गैंडे जीवित बचे थे। लेडी कर्जन ने अपने पति से गैंडों के संरक्षण के लिए तत्काल पहल करने के लिए कहा। इस तरह, काजीरंगा संरक्षित क्षेत्र का विचार जन्मा। कार्बेट पार्क में मेल्मक हेली और जिम कार्बेट की मित्रता और उनकी वन्य जीवन में एक समान रुचि काम आई। हालांकि, इसका प्रस्ताव संयुक्त प्रांत की काउंसिल में 1934 में कुमाऊं से चुने गए एमएलसी नारायण दत्त छिमवाल ने रखा था।
काजीरंगा जब शुरू हुआ था तो गोलाघाट और नौगांव जिलों के 232 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इसका फैलाव था। 1968 में नेशनल पार्क बनने पर इसका क्षेत्रफल 430 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया, जिसमें पचास वर्ग किलोमीटर के करीब जमीन बाढ़ और भूमि कटाव से नष्ट हो गई है। अब यह पार्क कारबी आंगलांग में भी फैला है। कार्बेट पार्क 1288 वर्ग किलोमीटर में है, जो अल्मोड़ा, पौड़ी, नैनीताल जिलों के अलावा 125 वर्ग किलोमीटर उत्तर प्रदेश में भी पड़ता है, जिसे अब बफर जोन घोषित कर दिया गया है। हाथी, बाघ, तेंदुआ, अनेक प्रकार के हिरन और पक्षी तो दोनों पार्कों में हैं लेकिन गैंडा और जंगली भैंसा काजीरंगा की विशेषता है। इसी तरह कार्बेट पार्क में घड़ियाल को एक अतिरिक्त प्रजाति माना जा सकता है। दोनों पार्क टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आते हैं और इस लिहाज से इनका महत्व बढ़ जाता है। क्षेत्रफल भी बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें साथ के बफर जोन और अन्य बाघ क्षेत्र जुड़ जाते हैं। काजीरंगा टाइगर रिजर्व 1033 वर्ग किलोमीटर में फैला है और कार्बेट टाइगर रिजर्व 1288 वर्ग किलोमीटर में (कार्बेट राष्ट्रीय पार्क, सोना नदी वन्य जीव विहार और बफर क्षेत्र सहित) लेकिन कार्बेट लैंडस्केप (यमुना से शारदा नदी के बीच का क्षेत्र, जिसे तराई आर्क लैंडस्केप भी कहा जाता है) का विस्तार 1901 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है।
अब सही वक्त आ गया है कि इन दोनों पार्कों को विशिष्ट प्रजातियों के साथ-साथ समस्त वन्यता (यानी जीव-जंतु, वनस्पति, जल प्राणी, पक्षी और दूसरी छोटी प्रजातियां) के हिसाब से देखा जाना चाहिए। सिर्फ बाघ, हाथी, गैंडे, जंगली भैंस या घड़ियाल पर केंद्रित करके न इन पार्कों की जैव विविधता को समझा जा सकता है और न उसका संरक्षण किया जा सकता है। सिर्फ बाघ, हाथी या गैंडा प्रजातियों की ही चर्चा करके कभी-कभी लगता है जैसे हम इन प्रजातियों के लिए खतरे बढ़ा रहे हैं। आज ये दोनों पार्क अनेक प्रकार के संकटों से गुजर रहे हैं। अवैध शिकार, तस्करों का वर्चस्व, बाढ़ आग, ढीला प्रशासन तंत्र, अनियंत्रित पर्यटन और गैरजिम्मेदार पर्यटकों में बढ़ोतरी, राज्य और वन विभाग की उदासीनता और स्थानीय लोगों की कम दिलचस्पी या तटस्थता वगैरह इनके मुख्य संकट हैं। कभी यह संकट अलग-अलग प्रकट होते हैं और कभी संयुक्त रूप से। इन संकटों को समझे बिना न इन पार्कों में मौजूद वन्य जीवों की रक्षा हो सकती है और न ही संरक्षण का अचूक रास्ता ही निकल सकता है।
