खाद्य सुरक्षा का मतलब केवल खाद्यान्न सुरक्षा नहीं है!
इसमें शामिल है-
1) उत्पादन/खरीदी/भण्डारण (संसाधनों के उपयोग और नियंत्रण की व्यवस्था क्या है?)
2) पहुँच (गैर-बराबरी-असमान वितरण-सामाजिक बहिष्कार)
3) उपयोग कर पाने की क्षमता
4) सांस्कृतिक व्यवहार
5) पीने का साफ पानी, स्वच्छता, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था
खाद्य सुरक्षा का महत्त्व
- भूख और कुपोषण से मुक्ति के लिये
- गरिमा और सम्मान के लिये
- अपनी अधिकतम क्षमता के मुताबिक रचनात्मक भूमिका निभा पाने के लिये
- गैर-बराबरी खत्म करने के लिये
- अन्य हक (शिक्षा, रोजगार, सुरक्षित मातृत्व) सुनिश्चित कर पाने के लिये
- राष्ट्र के सकारात्मक विकास और आत्मनिर्भरता के लिये
- समुदाय को सशक्त बनाने के लिये
खाद्य सुरक्षा के मायने
- वर्ष 2001 खाद्य एवं कृषि संगठन ने परिभाषा को स्पष्ट किया कि खाद्य सुरक्षा की स्थिति तभी होती है जब हर व्यक्ति को हर समय परिस्थिति के मुताबिक सक्रिय और स्वस्थ जीवन जीने के लिये पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक और उनकी प्राथमिकता वाले भोजन तक भौतिक, सामाजिक और आर्थिक पहुँच सुनिश्चित हो। (FAO-2002- The State of Food Insecurity in the World 2001-Rome- (अनुवाद))
- आज ज्यादा जोर उपभोग, माँग और वंचित तबकों की भोजन तक पहुँच से जुडे पक्षों पर है। इसे प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने अपने अध्ययनों से बहुत साफ किया है। वे खाद्य सुरक्षा की अवधारणा में व्यक्ति और परिवार के भोजन के हकों पर ज्यादा जोर देते हैं। (Sen, A- 1981- Poverty and Famines- OÛford: Clarendon Press- (अनुवाद)}
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के हक को इंसान का मूलभूत अधिकार बताया गया है। इसके अनुसार - ‘‘कानून की किसी अपवादस्वरूप प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।’’ {मौलिक अधिकार, भारत का संविधान}
सवाल यह है कि क्या भरपेट भोजन, जिसमें पर्याप्त पोषण न हो और जो गुणवत्तापूर्ण न हो, के बिना जीवन का मौलिक अधिकार हासिल कर पाना सम्भव है?
संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया है कि “सरकार को छह साल की उम्र तक के सभी बच्चों की बाल्यकाल से जुड़ी सारी देख-रेख और शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराने की जवाबदेही निभानी होगी।” (स्रोत-नीति निर्देशक तत्व, भारत का संविधान)
अनुच्छेद 47 कहता है - ‘‘अपने नागरिकों का पोषण-स्तर व उनका जीवन स्तर सुधारना तथा जन-स्वास्थ्य की बेहतरी को सरकार अपना प्राथमिक कर्तव्य मानेगी। उसकी जिम्मेदारी चिकित्सकीय उद्देश्यों के अलावा, ऐसे नशीले पदार्थों व औषधियों के उपभोग पर प्रतिबंध लगाने की भी होगी, जो स्वास्थ्य को हानि पहुँचाते हैं।’’ - (स्रोतः नीति निर्देशक तत्व, भारत का संविधान)
भारत की न्यायपालिका
‘‘न्यायालय इस बात को लेकर चिन्तित है कि समाज के निर्धन व बेसहारा व कमजोर तबके भूख व भुखमरी से न पीड़ित रहें। भूख और भुखमरी को रोकना केन्द्र व राज्य दोनों की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है। अब यह सब कैसे सुनिश्चित हो, एक नीतिगत मसला है, जिसे सरकार को सुलझाना होगा। न्यायालय तो यह सुनिश्चित करना चाहती है कि सरकारी गोदामों में भरा पड़ा अनाज न तो समुद्र में फेंके और न ही चूहों का भोजन बने। बिना क्रियान्वयन के नीतियाँ निरर्थक हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि खाद्यान्न उन लोगों तक पहुँचे जो भूख और भुखमरी के शिकार हैं।’’ (पीयूसीएल बनाम भारत सरकार व अन्य के प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय प्रकरण रिट पिटीशन 196-2001)
मौजूदा परिस्थितियाँ और विरोधाभास
भारत में निर्धारित कैलोरी उपभोग के मान से गरीबी और सरकार द्वारा व्यय के मानकों के आधार पर आंकी गयी गरीबी (कुल जनसंख्या का प्रतिशत)
