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‘बरगी की कहानी’, प्रकाशक - विकास संवाद समूह, 2010, www.mediaforrights.org
डूब प्रभावित गाँव कठौतिया के बुजुर्ग आदिवासी जुगराम बताते हैं कि उनके 80 परिवारों वाले उस गाँव, जो अब बरगी जलाशय में डूबा हुआ है, का रकबा 920 एकड़ होता था यानी हर परिवार के पास 11 एकड़ से ज्यादा समतल, उपजाऊ और दो फसली कृषि भूमि हुआ करती थी। तब गाँव के लोग 18 तरह के अनाज और दलहन, 9 तरह की सब्जियाँ और कंद उगाया करते थे। एकाध परिवार ही ऐसा था जिसके पास बहुत थोड़ी जमीन रही हो, उन परिवारों को गाँव का समाज संरक्षण और सुरक्षा देता था।वर्ष 1968 में नर्मदा नदी पर बरगी बाँध के निर्माण की रूपरेखा बनी और 1971 में बाँध बनना। यह वह दौर था जब सरकार और सरकारी विकास योजनाओं के निर्माता बड़े बाँधों को विकास का तीर्थ कहकर निरूपित करते थे। इन बाँधों के कारण विस्थापन और डूब से प्रभावित होने वाले आदिवासियों से कहा गया था कि बड़े विकास के लिये उन्हें जमीन, आजीविका, आवास और सामाजिक ताने-बाने का बलिदान करने में हिचकना नहीं चाहिए ये राष्ट्रहित में हैं। पर क्या यही सच है?
बाँधों और बाँध सरीखी बड़ी विकास परियोजनाओं के विश्लेषण और जाँच-पड़ताल की माँग को विकास विरोधी घोषित किया जाता रहा है। आश्चर्य है कि विकास की नीतियाँ रचने वाले लोग इस दावे पर बहस करने से हिचकिचाते रहे हैं कि बाँध जैसी परियोजनाएँ विकास का नहीं बल्कि वंचना, गरीबी, भुखमरी और भेदभाव का ताना-बाना गढ़ती हैं। वे जो दावे करके बरगी बाँध के निर्माण में जुटे थे, आज वे उन दावों की सच्चाई और धरातल की वास्तविकता को आमने-सामने रखकर संवाद करने को भी तैयार नहीं दीखते हैं।
जिस वक्त इस बाँध की कार्ययोजना बनाई गई थी, उस वक्त यह कहा गया था कि इस परियोजना के कारण 26729 हेक्टेयर जमीन डूब में आएगी परन्तु स्वतंत्र न्याय अभिकरण के तहत न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) एम. दाउद ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वर्ष 1992 तक ही 80860 हेक्टेयर जमीन डूब में आ चुकी थी। अब भी स्थिति यह है कि कई अलग-अलग प्रयोजनों को आधार बनाकर जमीन को डुबोया और दलदली बनाया जा रहा है। हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि नर्मदा की इस पट्टी में उपलब्ध जमीन बेहद उपजाऊ, ऊर्वर और सम्मोहक रही है। इससे यहाँ के समाज ने न केवल अनाज उगाया है बल्कि समाज को स्थायी विकास के भी कई पाठ पढ़ाए हैं परन्तु बरगी बाँध में 80 हजार हेक्टेयर जमीन डूबा दी गई।
डूब प्रभावित गाँव कठौतिया के बुजुर्ग आदिवासी जुगराम बताते हैं कि उनके 80 परिवारों वाले उस गाँव, जो अब बरगी जलाशय में डूबा हुआ है, का रकबा 920 एकड़ होता था यानी हर परिवार के पास 11 एकड़ से ज्यादा समतल, उपजाऊ और दो फसली कृषि भूमि हुआ करती थी। तब गाँव के लोग 18 तरह के अनाज और दलहन, 9 तरह की सब्जियाँ और कंद उगाया करते थे। एकाध परिवार ही ऐसा था जिसके पास बहुत थोड़ी जमीन रही हो, उन परिवारों को गाँव का समाज संरक्षण और सुरक्षा देता था। अपने अनुभवों को याद करके जुगराम बताते हैं कि जब इस बाँध के बनने की बात सुनने में आई तब हम सोचते थे, नर्मदा मैया को कौन बाँध सकता है! यदि बाँध बनेगा भी तो हमारा गाँव और जमीन थोड़े ही डूबेगी इसलिये हमने सरकार के भूमि अधिग्रहण के बाद पहाड़ों पर जाकर बसना शुरू कर दिया और समतल में बसा कठौतिया गाँव पहाड़ पर जाकर रच-बस गया। हमारे देखते-देखते बाँध बनता गया और जमीनें डूबती गईं। उनके मुताबिक बात केवल जमीन की डूब तक ही सीमित नहीं है। जंगल की सम्पदा भी तो तहस-नहस हो गई। उनके गाँव के लोग ही लगभग 1500 एकड़ में फैले जंगल से अपनी कई जरूरतें पूरी करते थे। उन जंगलों में आँवला, महुआ, कबीट के पेड़ होते थे। गाँव में ही हर खेत पर पलाश के पेड़ होते थे जिनकी पत्तियों से घरों को सजाया जाता था, जानवरों के बाड़ों, छतें बनती थीं और नए घर बनाए जाते थे। एक पेड़ हर साल एक हजार रुपए की सामग्री देता था और आज स्थिति यह है कि अपनी छोटी से छोटी जरूरत पूरी करने के लिये हमें बाजार की ओर भागना पड़ता है। डूब से पहले हमारे घर का कोई हिस्सा टूटा-फूटा नहीं होता था, पर अब आपको हर घर एक तरह से जर्जर स्थिति में मिलेगा क्योंकि छप्पर, बाँस, बल्ली सब कुछ बाजार से लाना पड़ेगा, जिसे खरीदने के लिये किसी एक घर में भी पैसा नहीं है। एक बार मरम्मत का खर्च होता है 5000 रुपए से ज्यादा वह भी नकद में। बींझा गाँव के गोपाल उईके बताते हैं कि हर गाँव में औसतन 200 महुआ के पेड़ होते थे, जिनसे खाना, तेल और पेय की जरूरत पूरी होती थी। आज की कीमत के मान से महुआ का एक पेड़ 5000 से 7000 रुपए का उत्पादन देता था। इसी तरह गाँव में और आसपास लगभग 150 से 200 आम के पेड़ मौसम में खुश्बू घोलते थे और 7-8 हजार रुपए का उत्पादन भी। एक गाँव के डूबने का मतलब है 500 टरमेरिण्ड पेड़ों का खत्म होना और केले, जामुन, नींबू और पपीते के सैकड़ों पेड़ों का डूब जाना। ये व्यवस्था थी उन गाँवों की, जिनमें हम रहा करते थे। इनसे पूरी खाद्य सुरक्षा और पोषण सम्बन्धी जरूरतें पूरी हो जाती थी। इन उत्पादों को मण्डी में बेंचकर हर परिवार दस हजार रुपए कमा लेता था; पर आर्थिक सुरक्षा बरगी बाँध में डूब गई।