अवैध शिकार इन दोनों पार्कों की सबसे बड़ी समस्या है। एक जमाने में सत्ता के सबसे बड़े लोग शिकार करने इन क्षेत्रों में आते थे। काजीरंगा के पहले कूच बिहार और बुक्सा के जंगलों में कूच बिहार के महाराजा द्वारा 1871 से 1907 के बीच 207 गैंडों का शिकार किया गया था। 25 साल बाद 1932 में बंगाल सरकार ने गैंडों के संरक्षण के लिए एक कानून लागू किया गया। फिर यह दबाव असम की तरफ चला गया। ताज्जुब लग सकता है कि 1850 के आसपास तक उस क्षेत्र में भी गैंडे थे, जिसमें अब कार्बेट और राजाजी पार्क हैं। अब गैंडे नेपाल के चितवन पार्क और काजीरंगा में सिमट गए हैं।
जो पहले वैध था, वह अब अवैध जरूर हो गया लेकिन शिकार अभी भी जारी है, चाहे प्रजातियां बदल गई हों। इस तरह आज शिकार सभी पार्कों की सबसे बड़ी समस्या है। काजीरंगा में 1980 से 2005 के बीच 567 गैंडे शिकारियों – तस्करों द्वारा मारे गए। अकेले 2007 में 18 गैंडे मारे गए। इसी तरह जिम कार्बेट पार्क में हर महीने-दो महीने में किसी बाघ या किसी हाथी के मरने, मारे जाने के समाचार आते रहते हैं। पिछले एक दशक में यह क्रम बढ़ गया है। अभी हाल में पर्यावरण और वन राज्यमंत्री ने संसद मे बताया कि 2008 से अब तक जिम कार्बेट पार्क में 19 बाघों की मौत हुई है। यह वह संख्या है जो अधिकारियों या वन विभाग ने दी है। 31 अगस्त 2012 को पकड़े गए शिकारी गिरोह ने बताया कि उन्होंने दो बाघ बिजरानी और दो कोसी में मारे थे।
इस बीच, यह समाचार भी आया कि 2006 में कार्बेट लैंडस्केप के 1901 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 178 बाघों की मौजूदगी थी जो 2009-10 में कार्बेट लैंडस्केप के 3476 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सर्वेक्षण करने पर यह संख्या 227 अनुमानित की गई। (लेकिन इसी अवधि में 65 बाघों की जान भी गई, जिनमें 42 प्राकृतिक कारणों से मारे बताए गए।) 2010 में तराई आर्क लैंडस्केप के ज्यादा हिस्सों में सर्वे किया गया। बाघों की संख्या में वृद्धि रामनगर, तराई पश्चिमी, रानीखेत के निचले क्षेत्र, नैनीताल के मैदानी भागों, हल्द्वानी, तराई केंद्रीय और तराई पूर्वी वन प्रभागों में यानी पश्चिमी वृत्त के पांच वन प्रभागों और नैनीताल और रानीखेत के निचले क्षेत्रों में सर्वे करने के कारण होने का अनुमान है। दरअसल नेशनल टाइगर कन्जर्वेशन अथॉरिटी की रिपोर्ट में बाघों की संख्या में वृद्धि सिर्फ कार्बेट के लिए नहीं कही गई है बल्कि यह पूरे तराई आर्क लैंडस्केप की वृद्धि मानी गई है।
दोनों पार्क अपनी शुरुआत के समय अधिक सघन वन क्षेत्र थे। तब जनसंख्या के लिहाज से आसपास के क्षेत्र विरल थे। धीरे-धीरे काजीरंगा के आस-पास असम में चाय बागानों का और जिम कार्बेट पार्क के आसपास खेती का विस्तार हुआ। दोनों जगह कुछ उद्योग भी आए। आस-पास के क्षेत्रों में जनसंख्या बढ़ी। काजीरंगा में चाय बागानों में प्रयुक्त कीटनाशक और नुमालीगढ़ के रिफाइनरी का प्रदूषण भी पहुंचने लगा तो जिम कार्बेट पार्क में रामगंगा के अंतर्वर्ती जलागम की हलचलों का कुछ असर दिखने लगा। राजनीतिक आंदोलनों और सामाजिक तनावों ने भी इन दबावों को बढ़ाया। पर, यह रोचक तथ्य है कि बोडोलैंड आंदोलन के समय आंदोलनकारियों ने वन्य जीवों की रक्षा की और उनके हाथों अनेक शिकारी और तस्कर मारे गए।