वर्ष | कैलोरी के आधार पर | व्यय के मापदंड के आधार पर गरीबी |
1983 | 64.8 प्रतिशत | 56 प्रतिशत |
1987 | 63.9 प्रतिशत | 51 प्रतिशत |
1999 | 70.1 प्रतिशत | 36 प्रतिशत |
2004 | 75.8 प्रतिशत | 28 प्रतिशत |
2010 | 80 प्रतिशत | 37.2 प्रतिशत |
2011 | 29.7 प्रतिशत |
1970 के दशक में विशेषज्ञ समूह की अनुशंसा के आधार पर माना गया था कि ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिदिन 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी प्रतिदिन से कम उपभोग करने वाले लोग गरीबी रेखा के नीचे माने जाएँगे।
भोजन की विभिन्न सामग्रियों पर औसत व्यय (भारत में) | ||||
सामग्री समूह | मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (रुपए में) | कुल मासिक व्यय (प्रतिशत में) | ||
ग्रामीण | शहरी | ग्रामीण | शहरी | |
अनाज समूह | 154 | 175 | 10.8 | 6.7 |
दाल समूह | 42 | 54 | 2.9 | 2.0 |
दूध समूह | 115 | 184 | 8.0 | 7.0 |
खाने का तेल/वसा | 53 | 70 | 3.7 | 2.7 |
अंडा, मछली मांस | 68 | 96 | 4.8 | 3.7 |
सब्जियाँ | 95 | 122 | 6.6 | 4.6 |
फल | 41 | 90 | 2.8 | 3.4 |
शक्कर और नमक | 76 | 94 | 5.3 | 3.6 |
भोजन पर कुल व्यय | 756 | 1121 | 52.9 | 42.6 |
प्रति व्यक्ति मासिक कुल व्यय | 1430 | 2630 | 100 | 100 |
भारत में कम आहार की व्याप्तता राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-चार
भारत में कम आहार पाने वाले व्यक्तियों की संख्या आर्थिक सर्वेक्षण (2015-16) | |||||
वृद्धिबाधित | कम वजन के बच्चे खून की कमी | खून की कमी | वर्ष | संख्या | |
बिहार | 48.3% | 43.9% | 78.0% | वर्ष 1990-92 | 21.01 करोड़ |
महाराष्ट्र | 34.4% | 36.0% | 63.4% | वर्ष 2000-02 | 18.55 करोड़ |
पश्चिम बंगाल | 32.5% | 31.5% | 61.0% | वर्ष 2005-07 | 23.34 करोड़ |
मध्य प्रदेश | 42.0% | 40.6% | 68.9% | वर्ष 2010-12 | 18.99 करोड़ |
वर्ष 2014-16 | 19.46 करोड़ |
आधुनिक खाद्य नीति और राज्य की भूमिका का समालोचनात्मक विश्लेषण
हमारे समाज में खाद्य सुरक्षा का ताना बाना समाज के अपने ताने-बाने से जुड़ा रहा है। उत्पादन, भण्डारण, वितरण, विपरीत परिस्थितियों से निपटने की व्यवस्थाएँ समाज ने ही बनायी हैं। हम जानते हैं कि बीसवीं सदी की शुरुआत से ही पिछली एक सदी की संसाधनों की लूट का साफ असर दिखाई देने लगा था। उपनिवेशवाद, विश्वयुद्धों और केंद्रीयकृत पूँजीवादी बाजार के उभार के कारण खाद्य सुरक्षा की वह व्यवस्था चरमराने लगी, जिसमें समाज और प्रकृति संसाधनों के आपसी रिश्तों की मजबूती बड़ी भूमिका निभाती थी। हम अगले अध्याय में उन पहलुओं पर चर्चा करने वाले हैं, जिनसे यह पता चलता है कि किन परिस्थितियों में समाज की भूमिका कमजोर हुई, राज्य की भूमिका बढ़ने लगी और कब राज्य अपनी भूमिका को सीमित करके निजी क्षेत्र को ज्यादा महत्त्व देने लगा! स्पष्टता के लिये हम पिछले 75 सालों के अनुभवों को बदलाव के 5 चरणों में विभाजित करके देख रहे हैं -
1. संविधान के पहले का चरण (1939 से 1950)- आपदा की स्थितियों में सरकार की भूमिका
2. संविधान के बाद से उदारवाद की नीतियों तक का चरण (1950 से 1991)- जनकल्याणकारी राज्य और अधिकार के संरक्षण की भूमिका
3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली सीमित लक्षितकरण (1991 से शुरू) (लोकव्यापीकरण का खात्मा और गरीबी की रेखा का उपयोगव्यवस्था का सीमित, भ्रष्ट और कमजोर होना)। वर्ष 1997 में एक और विभाजन हुआ। गरीबी की रेखा के नीचे और गरीबी की रेखा के ऊपर का समाज
4. सर्वोच्च न्यायालय की सक्रिय भूमिका - नीति और अधिकार की बहस आर्थिक वृद्धि के दौर में खेती के संकट और भुखमरी की स्थिति पर सांगठनिक पहल (2001 से)
5. खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार बनना (2005 से 2014) - जिस दौर में ज्यादातर जनकल्याणकारी जिम्मेदारियों के सन्दर्भ में सरकार अपनी भूमिका सीमित कर रही थी, उस दौर में ये कानून बनना महत्त्वपूर्ण है।