बींझा के मथन सहयार बताते हैं कि खेती की जमीन इतनी उपजाऊ होती थी कि हमारे गाँव के किसान बिना रासायनिक ऊर्वरक, खाद और कीटनाशक से बेहतरीन किस्म के गेहूँ, ज्वार, धान, मक्का, चना, मसूर और दूसरे अनाजों का उत्पादन करते थे। उस धरती ने एक-एक एकड़ में 13-15 क्विंटल गेहूँ और 7 से 8 क्विंटल दलहन की पैदावार दी है। खेती हमारी सुरक्षा का मूल आधार रही है। यहीं से सुखराम उईके के मुताबिक एक एकड़ जमीन 1972 में दो फसलों में 12 हजार रुपए का मुनाफा देती थी और कम-से-कम गाँव के लोगों ने जमीन की उर्वरता का शोषण नहीं किया था इसलिये तय था कि हमें हमेशा धरती से ऐसी ही सम्पन्नता मिलती। खास बात यह है कि नर्मदा पट्टी के किसान एकल अनाज की पद्धति अपनाने के बजाय 9 अनाज, 12 अनाज या 16 अनाज का उत्पादन करते थे, जिससे कीटों या बीमारी या सूखे ने गाँवों में आपातकाल नहीं लग पाया। कभी सोचा नहीं था कि हमें बाजार से अपनी जरूरत पूरी करने के लिये किश्तों में, उधारी में और निम्न गुणवत्ता का अनाज खरीदना पड़ेगा क्योंकि आज हमारे पास आजीविका के इतने साधन भी नहीं हैं कि हम एक बार में महीने भर की जरूरत का राशन एक साथ खरीद सकें। एक सामूहिक चर्चा में लोग ‘‘जमीन के बाजार की व्यवस्था’’ के बारे में बताते हुए कहते हैं कि हमने ऐसे कम ही मौके देखे-सुने जब जमीनों की बार-बार खरीदी-बिक्री हुई हो। इसीलिये जमीन की कीमतों पर नियंत्रण रहता था। 1980 के दशक के शुरुआती सालों में यहाँ जमीन की कीमत 5 हजार रुपए एकड़ के आसपास रही पर संकट पैदा तब हुआ जब हजारों हेक्टेयर जमीन को बाँध में डूबाने की बात चली।
कोई नहीं जानता कि सरकार को भी इस परियोजना के प्रभावों या कहें कि दुष्प्रभावों के बारे में कुछ अन्दाजा था भी या नहीं। मंथन सहयार को उनकी 8 एकड़ अनमोल जमीन के एवज में 9408 रुपए यानी 1176 रुपए प्रति एकड़ के मान से मुआवजा दिया गया। जिस एक एकड़ जमीन से वे 10 हजार रुपए हासिल करते थे, उस जमीन के एवज में उन्हें 1176 रुपए देकर हमेशा के लिये अधिग्रहीत (क्या हम कहें सरकारी छीनना) कर लिया गया। उनके 36 पेड़ों के लिये कोई मुआवजा नहीं दिया गया। जबकि ये पेड़ पर्यावरण, समाज और आर्थिक सुरक्षा का आधार भी थे। गोपाल उईके को उनकी 18 एकड़ जमीन के एवज में 25300 रुपए का मुआवजा मिला और आज उनके बेटे मजदूरी की तलाश में गाँव से साल में 6 महीने पलायन पर रहते हैं। जहाँ उन्हें एक की मजदूरी के लिये 100 से 125 रुपए मिलते हैं; इसमें भी कोई स्थायीत्व नहीं है। गोपाल दादा को पता है कि नेहरू जी ने बड़ी विकास परियोजाओं के लिये बलिदान देने का आह्वान किया था, ऐसे में वे सवाल करते हैं कि हम 35 सालों से हर रोज बलिदान दे रहे हैं पर सरकार ने इस बलिदान के लिये जो वादे किये थे, उन्हें वह कैसे भूल गई? अगर हमें लाश भी मान लिया है तो कम-से-कम सम्मानजनक ढंग से अन्तिम संस्कार तो करने की जिम्मेदारी निभाते!
आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण (जबलपुर) द्वारा बरगी बाँध की डूब से प्रभावित आदिवासी परिवारों के पुर्नस्थापन विषय पर किये गए अध्ययन में लिखा गया है कि बाँध से 13 किलोमीटर दूर बसे सहजपुरी गाँव में सर्वेक्षित दो परिवारों के पास 10.8 हेक्टेयर भूमि थी, जिसे बाँध परियोजना द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया। जिसके लिये 21 हजार रुपए मुआवजे के रूप में दिये गए यानी बाजार कीमत से 13 गुना कम कीमत पर। जो बहुत ही कम है। बाँध परियोजना द्वारा दी गई राशि से 10.8 हेक्टेयर भूमि क्रय नहीं की जा सकती। इसके फलस्वरूप यह दोनों परिवार जीविकोपार्जन के साधन से वंचित हो गए। जबकि बाँध परियोजना द्वारा बाजार कीमत रुपए 25 हजार प्रति हेक्टेयर के मान से मुआवजा राशि रुपए 2.70 लाख रुपए दिया जाना चाहिए था तभी अधिग्रहीत रकबे के बदले उतना ही अलग से रकबा खरीदा जा सकता था। यदि यह स्थिति बाँध परियोजना द्वारा अपनाई जाती तो शायद आज यह परिवार जीविकोपार्जन की समस्या से वंचित नहीं रहते हैं। इसी तरह जबलपुर जिले के 2000 की जनसंख्या वाले कालीदेही गाँव की नई बसाहट के लिये 1986 में बाँध परियोजना ने नए स्थान का चयन कर लिया था किन्तु 1992 तक वहाँ किसी भी परिवार को भूखण्ड आवंटित नहीं किया गया। सरकार जानती थी कि इस गाँव के लोगों को दो किलोमीटर दूर से पानी लाकर अपनी जरूरत को पूरा करना होगा। आज यानी वर्ष 2010 की स्थिति में भी बींझा गाँव के लोगों को एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है; वह भी पहाड़ी रास्तों से।
जंगल और जमीन के साथ ही पशुपालन की संस्कृति का सीधा और गहरा जुड़ाव रहा है। स्वाभाविक है कि नर्मदा रेखा के जो गाँव भू-सम्पन्न और वन सम्पन्न रहे हैं पशुधन सम्पदा से वे भरपूर रहे ही होंगे। सुखराम उईके के मुताबिक डूब से पहले बींझा गाँव में लगभग 2400 मवेशी और पशुधन था; उनके खुद के परिवार में 30 जानवर, जिनमें, गाय, बैल, भैंस शामिल थे, पाले जाते थे। नर्मदा पर निर्भर रहे इस गाँव की सम्पन्नता का अनुमान जरा इन अनुभवों से लगाइए कि जब भी नर्मदा परिक्रमावासी बींझा गाँव में आते थे तो उनमें से हर एक को अनाज, दाल, आटा, फल, सब्जी के साथ-साथ दो किलो दूध और दो किलो घी सब्जी दान स्वरूप दिया जाता था।