शिकारियों और तस्करों द्वारा किए जा रहे वन्य जीवन के विनाश के बाद जंगल में लगने वाली आग और बाढ़, बड़ी समस्याएं हैं। जिम कार्बेट में बाढ़ अभी तक परेशानी का कारण नहीं बनी है, पर काजीरंगा में यह त्रासदी हर साल आती है। हर साल सैकड़ों जीव बाढ़ में मर जाते हैं। इसी साल यह संख्या 560 जानवरों तक पहुंच गई है। निश्चय ही, वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। आग दोनों पार्कों में एक-सा संकट पैदा करती है। काजीरंगा अधिक नमी और वर्षा वाला क्षेत्र होने के बावजूद आग का आतंक झेलता है। जिम कार्बेट पार्क में आग का संकट अधिक है। अनेक बार बफर जोन की आग भीतर पहुंचती है और अनेक बार बाहर की आग पार्क में आ जाती है। उस पर नियंत्रण करना हर बार मुश्किल होता है।
कार्बेट पार्क में कुछेक बार पर्यटकों की लापरवाही और पार्क प्रबंधकों द्वारा उन पर नजर न रखने के कारण भी आग लगी है। यही स्थिति काजीरंगा की है। पर्यटक एजेंसियों और पर्यटकों के लिए कोई आचार संहिता नहीं है। कार्बेट पार्क में बार-बार यह पाया गया है कि पर्यटक यहां भी वही व्यवहार करते हैं यानी नशाखोरी, हल्ला गुल्ला, कैंप फायर और मनमाफिक कहीं भी पार्क में निकल पड़ना, वर्जित हिस्सों में भी। वन्य जीवों के जीवन में इस तरह का हस्तक्षेप न स्वीकार्य हो सकता है और न क्षम्य ही। काजीरंगा और कार्बेट दोनों में यह संभावना अनेक बार व्यक्त की गई है कि पर्यटकों के वेश में तस्कर या शिकारी भी पार्क में घुसते हैं।
वन विभाग या प्रबंध तंत्र की कम दिलचस्पी और ढीला-ढाला प्रबंधन और वीआइपी जनित दबाव दोनों पार्कों की बड़ी समस्या है। कुछ अपवाद, पार्क निर्देशकों को छोड़कर अधिकांश बार सुस्त सरकारी मिजाज के अधिकारियों के कारण दोनों पार्कों को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। वन्य जीवन, पार्कों की प्राकृतिक विविधता और आसपास के समाजों, उनकी संस्कृति और आर्थिकी में दिलचस्पी रखने वाले अधिकारी इन दोनों पार्कों को कम ही मिले हैं। इस कारण दोनों पार्कों में होटल और दूर व्यवसायी राज करते हैं। वे इतने प्रभावशाली हैं कि कोर जोन में सड़क निर्माण करवा सकते हैं और कार्बेट पार्क के कोसी नदी की तरफ खुलने वाले सीमांत में इतने अधिक होटल-रिसोर्ट वगैरह बना सकते हैं कि इससे रामनगर की तरफ के बाघ क्षेत्र के कॉरीडोर में स्थायी व्यवधान पड़ गया है। कार्बेट पार्क के पूर्वी हिस्से के जो जीव सदियों से कोसी में पानी पीते थे, उनका मार्ग भी होटलों के कारण बंद हो गया है।
वन विभाग, पर्यावरण और वन मंत्रालय या भारतीय वन्य जीव संस्थान आदि टाइगर रिजर्व के विचार से इतने आतंकित हैं कि वे टाइगर रिजर्व के क्षेत्र से बाहर अभी भी बचे जीवों-विशेषकर बाघों-की तरफ नहीं देखते हैं। कार्बेट लैंडस्केप में 2006 में 178 बाघ थे जो 2010 में 227 हो गए और काजीरंगा में अभी 118 बाघ हैं (पूरे देश में मात्र 1706 बाघ बताए जाते हैं) लेकिन यह भी सच है कि कार्बेट पार्क में पूर्व-उत्तरी और हल्द्वानी, लैंसडौन, काशीपुर, उत्तर-पश्चिमी नैनीताल और दक्षिणी रानीखेत खंडों में 164 बाघों की उपस्थिति मानी गई है लेकिन सभी तरह की सुविधाएं, सुरक्षा टुकड़ी, कैमरा व्यवस्था आदि सब सिर्फ पार्क के भीतर है। बाहर किसी तरह की सुविधा नहीं है। एक वन अधिकारी ने हाल में पार्क के बाहर मौजूद असंरक्षित बाघों को ‘बीपीएल बाघ’ और पार्क के भीतर के बाघों को ‘एपीएल बाघ’ कहकर बेबाकी से स्थिति सामने रख दी है। क्योंकि पार्क के बाहर के बाघों की हिफाजत के लिए वन विभाग के पास संसाधन नहीं है और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, नेशनल टाइगर, कन्जर्वेशन अथॉरिटी या वन्य जीव संस्थान की इनमें खास दिलचस्पी नहीं है, जबकि पार्क के भीतर के बाघों की सुरक्षा में सभी एजेंसियां लगी हैं। फिर भी, वहां बाघ मारे जा रहे हैं।
