झाबुआ में आशा के बीज

Submitted by RuralWater on Thu, 07/07/2016 - 16:15


.झाबुआ का एक गाँव है डाबडी। वैसे तो यह सामान्य गाँव है लेकिन यहाँ एक किसान के खेत में देसी गेहूँ की 16 किस्में होने के कारण यह खास बन गया है। और वह भी बिना रासायनिक खाद और बिना कीटनाशकों के। पूरी तरह जैविक तरीके से देसी गेहूँ का यह प्रयोग आकर्षण का केन्द्र बन गया है।

मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के पेटलावद विकासखण्ड का गाँव है डाबडी। मैं यहाँ पिछले 16 मार्च को गया था। दोपहर का समय था। हल्की हवा चल रही थी। रामलाल पाटीदार अपने खेत में से नमूने के लिये गेहूँ की पकी बालें एकत्र कर रहे थे। अलग-अलग किस्मों में क्या अन्तर है, इसका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिये।

कुछ साल पहले तक इस इलाके में देसी गेहूँ बोया जाता था। और वह भी बिना रासायनिक खाद और बिना सिंचाई के। यहाँ के भील, भिलाला, पटलिया आदिवासी बाशिन्दे हैं। देसी बाजरा, डांगर, देसी मक्का, अरहर, ज्वार, भादली, मूँग, उड़द, कुलथी, सांवा, भादी, तिल, चौला, बावटा, राला आदि कई प्रकार के देसी बीज थे। लेकिन अब कई हाईब्रीड आ गए हैं। बीटी कपास आ गया है। ऐसे में कुछ लोग बीज बचाने का प्रयास कर रहे हैं उनमें सम्पर्क संस्था भी एक है।

मैंने खेत के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक घूमकर गेहूँ की किस्मों पर नजर डाली। शरबती, ग्वाला, कठिया, वांझिया, बंसी, काली बालीवाला, दाबती, पिस्सी आदि गेहूँ किस्में छोटी-छोटी क्यारियों में लहलहा रही हैं। खेत में पेड़ों की बागड़ लगी है, जिससे खेत में नमी व पत्तों की जैव खाद बनती है। कोई गेहूँ का पौधा हरा है, कोई पीला पड़ पकने को तैयार है। किसी बाल के दाने भरे हैं, किसी के दाने पोचे। किसी बाल का रंग काला है, किसी का लाल। किस्मों की यही विविधता मोह रही है। सिर्फ इनके रंगों में ही फर्क नहीं है बल्कि यह स्वाद में भी बेजोड़ हैं।

हम अब पेड़ की छाँव में बैठकर रामलाल जी से बातें करने लगे। वे बताने लगे कि हमने इन गेहूँ की किस्मों को अलग-अलग जगह से एकत्र किया और फिर अपने खेत में अध्ययन के लिये बोया है। ये वे किस्में हैं जो लगभग लुप्त होने के कगार पर हैं, या लुप्त हो चुकी हैं।

वे बताते हैं कि ग्वाला और काली बालीवाला अच्छी उपज देता है और इसके कड़क दाने होते हैं। इसी प्रकार पिस्सी, वांझिया और कठिया कम पानी में हो जाते हैं। वांझिया. शरबती और बंशी में भरपूर मात्रा में पोषक तत्व होते हैं।

इन किस्मों में वे जैविक खाद, जैविक नत्रजन व जैविक कीटनाशक का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो वे खुद तैयार करते हैं। गोबर, तालाब की मिट्टी, राख, आटा, गुड़ और गोमूत्र को सड़ाकर जैविक खाद बनाई जाती है। इसी प्रकार जैविक नत्रजन गोमूत्र, गुड़, छाछ, बेसन और पानी से तैयार की जाती है। इसी प्रकार जैविक कीटनाशक बनाया जाता है। इन सबका समय-समय पर छिड़काव किया जाता है। रामलाल के गेहूँ की खुश्बू फैलने लगी है। हाल ही में इन किस्मों को देखने के लिये बड़ी संख्या में किसान एकत्रित हुए। इस किसान सम्मेलन को सम्पर्क संस्था ने आयोजित किया था। इस सम्मेलन में सतना जिले के देसी बीजों के जानकार व किसान बाबूलाल दाहिया आये थे। दाहिया जी ने खुद भी देसी गेहूँ की 13 किस्में अपने खेत में लगाई हैं।

दाहिया जी ने देसी गेहूँ की खासियत बताते हुए कहा कि यहाँ पहले जो भी फसलें होती थीं वे वर्षा आधारित थीं। गेहूँ भी बिना सिंचाई के ही होता था। इसलिये यहाँ के गेहूँ का तना लम्बा होता था जिसमें पानी संचय हो जाता था और उस पानी से फसल पक जाती थी। अनुकूलन की यह क्षमता बरसों में पाई होगी।

वे बताते हैं कि बघेलखण्ड के देसी गेहूँ कठिया और कठवी किस्म के होते थे। दोनों के आकार एक जैसे होते थे लेकिन रंग में फर्क होता था। कठिया सफेद होता था और कठवी का रंग लाल। देसी शरबती बोया जाता था, उसका तना भी लम्बा होता था। खाने में स्वादिष्ट होता था। पिस्सी में दाने विरल होते थे और वह भी अन्य देसी किस्मों के समान गुण सम्पन्न थी।