अनीतिगत विकास
जब बरगी बाँध, जिसे अब रानी अवंतीबाई लोधी परियोजना कहा जाता है, बना तब विस्थापन और भूमि अधिग्रहण से प्रभावित परिवारों के पुनर्वास, मुआवजा और आजीविका-आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में सरकार की जवाबदेहिता तय करने के लिये कोई नीति ही नहीं थी। जिस समय 162 गाँव के 1.10 लाख से ज्यादा लोगों के जीवन को जड़ों से उखाड़ा जा रहा था तब उन्हें 1000 से 2000 रुपए प्रति एकड़ का मुआवजा देकर केवल यही कहा गया था कि तुम जहाँ चाहो वहाँ बस जाओ। यह कभी नहीं बताया गया कि इन विस्थापित गाँवों को बसने के लिये, खेती-रोजगार के लिये, बुनियादी सेवाओं के निर्माण के लिये कौन सा इलाका या जमीन का कौन सा हिस्सा तय किया गया है। इन्हें जबरिया घुमन्तु और आश्रयविहीन बना दिया गया। हालांकि मध्य प्रदेश सरकार ने 1985 में मध्य प्रदेश प्रायोजित विस्थापित अधिनियम लागू किया, जिसकी प्रस्तावना में कहा गया था कि यह कानून सरकार द्वारा सिंचाई या किसी भी सार्वजनिक हित की परियोजना के लिये विस्थापित किये जाने वाले लोगों के पुनर्वास के मकसद से लागू किया जा रहा है। यह कानून उन लोगों को कुछ राहत जरूर पहुँचा सकता है जिनकी सम्पत्तियाँ और संसाधन अधिग्रहीत कर लिये जाते हैं परन्तु विडम्बना यह है कि इस कानून की धारा-10 कहती है कि सरकार को पहले यह नोटिफाई करना होगा कि परियोजना इस कानून के तहत आएगी; उसी के बाद इस कानून के प्रावधान उस परियोजना पर लागू होंगे। और चूँकि बरगी बाँध इसमें नोटीफाई नहीं किया गया इसलिये इस परियोजना के विस्थापितों को इस कानून का कोई संरक्षण नहीं मिला। मसला साफ है कि कानून का बनना, कानून के प्रावधानों को इस तरह से रचा जाना कि सरकार को कोई नुकसान न हो और कानून को छिपा देना, ये सब राजकीय कौशल के विषय हैं।
पशुधन का विनाश
जंगल और जमीन के साथ ही पशुपालन की संस्कृति का सीधा और गहरा जुड़ाव रहा है। स्वाभाविक है कि नर्मदा रेखा के जो गाँव भू-सम्पन्न और वन सम्पन्न रहे हैं पशुधन सम्पदा से वे भरपूर रहे ही होंगे। सुखराम उईके के मुताबिक डूब से पहले बींझा गाँव में लगभग 2400 मवेशी और पशुधन था; उनके खुद के परिवार में 30 जानवर, जिनमें, गाय, बैल, भैंस शामिल थे, पाले जाते थे। नर्मदा पर निर्भर रहे इस गाँव की सम्पन्नता का अनुमान जरा इन अनुभवों से लगाइए कि जब भी नर्मदा परिक्रमावासी बींझा गाँव में आते थे तो उनमें से हर एक को अनाज, दाल, आटा, फल, सब्जी के साथ-साथ दो किलो दूध और दो किलो घी सब्जी दान स्वरूप दिया जाता था। जब तक वे गाँव में रहते उन्हें यह दान मिलता रहता और बींझा के निवासी उनसे (परिक्रमावासियों से) निवेदन करते थे कि वे केवल शुद्ध घी से ही हवन करें। सुखरामदादा कहते हैं कि एक दौर वह था जब हम धर्म, पर्यावरण और समाज से अपनी सम्पत्ति साझा करना अपना कर्तव्य समझते थे और अब स्थिति यह है कि घी तो दूर हर रोज की जरूरत के लिये थोड़ा-थोड़ा तेल लाकर अपना काम चलाते हैं। खेती का चक्र ऐसा था कि पशुपालन करना सहज था, चारा आसानी से उपलब्ध था और उनके आवास के लिये जगह भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। जमीनें जाने के बाद पशुधन पर गहरा संकट छाने लगा। हमसे बात करते हुए डूब से ही प्रभावित मगरधा पंचायत के खामखेड़ा गाँव के रामदीन गम्भीर लहजे में बोलते हैं कि आज आप लोगों को हम बिना दूध की चाय पिला रहे हैं परन्तु पहले इस गाँव में हमेशा अपने अतिथियों को शुद्ध दूध और उसकी चाय पिलाई है। इस बाँध का प्रकोप देखिए कि न अनाज बचा, न खेती है न चारा है, न मवेशी हैं। वे कहते हैं कि अब चारों तरफ पानी ही पानी भरा है, बाड़ी के लिये खुली जमीन बची ही नहीं है और जंगल में केवल सागौन या साल के पेड़ हैं। इससे जानवरों को तो चारा मिलने की कोई सम्भावना ही नहीं बची थी। हमने अपनी आँखों के सामने एक मवेशी को भूख से दम तोड़ते देखा है। फिर जो परिस्थितियाँ बननी शुरू हुई उनमें मवेशियों को रखने के बारे में तो कोई सोचता भी नहीं है। इन गाँवों में 30 साल पहले जहाँ 1500, 1800, 2500 मवेशी हुआ करते थे वहाँ आज 15 मवेशी भी गिन पाना बेहद मुश्किल नजर आता है।
विकास के आकलन और जनविरोधी नीतियों पर सवाल
इस बाँध ने न केवल 80 हजार हेक्टेयर उपजाऊ जमीन को डुबोया है बल्कि विकास की परियोजनाओं के आकलन पर भी बड़े सवाल खड़े किये हैं। जब 1968 में इस बाँध की लागत तय की गई थी तब आकलन था कि इस पर 64 करोड़ रुपए खर्च होंगे परन्तु 1991 तक इस पर 566.34 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे। इसमें नहरों और सिंचाई की व्यवस्था पर होने वाला खर्च तो शामिल ही नहीं है; जिस पर 1100 करोड़ रुपए अतिरिक्त खर्च होने थे। यह लागत बढ़ना अभी भी बदस्तूर जारी है।