दरअसल, जबसे बाघ संरक्षित क्षेत्रों के कोर जोन और बफर जोन की चर्चा शुरू हुई है, उससे ऐसा कृत्रिम विभाजन हो गया लगता है जैसे वे क्षेत्र अलग-अलग हों। जबकि दोनों क्षेत्र अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। सच यह है कि राजाजी, कार्बेट और दुधवा में रिश्ता था और होना चाहिए जैसे काजीरंगा, नामधापा और मानस में रिश्ता था और यह कायम रहना चाहिए। इनके बीच के बफर अगर सुरक्षित नहीं हैं तो कोर जोन भी सुरक्षित नहीं रह सकता है। यह काजीरंगा और कार्बेट दोनों की वर्तमान स्थिति से सिद्ध होता है।
इन दोनों पार्कों की दिक्कत यह है कि आसपास के गांवों के निवासियों को न पार्क के भीतर या बफर जोन के संरक्षण से जोड़ा जा सका है और न ही पार्क के भीतर के कार्यकलापों से। काजीरंगा या कार्बेट पार्क के आसपास समुदाय आधारित पर्यटन के प्रयास जिस तेजी से बढ़ने चाहिए थे, वे अधिकांश अधिकारियों की बड़े पर्यटन में रुचि, होटल और दूर व्यवसायियों के प्रभाव के कारण नहीं पनप पा रहे हैं। संरक्षण के पूरे प्रसंग में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही है कि इन क्षेत्रों में पर्यटक और एजेंसियां तो जा सकती हैं और वन्य जीवन को क्षति पहुंचा सकती हैं पर आसपास के समुदाय वहां नहीं जा सकते हैं। बल्कि एफटीए 2006 को इन क्षेत्रों में लागू करने का विरोध किया गया।
इसी तरह वन्य जीव अधिनियम भी समुदायों के विरोध में इस्तेमाल किया जाता रहा है। दरअसल, वनवासी इस सबकी सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों के आसपास अवैध शिकारी, होटल व्यवसायी, खनन और वृक्षारोपण कंपनियां और रियल इस्टेट वाले राज करते हैं और न सिर्फ वन्य जीवों पर बल्कि वनवासियों के संसाधनों पर भी डाका डालते हैं। इस तरह बाघ और वनवासी इस प्रक्रिया के शिकार हुए हैं और सभी प्रकार के व्यवसायी लाभ कमाते रहे हैं। पूरी व्यवस्था इस तरह हो गई है कि अगर कोई सही सोच का वनाधिकारी इन पार्कों में आता है तो निहित स्वार्थ उसे टिकने नहीं देते हैं।
वैसे भी, संरक्षण की अवधारणा को समुदायों को शामिल नहीं किया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है। इस तरह तस्कर, शिकारी, पर्यटक, अधिकारी, शोधकर्ता सब तरह के लाभों को इन पार्कों से प्राप्त करते हैं पर जो इनके आसपास सदियों से थे और हैं उन प्रकृति पुत्रों को हमारी व्यवस्था ने तटस्थ बना दिया है। इन लोगों को जोड़कर ही वन्य जीवों के नए संरक्षक और हितैषी विकसित किए जा सकते हैं। जरूरत है उन्हें यह समझाने कि एक मरे बाघ, हाथी, हिरन, गैंडे या जंगली भैंसे के मुकाबले उनका जीवित होना सिर्फ अभ्यारण्य के लिए ही नहीं, स्वयं उनके लिए भी लाभदायक हो सकता है। ऐसा उन्हें पार्क के कार्यकलापों से काट कर नहीं, बल्कि जोड़कर किया जा सकता है।