दाहिया जी बताते हैं देशी बीज स्थानीय मिट्टी-पानी के अनुकूल होते हैं। इनमें सभी तरह की परिस्थितियों में उपज देने के गुण मौजूद होते हैं। बारिश की नमी में गेहूँ बोया जाता था और अगर एक-दो मावठा मिल जाये तो गेहूँ अच्छा पक जाता था।

अल्बर्ट होवार्ड और उनकी पत्नी जी एल सी होवार्ड और हबीबुर रहमान ने ब्रिटिश काल में भारतीय गेहूँ पर बरसों अनुसन्धान किया था। होवार्ड दम्पति ने स्थानीय किस्मों के चयन के जरिए कई किस्में विकसित की थी जो उपज में वृद्धि और क्वालिटी के लिहाज से बेहतरीन थी। जिसमें पूसा 4 और पूसा 12 काफी लोकप्रिय हुई थी। पूसा 4 को देसी गेहूँ की मुंडिया किस्म से तैयार किया गया था।

गेहूँ हमारे भोजन का अभिन्न अंग है। इसे अनाजों का राजा कहा जाता है। इसमें किसी भी अन्य अनाज से पोषक तत्व ज्यादा होते हैं। इसकी रोटियाँ और दलिया बहुत चाव से खाते हैं। इस इलाके में पहले मक्का और ज्वार खाने का चलन था। यहाँ मक्की माता की पूजा होती है। साठी, सातपानी, दूधमोंगर, खोरवड़ी आदि देसी मक्के की किस्में थीं। इसी सांस्कृतिक व बीजों की विरासत को बचाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिये गाँवों में बीज बैंक भी बनाए गए हैं।

यहाँ देसी बीजों की खासियत बताना उचित होगा। क्योंकि जब खेती की बात होती है तो सिर्फ उत्पादन की ही बात होती है, अन्य पहलुओं पर गौर नहीं किया जाता। बीज खेती का आधार हैं, जीवन हैं, सृजन हैं। और ये बीज आसमान से नहीं टपके हैं। बल्कि हमारे पूर्वजों ने इन्हें विकसित, संरक्षित व संवर्धित किया है। इनकी पैदावार, गुणों, स्वाद व पोषक तत्वों में सुधार करती आ रही है।

गेहूँ, धान तथा अन्य खाद्यान्न फसलों के बीज जंगलों में प्राकृतिक रूप से होते थे जिन्हें तब से लेकर अब तक करीब दस हजार वर्षों में कृषि के विकास के साथ विकसित किया गया है। इन बीजों की पहचान, संग्रहण, संरक्षण और संवर्धन करने में किसानों और महिलाओं का योगदान रहा है। कृषि की समृद्धता ने ही हमारे किसानों को समृद्ध बनाया है।

किसानों- आदिवासियों ने ही खेती की कई विधियाँ-पद्धतियाँ विकसित की हैं। उन्होंने फसल चक्र बनाया। हमारी कृषि में जैव-विविधता इतनी अधिक थी कि विभिन्न जलवायु मौसमों और मिट्टी-पानी में उगने वाली अनाजों की किस्में होती थीं। इस खेती की खासियत यह है कि वह प्रकृति से तालमेल, उसके अनुकूल, उसकी गोद में उसी के साथ बढ़ते हुए की जाती है।

देसी बीजों में रोगों से लड़ने की क्षमता अधिक होती है जिससे पूरी नष्ट नहीं होती। फसल चक्र अपनाएँ तो अगर एक फसल रोग के कारण नष्ट हो जाती है तो दूसरी से मदद मिल जाती है। दूसरी ओर संकर बीजों में प्रतिरोधक क्षमता और कीटों का प्रभाव झेलने की क्षमता बहुत कम होती है।

देसी बीजों में उत्पादन क्षमता की कमी नहीं है बल्कि इसमें बढ़ोत्तरी की काफी सम्भावनाएँ हैं। जबकि संकर बीजों से शुरू के एक-दो साल में तो अच्छा उत्पादन होता है, इसके बाद क्रमशः घटने लगता है। उत्पादन बढ़ाने के लिये रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल भी बढ़ाते रहना पड़ता है। कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ता है। बार-बार सिंचाई करनी पड़ती है। इस कारण लागत बहुत बढ़ जाती है।इसके साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति का क्षय होना, स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना, भूमि का जलस्तर नीचे खिसकते जाना और जहरीला होना, जैव विविधता का नष्ट होना और पारिस्थितिकीय सन्तुलन बिगड़ने जैसी समस्याएँ सामने आईं हैं। जहरीने भोजन से स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ रही हैं, यह खबरें कई जगह से आ रही हैं। देसी बीजों के कई लाभ हैं- जैसे जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, फसल चक्र से जमीन को फायदेमन्द, प्रकृति और किसान का रिश्ता कायम रहता है। इन सबसे खेती टिकाऊ, पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित, जैव विविधतापूर्ण होती है और उपज भी बढ़ती जाती है। सभी दृष्टियों से देसी बीज का संरक्षण व संवर्धन जरूरी है। बहरहाल, झाबुआ में बीज बचाने काम सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।