इसी तरह पहले आकलन किया गया था बरगी बाँध से 4.4 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी और इस इलाके में खेती की व्यवस्था में जबरदस्त सुधार-विकास होगा। परन्तु सच इतना सुहाना नहीं है। न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) एम. दाउद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 1993 की स्थिति में बरगी बाँध महज 12100 हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई करने की क्षमता अर्जित कर पाया है। वर्ष 2010 की स्थिति में इस परियोजना से 30 हजार हेक्टेयर भू-भाग की ही सिंचाई क्षमता निर्मित की जा सकी है, जिसमें से महज 15000 हेक्टेयर भूमि ही सींची जा पा रही है। बरगी परियोजना के दो मकसद थे - प्राथमिक मकसद था चार लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन की सिंचाई की क्षमता निर्मित करना और दूसरा मकसद था 105 मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन करना। ये लक्ष्य लोगों के हित में नजर आते हैं परन्तु सिंचाई का लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो पाएगा यह तय है।
इसी लक्ष्य के लिये बड़े बाँधों को तीर्थ और विस्थापन के नाम पर होने वाले जनसंहार को विकास के लिये बलिदान कहकर परिभाषित किया गया है। अब सरकार का चरित्र बदल रहा है। बाँध बन जाने के बाद भी यह सम्भावना रहती है कि सरकार एक समय पर बरगी जलाशय के जलस्तर को 418 मीटर के स्तर तक खाली कर दे। इस कदम से साढ़े तीन हजार परिवारों को 6 महीने के लिये लगभग 8 हजार एकड़ जमीन खाली मिल जाती है जिस पर वे डूब की खेती कर सकते हैं। बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ ने विस्थापितों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर संघर्ष किया और सरकार को समझाने की कोशिश की कि साल में 5-6 माह 4 मीटर बाँध खाली करने से हजारों किसान-आदिवासी परिवारों को आजीविका-खाद्य सुरक्षा का एक साधन मिल जाएगा। एक लम्बी संघर्ष-संवाद की प्रक्रिया के बाद 21 मई 1999 को सरकार ने नीतिगत निर्णय लेते हुए आदेश निकाला कि हर वर्ष 15 दिसम्बर तक बाँध के जल स्तर को 418 मीटर तक कम करके रखा जाएगा ताकि लोग डूब की खेती कर सकें। लेकिन इस क्षेत्र के उन प्रभावशाली जनप्रतिनिधियों और भू स्वामियों को यह नीति रास नहीं आई जो इन आदिवासियों को सस्ते श्रमिक के रूप में अपने नियंत्रण में बनाए रखना चाहते थे। साथ ही राजनीतिज्ञों को लगा कि संगठन के संघर्ष से इस तरह की नीति बनने से उनका राजनैतिक प्रभाव कम हेागा और संगठन की स्वीकार्यता बढ़ेगी। परिणामस्वरूप इन ताकतों ने सरकार पर इस नीति को खत्म करने के लिये जबरदस्त दबाव बनाना शुरू कर दिया। अगले डेढ़ वर्षों में ही बाँध खाली करने की व्यवस्था हटा ली गई। डूब की खेती के लिये बाँध का जलस्तर 418 मीटर तक करने की नीति तो रद्द हो गई परन्तु डूब की जमीन पर खेती करने के लिये पट्टा देने की सिंचाई विभाग की व्यवस्था आज 10 साल बाद भी बदस्तूर जारी है। सिंचाई विभाग प्रति एकड़ 100 रुपए प्रतिवर्ष के मान से पट्टा राशि उन परिवारों से वसूल करता है। परन्तु अब बाँध खाली नहीं होता है।
अब लगता है कि यह बाँध कम-से-कम विस्थापित परिवारों के लिये खाली नहीं किया जाएगा। यह तय है क्योंकि सरकार ने बरगी जलाशय से उद्योगों और उर्जा संयत्रों को पानी की आपूर्ति करने का निर्णय कर लिया है। बरगी जलाशय के पानी के औद्योगिकीकरण की शुरुआत हो चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार ने मेसर्स झाबुआ पॉवर लिमिटेड नामक कम्पनी को बिजली उत्पादन के लिये 2.30 करोड़ घनमीटर पानी हर साल देने के आदेश जारी कर दिये हैं। इसके साथ ही मण्डला जिले के चुटका में स्थापित होने वाले परमाणु ऊर्जा संयत्र के लिये बहुत बड़ी मात्रा में लगातार पानी की जरूरत होगी; जिसकी आपूर्ति भी बरगी जलाशय से ही किये जाने की व्यवस्था की जा रही है। इन जरूरतों को पूरा करने के लिये स्वाभाविक है कि विस्थापितों के लिये अब बाँध का पानी छोड़ा नहीं जाएगा बल्कि उसे ज्यादा सुरक्षित और ऊँचे स्तर तक संग्रहित रखने की कोशिशें की जाएँगी। जिसकी शुरुआत हो चुकी है।
क्या खेती को भी लाभ मिला?

दिलीप पटेल की जमीन गागंदा में डूब के इलाके में थी और मुआवजा मिलने के बाद उन्होंने 20 एकड़ जमीन खुरसीगाँव में खरीदी। सोचा था कि जिन्दगी को फिर से व्यवस्थित करेंगे परन्तु जब वर्ष 2002 में बरगी की मुख्य नहर का काम शुरू हुआ तो उनकी खुरसी की जमीन भी अधिग्रहीत की जाने लगी। उन्हें संघर्ष करना पड़ा, तब भी 4.55 एकड़ जमीन नहर के नाम हो ही गई। व्यवस्था की क्रूरता देखिए कि उनकी जमीन तो अधिग्रहीत हो गई पर मुआवजे के प्रकरण वाली फाइल ही नर्मदाघाटी विकास प्राधिकरण के दफ्तर से गुम हो गई। और दिलीप पटेल को बोला गया कि तुम्हारी कोई जमीन ली ही नहीं गई है। लम्बी प्रक्रिया के बाद उनकी नई फाइल बनाई गई। अन्ततः उन्हें 2008 में मुआवजे के लिये उच्च न्यायालय जाना पड़ा जहाँ न्यायालय ने 3 माह में उनके मुआवजे के भुगतान के आदेश दिये। 6 माह गुजर चुके हैं, आदेश के अमल का इन्तजार है। जिस जमीन की बाजार की कीमत 20 लाख रुपए है उसका सरकार ने 3 लाख रुपए मुआवजा तय किया है। यह तो दिलीप की कहानी का एक ही पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि उनकी शेष बची 8 एकड़ जमीन पर नहर के रिसाव से आ रहा पानी भर रहा है। यानी जिन्दगी की पूरी जमा पूँजी और सम्भावनाएँ डुबोती हैं ये बड़ी परियोजनाएँ!
यह माना जाने लगा है कि बड़े-बड़े ढाँचों को रचने वाले विकास के रथ के पहिए के नीचे कई आदिवासी और गाँव वाले कुचले जाएँगे। वो मरेंगे नहीं बल्कि जिन्दा रहेंगे। सरकार ऐसा ही विकास आगे बढ़ाती जाएगी। उसकी नीति है बेदखल और विस्थापित करते जाओ पर उनका पुनर्वास मत करो। इस बाँध को विकास का तीर्थ कहा जाता है पर इस तीर्थ को झूठ का तीर्थ कहना चाहिए यहाँ शैतान; का वास है और सरकार दूसरी पूजा करती है।जबलपुर सम्भाग के आयुक्त ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा- इस परियोजना के बारे में लगता है कि एक घोड़े के सामने गाड़ी खड़ी कर दी गई है। इस तरह की परियोजनाओं में बेहद सक्षम और परिपक्व नियोजन की बेहद जरूरत होती है। उसी के आधार पर कार्ययोजना का ऐसा क्रियान्वयन होना चाहिए जिनमें बिल्कुल सही-सटीक जानकारियों का उल्लेख हो; इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक, पर्यावरणीय, आर्थिक और अन्य पहलुओं से जुड़ी बातें शामिल हों। परियोजना के शुरू होने से पहले विस्थापित प्रभावित होने वाले हर व्यक्ति के सही और बेहतरीन पुनर्वास की योजना तैयार होना चाहिए। मौजूदा (बरगी परियोजना) मामले में बाँध का काम लगभग पूरा हो चुका है और इस साल यह अधिकतर जलस्तर तक भर जाने की सम्भावना है परन्तु पुनर्वास की योजना के बारे में सोचना अब शुरू किया जा रहा है, यह घोड़े के सामने गाड़ी खड़ी करने का स्पष्ट उदाहरण है। जिन लोगों को उनकी जमीन और घरों से उजाड़ा जा रहा है, उनका पुनर्वास एक बेहद ही संवेदनशील मामला है और इस काम में पर्याप्त समझ और प्रतिबद्धता की बेहद जरूरत होती है। ऐसे परिवारों के पुनर्वास के लिये प्रभावितों के सामाजिक, सांस्कृतिक ताने-बाने, अर्थव्यवस्था के ढाँचे उनकी सांस्कृतिक मान्यताएँ और उनकी मनोवैज्ञानिक स्थिति के साथ-साथ पुनर्वास के हर पहलू का गम्भीरता के साथ संज्ञान लिया जाना जरूरी है।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि आदिवासियों के पुनर्वास के सन्दर्भ में उन्हें आजीविका के लिये जमीन के विकल्प से बेहतर कुछ भी नहीं है। यदि ऐसा होता है कि आदिवासी परिवार की जितनी जमीन परियोजना के कारण अधिग्रहीत की गई है उतनी मात्रा में न भी दी जा सके तब भी यह तो सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि उन्हें कुछ जमीन दी जाये ताकि ये परिवार अपने पारम्परिक आजीविका के साधन से उजाड़े न जाएँ।
और फिर टूटता गया विश्वास
कठौतिया के पंच विजय सिंह आदिवासी कहते हैं कि किसको किस हिसाब से कितना मुआवजा मिला, यह कभी भी सरकार ने बताया नहीं। बरगी बाँध विस्थापित और प्रभावित संघ के राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि 1984 में बीजासेन गाँव में एक बैठक के दौरान एक विस्थापन से प्रभावित आदिवासी ने तत्कालीन भू-अर्जन अधिकारी से पूछ लिया था कि साब हमें कितना-कितना और किस हिसाब से मुआवजा मिल रहा है? इस सवाल के जवाब में भू-अर्जन अधिकारी ने भरी सभा में उस आदिवासी को जोरदार थप्पड़ मारा था। उस सभा के बाद दूर-दूर के गाँवों में भी कई सालों तक किसी विस्थापित ने कोई सवाल सरकार या सरकार के नुमाइन्दों से नहीं पूछा। जबकि कठोतिया के 75 वर्षीय रंगलाल आदिवासी कहते हैं कि मुआवजा कम था या ज्यादा, उस वक्त समझ में नहीं आया, बाद में पता चला। हम तो सरकार पर विश्वास करते थे। कभी नहीं सोचा कि अपनी सरकार और अपने कलेक्टर झूठ बोलेंगे और धोखा देंगे। हमसे हर अफसर यही कहता था कि अभी मुआवजा ले लो बाद में सबको 5-5 एकड़ जमीन और परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी मिलेगी। किसी भी गाँव में किसी भी व्यक्ति (जिसके सामने विस्थापन-मुआवजे की प्रक्रिया चली है) बात करने पर यह तथ्य बार-बार उभरकर आता है कि सरकार के नुमाइन्दों ने उनको जमीन और नौकरी देने का वायदा किया था। गाँवों के बुजुर्गों से जब उनके बच्चे यह सवाल पूछते हैं कि तुमने जमीन क्यों दी? तो बुजुर्ग यही जवाब देते हैं कि हमें तो बहुत कुछ देने का वायदा सरकार ने किया था हमारे साथ तो धोखा हुआ है। और इस तरह विस्थापितों की नई पीढ़ी के मन में भी सरकार और उसकी व्यवस्था के प्रति अविश्वास ही है।
यह माना जाने लगा है कि बड़े-बड़े ढाँचों को रचने वाले विकास के रथ के पहिए के नीचे कई आदिवासी और गाँव वाले कुचले जाएँगे। वो मरेंगे नहीं बल्कि जिन्दा रहेंगे। सरकार ऐसा ही विकास आगे बढ़ाती जाएगी। उसकी नीति है बेदखल और विस्थापित करते जाओ पर उनका पुनर्वास मत करो। इस बाँध को विकास का तीर्थ कहा जाता है पर इस तीर्थ को झूठ का तीर्थ कहना चाहिए यहाँ शैतान; का वास है और सरकार दूसरी पूजा करती है। बढ़ैयाखेड़ा के 75 वर्षीय दसरू आदिवासी कहते हैं कि यह विकास सरकार का गुलाम बनाता है और समाज-गाँव की आत्मनिर्भरता को खत्म करता है। हमारे गाँव पूरी तरह अत्मनिर्भर थे। हम सरकार के पास केेवल नमक लेने जाते थे इसके अलावा सरकार से और कोई उम्मीद नहीं करते थे पर इस बाँध ने अब पूरा गुलाम बना दिया। बींझा के गोपाल उईके मानते हैं कि नकद मुआवजा एक षडयंत्र है। नकद मुआवजा कितना ही मिले यह सरकार, माफियाओं और बाजार के पास चला जाता है। षडयंत्र रचकर वे हमसे इसे छीन लेते हैं। नकद मुआवजे को पुनर्वास नहीं माना जा सकता है; फिर भले ही यह कितने ही लाख क्यों न हो! यदि जमीन और जंगल हमारे पास नहीं हैं तो व्यक्ति और समाज दोनों की आत्मनिर्भरता खत्म हो जाती है। ये सरकार कौन से विकास की बात करती है जिसमें लोग उजड़ते हैं, भूख पैदा होती है और हकों की आवाज को कुचला जाता है।
मुआवजे और पुर्नवास के मायने
ध्यान रखिए कि बरगी बाँध से सिंचाई होनी थी, 10 लाख टन अनाज का उत्पादन बढ़ना था और बिजली पैदा होनी थी। पैदा हुआ अन्धेरा और भूख इन 1.10 लाख लोगों के लिये। बढ़ैयाखेड़ा के रघु माँझी बताते हैं कि महाशिवरात्रि पर हम शिव जी को अपने खेत की गेेहूँ की बाली चढ़ाते थे और आज की स्थिति में दूसरे गाँव से माँग कर लाते हैं और चढ़ाते हैं। इस गाँव का रकबा 1600 एकड़ का होता था; सब कुछ था पर अब..........? अब हम महीने के पहले शनिवार का बेसब्री से इन्तजार करते हैं। यही वह दिन है जब हम अपना गरीबी की रेखा का कार्ड लेकर 10 किलोमीटर दूर नर्मदा का बरगी जलाशय पार करके 20 किलो सस्ता राशन (गेहूँ-चावल) लेने जाते हैं और सोचते हैं कि इसको कैसे पकाएँ कि यह महीने भर चल सके। विकास के इस पैमाने का जिक्र बरगी के परियोजना दस्तावेज में तो नहीं था।
बाँध के डूब से प्रभावित एवं विस्थापित पशुओं और परिवारों का आर्थिक एवं सामाजिक सर्वेक्षण प्रतिवेदन डॉ. एस. के. श्रीवास्तव (डिप्टी सम्भागीय उपायुक्त आदिवासी विकास जबलपुर) के अध्ययन के मुताबिक 15 गाँवों के 124 परिवारों को 2395 पेड़ों का मुआवजा ही नहीं मिला। इस इलाके की 33 बसाहटों में से 170 ग्रामों में बसाहटें रहने के उपयुक्त नहीं है, डूब आती है, रोजगार के साधन नहीं हैं, आने-जाने के साधन नहीं हैं और आस-पास जमीन नहीं है।
यह साफ है कि समुदाय की अपेक्षाओं का पुनर्वास के दौरान कोई सम्मान नहीं किया गया। जिन 1804 परिवारों से शोधकर्ताओं ने जानकारी इकट्ठा की उनमें 1240 खेती ही करना चाहते हैं पर उन्हें मजदूरी के काम में धकेल दिया गया।
बाँध से विस्थापन के बाद गाँवों में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति औार ज्यादा बिगड़ी है। 58 गाँवों के सर्वेक्षण से पता चला कि जहाँ डूब से पहले चार गाँवों में सड़क-गलियों की सुविधा नहीं थी पर अब 19 गाँवों में से ये सुविधाएँ गायब हैं, 2 गाँवों में पीने के पानी का संकट था जो अब 11 गाँवों में फैल चुका है, चार गाँवों में श्मशान घाट नहीं था अब 13 गाँवों में अन्तिम संस्कार की सुविधा नहीं है। निस्तार की सुविधाएँ 5 गाँवों में नहीं थी पर अब 18 गाँवों में निस्तार की सुविघाएँ नदारद हैं। इस अध्ययन से यह भी पता चला है कि विस्थापन से प्रभावित परिवारों के मुख्य आजीविका के साधन 10 प्रतिशत तक और अन्य व्यावसायिक साधन 50 प्रतिशत तक प्रभावित हुए हैं।
मण्डला के बीजाडांडी विकासखण्ड के 888 परिवारों का सर्वेक्षण हुआ उनमें से 590 परिवार खेती और 72 परिवार पशुपालन का ही काम करते रहना चाहते हैं। वे अपना मुख्य पेशा बदलना ही नहीं चाहते हैं।
सिवनी के घंसौर विकासखण्ड में डूब के पहले कई स्थानों पर डिस्पेंसरी थी पर बाद में केवल 9 डिस्पेंसरी बची और स्वास्थ्य उपचार केन्द्रों के बीच औसत दूरी 30-35 किलोमीटर है। उपायुक्त (आदिवासी विकास) की रिपोर्ट के मुताबिक इतनी बड़ी फैली हुई जनसंख्या के बीच केवल 5 स्वास्थ्य केन्द्र होना पर्याप्त नहीं है। जबलपुर विकासखण्ड में विस्थापन के पहले जहाँ लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती था। बाद में वे मुख्य रूप से मजदूर हो गए। सरकार ने जिन 1219 परिवारों का अध्ययन किया, उनमें से 937 परिवार खेती करते थे और केवल 186 परिवार मजदूरी का काम करते थे परन्तु डूब के बाद 817 परिवार अब मजदूर हो गए हैं। केवल 138 परिवारों के पास ही खेती रह गई है। केवल 5 गाँवों के अध्ययन से पता चला कि वहाँ के 23 परिवारों को 996 वृक्षों का मुआवजा ही नहीं दिया गया। जब 658 परिवारों से पूछा गया कि वे कौन सा आजीविका का साधन चाहते हैं तो 513 ने खेती करने की इच्छा जताई। तीन जिलों के 5 विकासखण्डों में किया गया अध्ययन बताता है कि 75 फीसदी विस्थापित या बाँध प्रभावित परिवार आजीविका के मुख्य स्रोत के रूप में खेती ही करना चाहते थे और करना चाहते हैं परन्तु जब वर्ष 2002 में राज्य की पुनर्वास नीति बनी तब यह स्पष्ट हो गया कि जमीन के बदले जमीन पुनर्वास के तहत नहीं मिलेगी। इस नीति के तहत दर्ज पुनर्वास के सिद्धान्तों में लिखा है कि भू स्वामियों एवं पट्टाधारियों को यथा सम्भव निश्चित समय सीमा में मुआवजा भुगतान किया जाएगा। शासन की निर्धारित नीतियों के अन्तर्गत पात्रता के अनुसार, उनकी भूमि आवंटन करने पर यथा सम्भव विचार किया जाएगा। नीति के मुताबिक अतिक्रामकों को किसी भी भूमि आवंटन की पात्रता नहीं होगी। इस नीति में जहाँ भी आजीविका, मछलीपालन या जमीन आवंटन के बारे में नियम बनाने की बात हुई वहाँ ‘यथासम्भव’ शब्द जोड़ दिया गया है ताकि उसका क्रियान्वयन सम्भव न हो सके।
बाँधों में डूबी गाँवों की पहचान
बरगी बाँध के कारण 1972 से 1980 के बीच विस्थापित हुए गाँवों के परिवारों के लिये रोजगार गारंटी कानून अब तक मूर्त रूप नहीं ले पाया है। तीन पंचायतों के 11 गाँवों के लोगों को जरूरत के बावजूद पिछले दो वर्षों में मनरेगा के तहत रोजगार का अधिकार नहीं मिला है; जबकि हकीकत यह है कि बरगी बाँध के जलाशय के कारण एक समय खुशहाल और सुरक्षित आजीविका का जीवन जीने वाले इस समाज के सामने आय और आजीविका के साधन बेहद असुरक्षित और अनियमित हो गए हैं। क्या आज की स्थिति की किसी को कल्पना थी? इस सवाल के जवाब में बढ़ैयाखेड़ा के शोभेलाल कहते हैं - बिल्कुल नहीं। पहले तो उम्मीद नहीं थी कि बाँध का प्रभाव इतना विकराल होगा और लगता था कि थोड़ा बहुत पानी भरेगा, बाकी तो जमीन बच ही जाएगी।


और मछली भी छिन गई!

अपनी जमीन और गाँव डूब में आने पर ज्यादातर गाँव अपने पहले के स्थान से ऊपरी इलाकों और पहाड़ी सतहों पर बसते गए। उन्होंने अपने गाँवों के नाम भी नहीं बदले और स्वरूप भी। बींझा गाँव का इलाका जब डूबा तो वह एक किलोमीटर दूर पहाड़ी के ऊपरी स्थान पर जाकर बस गया। परन्तु विसंगति देखिए कि सरकार ने बींझा गाँव को वीरान गाँव मान लिया क्योंकि वह डूब प्रभावित था और उसके लोगों को मुआवजा दे दिया गया था। यह जाँचने की कभी कोई कोशिश नहीं की गई।आजीविका के संकट को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने वर्ष 1996 में अपनी जाँच रिपोर्ट में गम्भीरता के साथ चित्रित करते हुए स्पष्ट किया था कि बरगी बाँध के क्षेत्र में आजीविका के पारम्परिक अधिकार का हनन तो हुआ ही है; इसके साथ ही मौलिक मानव अधिकारों की स्थितियाँ भी बदतर ही हैं। यह बार-बार उभरकर आया कि बाँध के कारण खेती की जमीन का अभाव पैदा हुआ और प्राकृतिक संसाधन आधारित आजीविका के साधन व्यापक स्तर पर छीने गए। सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह सम्मानजनक और पर्याप्त पुर्नवास की सोच को लागू करती; पर ऐसा हुआ नहीं। बाँध के कारण विस्थापित होने वाले परिवारों ने इन परिस्थितियों में माँग की कि बरगी जलाशय में मछली पालन और उत्पादन का अधिकार बरगी बाँध विस्थापित मत्स्य सहकारी संघ को कम-से-कम 10 वर्षों के लिये दिये जाएँ। वर्ष 1994 में मध्य प्रदेश सरकार ने 5 साल के लिये विस्थापित मत्स्य संघ को मछली पकड़ने के अधिकार दिये थे किन्तु मछली उद्योग में रुचि रखने वाले प्रभावशाली समूहों के दखल के चलते सहकारिता विभाग ने इस संघ को शिकायतों और जाँच की प्रक्रिया से कमजोर करना शुरू कर दिया। अन्ततः यह तक कर दिया गया कि राज्य मत्स्य संघ इस जलाशय पर अपने अधिकार रखेगा और जलाशय ठेके पर देकर मछली उत्पादन कराने का निर्णय ले लिया। आज भी इस क्षेत्र में विस्थापित मत्स्य संघों की 50 से ज्यादा समितियाँ बनी हुई हैं पर उनके सदस्य यानी विस्थापन से प्रभावित लोग ठेकेदारों के लिये मछली मजदूर के रूप में काम करने के लिये मजबूर हैं।
अगस्त 1994 में बरगी बाँध विस्थापित मत्स्य उत्पादन एवं विपणन सहकारी संघ मर्यादित के तहत 2000 विस्थापित व्यक्तियों की सदस्यता वाली 54 सहकारी समितियों ने जब काम सम्भाला तो उन्होंने सालाना 406 से 582 टन मछली का उत्पादन चार सालों तक किया। इस कुल उत्पादन में से 80 फीसदी हिस्से पर सरकार को हर साल लगभग 20 लाख रुपए की रॉयल्टी भी दी गई। 1994 से 1997 की समयावधि में एक परिवार मछली पालन से सालाना लगभग 6600 रुपए की आय अर्जित करने के साथ-साथ अपनी रोजमर्रा की जरूरत के लिये पर्याप्त मछली भी हासिल करता था। जो की उनकी पोषण सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने का बड़ा स्रोत था। बींझा गाँव के सन्तोष धुर्वे बताते हैं कि आज हम ठेकेदारों के लिये ही मछली पकड़ते हैं। इसके लिये हमें 20 रुपए किलो का भाव मिलता है परन्तु वही मछली बाजार में 65 से 100 रुपए किलो में बेची जाती है और मछली पकड़ने के लिये जल, बोट सहित सभी लागत वाली व्यवस्थाएँ गाँव के लोगों को ही करना पड़ती हैं। इस काम में कोई निश्चितता भी नहीं है। अब तो स्थिति यह है कि कभी-कभी 10 दिन तक भी काम की मछलियाँ नहीं मिलती हैं क्योंकि जलाशय में बीजों (छोटी मछलियाँ) का रख-रखाव ही ठीक ढंग से नहीं हो रहा है। बढ़ैयाखेड़ा के बुजुर्ग दसरू आदिवासी बताते हैं कि खेती और मछली पकड़ने के दोनों साधन हाथ से चले जाने के बाद हमारे पास भूख मिटाने का कोई रास्ता बचता नहीं है। दसरू के लड़के, बहू और पोते-पोतियाँ सब कोई मजदूरी की तलाश में जबलपुर पलायन कर जाते हैं।
इस जलाशय में जो व्यवस्थाएँ मछलीपालन के लिये होनी चाहिए थी वे कभी हो नहीं पाई। बरगी बाँध के जलाशय में अब भी बड़े क्षेत्रफल में पानी के भीतर पेड़ो के ठूँठ हैं और वहाँ तक जाल नहीं बिछाए जा सकते हैं। यदि कोशिश की जाती है तो जाल फँस जाते हैं और कटकर बेकार हो जाते हैं। जाल के कटने का यह नुकसान बहुत भारी पड़ता है क्योंकि कोई भी मछुआरा 20 किलो के जाल का उपयोग करते हैं। जाल की कीमत कम-से-कम 400 रुपए प्रतिकिलो पड़ता है। जितना वे कमाते नहीं हैं उतना नुकसान करना पड़ता है।
सेहत भी बिगड़ती गई!
खेती और प्राकृतिक संसाधन आधारित आजीविका की व्यवस्था टूटने से प्रभावित समुदाय के पोषण स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ा। और इससे स्वास्थ्य की समस्याओं में बहुत बढ़ोत्तरी हुई। लोग पारम्परिक रूप से बीमारियों के लिये घरेलु और प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का उपयोग करते रहते थे, परन्तु हर्बल दवाइयाँ और जड़ी-बूटियाँ बाँध के भराव में डूब गईं। इन्हीं परिस्थितियों में यहाँ फाल्सीपेरम मलेरिया के प्रकरणों में भी खूब वृद्धि दर्ज की गई, इसके कारण अगस्त-नवम्बर 1996 में डूब प्रभवित गाँवों में 150 लोगों की मृत्यु हुई। मलेरिया शोध संस्थान, जबलपुर के नारायणगंज विकासखण्ड के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (मंडला जिला) के अन्तर्गत बरगी बाँध के कारण डूब प्रभवित गाँवों में मलेरिया के प्रकरणों में वृद्धि और उससे होने वाली मौतों के मामले दर्ज होने पर अक्टूबर-नवम्बर 1996 में यहाँ के 20 गाँवों में इस स्थिति के कारणों की जाँच की गई। इसके लिये बुखार से प्रभावित और उनके सम्बन्धियों के रक्त के नमूने इक्कठा किये गए। रक्त नमूनों की जाँच से पता चला कि 70 फिसदी लोगों को इससे पीड़ित थे, इनमें से 90 फिसदी प्लासमोडियम फाल्सीपेरम से प्रभावित थे। यह परिणाम सामने आने के बाद जनसमूहों में रक्त जाँच का काम किया गया, जिससे पता चला कि 39 फीसदी नवजात शिशु और 62 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में मलेरिया का पेरासाइट मौजूद था। 2 से 9 साल के 80 फीसदी बच्चों में बढ़ा हुआ प्लीहा पाया गया। मलेरिया की इतनी बड़ी पैमाने पर मौजूदगी का कारण एनोफिलीस कल्सिफेसिया और एनोफिलीस फ्लुवियाटिलिस थे, जिन्हें केवल निगरानी या तात्कालिक उपचार; क्लोरोक्वीन-1500 प्रिमाक्वीन-45 एमजी और डीडीटी के दो छिड़काव के नहीं दबाया जा सका। इसलिये यहाँ पर मलेरिया के उपचार और उसके स्रोतों पर नियंत्रण पाने के लिये एक स्थायी, सघन और ठोस रणनीति की जरूरत है।
क्या सिखाता है बरगी के विस्थापन का इतिहास
बरगी बताता है कि बड़े बाँध या कोई भी बड़ी परियोजनाएँ जो एक छोटे समूह, छोटे गाँव, छोटे जंगल या स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुँचाती हैं, वे व्यापकता में मानवता और मानव समाज का भला नहीं कर सकती हैं। व्यापक समाज, खासतौर पर माध्यमवर्गीय समाज को यह समझना होगा कि आज के विलास और सुख के लिये आने वाले कल की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती है। हमें भविष्य के प्रति भी जिम्मेदार होना होगा। 20 सालों से ज्यादा समय से बरगी के विस्थापितों के हकों की लड़ाई लड़ रहे राजकुमार सिन्हा के मुताबिक सरकार ने मूल सवालों को हमेशा नजरअन्दाज किया और संकट का आकलन करने में असक्षम रही। नीति बनाने वाले बार-बार यह दुष्प्रचार करते रहे कि आन्दोलन या सही पुनर्वास के लिये संघर्ष कर रहे लोग या संगठन विकास विरोधी हैं। बाँध के नाम पर विकास की प्रक्रिया को रोका जाता है और ये संघर्ष करने वाले आदिवासियों या गाँव के लोगों को पिछड़ा ही बनाए रखना चाहते हैं। पर यह सच नहीं है। जब बरगी में लोग संगठित होना शुरू हुए तब तो बाँध बन चुका था। किसी आन्दोलन या समूह ने इसके निर्माण में बाधा नहीं पहुँचाई। तब भी यह 16 साल में पूरा हुआ और लागत 10 गुना बढ़कर 600 करोड़ तक पहुँच गई। कितनी जमीन डूबेगी, कितने गाँव डूबेंगे, कितने लोग प्रभवित होंगे, इससे कितना अनाज उत्पादन बढ़ेगा, या कितने क्षेत्र में सिंचाई की सुविधाएँ मिलेंगी, ये सारे आकलन या दावे तो गलत ही निकले न! लोगों की जमीन के लिये बाजर की कीमत से 13 गुना कम मुआवजा तय किया गया, उन्हें रहने के लिये जमीन नहीं दी गई, 1 एकड़ से लेकर 500 एकड़ तक जमीन अधिग्रहीत की गई पर किसी को जमीन के एवज में जमीन नहीं दी गई, हर गाँव में जाकर सरकार के नुमाइन्दों ने लोगों से वायदा किया कि हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी और भी बहुत से झूठ हैं इस विनाशकारी विकास के पीछे। जब लोग संगठित होना शुरू हुए तब तक यह सारा विनाश और बर्बादी हो चुकी थी। कौन कहता है कि लोगों ने बाँध का विरोध किया। इन्हीं डूब वाले गाँवों के सैंकड़ों रहवासियों ने खुद बाँध के निर्माण में मजदूरी का काम किया, उन्होंने खुद अपने कन्धों पर बड़े-बड़े पत्थर लाद कर दो-दो सौ मीटर ऊपर चढ़ाया। अब लोग कहते हैं कि हमें अपनी कब्र का निर्माण खुद अपने हाथों से किया है। इन परिस्थितियों में संगठन बना और संघर्ष शुरू हुआ! क्या यह संघर्ष गलत है! जिन आदिवासियों ने अपने जीवन की पूरी सुरक्षा, सम्भावनाएँ और संसाधन इस तथाकथित विकास के नाम पर होम कर दिये, उन्हें तो केवल झूठ और धोखा ही मिला है न!
विकास के इस तीर्थ के आस-पास टहल कर और लोगों से मिलकर कुछ और निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं -
1. विकास के इन ढाँचों के बनने की प्रक्रिया के समाज को यह सन्देश दिया जाता है कि सरकार ही समाज को नियंत्रण करती है और अधिग्रहण केवल जमीन या संसाधनों का नहीं होता बल्कि समाज और समुदायों की ताकत का होता है। जिसके बाद सरकार और सर्वाेपरी होती जाती है।
2. जो लोग हमेशा मेहनत करते रहे, जंगल, जमीन, पानी के स्रोतों को संवारते रहे, डूब के बाद उनके पास कोई काम नहीं बचता है, सिवाय चिन्ता, भय और असुरक्षा के साथ जीने के। उन्हें मानसिक आघात लगता है। कई लोग बैठे-बैठे एकटक नदी और सरोवर को ताकते रहते हैं। खुद से बातें करते हैं। ऐसे में वे अवसाद के शिकार हुए और समय से पहले कई विस्थापित मर गए।
3. जब भी मुआवजे की बात आई, हमेशा नकद राशि की ही नीति बनाई गई, नकद मुआवजा मिलने से घरों में टूटन हुई, आपस में झगड़े हुए और परिवार टूटते गए।
4. जब गाँव के लोगों को नकद शुरू हुआ तो यहाँ फर्जी चिटफंड कम्पनियाँ सक्रीय हुईं और लगभग 250 परिवारों के मुआवजे की राशि लेकर गायब हो गईं।
5. आज इन परिवारों को कोई कर्ज देने को भी तैयार नहीं होते, क्योंकि कर्ज देने वाले व्यक्ति और संस्था दोनों ही विस्थापितों की माली हालत से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि इनमें से ज्यादातर के पास कर्ज वापस करने का कोई साधन नहीं है।
6. जब नकद मुआवजा देने की बात आई तब जानबूझ कर छोटी-छोटी राशि के नोट बैंक से निकाले गए ताकि राशि बहले ही कम हो पर उसका आकार बड़ा दिखे और आदिवासी उन्हें गिन ही न पाये। जिन लोगों ने बड़ी राशियाँ कभी देखी नहीं थीं वे तो झोली भर नोट देख कर ही सम्मोहित हो गए, पर वास्तव में इस पूरे दौर में उन्हें कम राशि दी गई और गड़बड़ियाँ हुईं।

बरगी की कहानी (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम | अध्याय |
1 | |
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3 | |
4 | |
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7 | |
8 | |
9 |