संविधान के पहले का चरण (1939-1950)
- इस चरण को हमें उस सन्दर्भ में समझना होगा, जो सन्दर्भ इस दस्तावेज के शुरुआती हिस्से में “आधुनिक इतिहास में भूख और उसकी पृष्ठभूमि” शीर्षक के साथ दर्ज है।
- द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव।
- वर्ष 1939 में ब्रिटिश सरकार में मुम्बई में खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर सबके लिये खाद्यान्न की समान उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये खाद्यान्न वितरण शुरू किया।
- एक तरह से सूखे और अकाल की स्थिति में ऐतिहासिक रूप से खाद्यान्न की राशनिंग की व्यवस्था कीमतों के नियंत्रण और खाद्यान्न के प्रबंधन की नीति का आधार बनीं।
- इसी समय पर देश ने बंगाल के अकाल का वीभत्स दृश्य भी देखा, जब अनाज की कमी से नहीं, बल्कि भ्रष्ट प्रबंधन ने 3.5 लाख लोगों का जीवन ले लिया।
- दूसरे विश्व युद्ध के कारण वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न की कमी हुई।
- 1940 से 42 के बीच कीमतों को नियंत्रित करने के लिये बैठकें हुईं।
- छठी बैठक के बाद सितम्बर 1942 में भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बुनियादी सिद्धांत बने। इसमें खरीदी, खरीदी एजेंट्स के अनुबंध, वितरण, निरीक्षण और भण्डारण के बिंदु शामिल थे।
- मुख्य मकसद था खाद्यान्नों की कीमत का स्थिरीकरण।
- जमाखोरी, अकाल और सूखे के कारण स्थिति लगातार खराब होती रही। तब खाद्यान्न नीति समिति (1943) ने सुझाव दिया कि 1 लाख की जनसंख्या वाले शहरी क्षेत्रों में नियंत्रित राशन वितरण व्यवस्था लागू की जाए।
- देश के विभाजन से स्थिति और गम्भीर हुई क्योंकि भारत को मिली 82 प्रतिशत जनसंख्या, 75 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन और 69 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र।
संविधान के बाद से उदारवाद की नीतियों का चरण (1950 से 1991)
- दिसम्बर 1947 में महात्मा गांधी के प्रभाव में खाद्यान्न को नियंत्रण से बाहर किया गया, पर सितम्बर 1948 में पुनः नियंत्रित राशन वितरण की नीति आई। 1952-54 में यह नियंत्रण से मुक्त हुआ और पुनः 1957 में नियंत्रण लागू हुआ।
- वर्ष 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ, जिसमें मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख आया यानी स्वतंत्र भारत राज्य की जिम्मेदारी तय हुई पर एक व्यापक नीतिगत और ढाँचागत व्यवस्था बन नहीं पायी।
- वर्ष 1957 में खाद्यान्न जाँच समिति (अशोक मेहता समिति) ने लचीले और अप्रत्यक्ष नियंत्रण, ज्यादा राशन दुकानों की स्थापना, खाद्यान अधिकता-कमी के सन्दर्भ में क्षेत्रीयता की नीति जारी रखने और कीमतों के नियंत्रण की आंचलिक व्यवस्था की वकालत की।
- वर्ष 1958 से 66 में खाद्यान्न कमी के दौरान अमेरिका से पी एल 480 नीति के तहत खाद्यान्न आयात किया गया। अमेरिका ने भारत के संकट का एक अवसर के तरीके से उपयोग किया और मुद्रा नीति, विदेश व्यापार और उत्पादन, उर्वरकों की कीमतों के निर्धारण और वितरण से सम्बंधित शर्तें थोप दीं। 1966 में भारत अपनी कुल जरूरत का 14 प्रतिशत खाद्यान्न आयात करने के लिये मजबूर था।
- इस समय हरित क्रान्ति की शुरुआत हुई। किसी भी तरह से उत्पादन बढ़ाना एक मात्र लक्ष्य था। इसके लिये देश के कुछ क्षेत्रों में संसाधन झोंक दिए गए, मशीनरी और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाषकों का उपयोग बढ़ाया गया।
स्वतंत्रता के बाद विपरीत परिस्थितियों में खाद्यान्न उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भरता से खाद्य सुरक्षा नीति के विभिन्न आयामों पर चर्चा की शुरुआत हुई। मुख्य पहलू थे।
- किसानों को बाजार की विसंगतियों से बचाते हुए सही दाम पर खरीदी करना ताकि उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके
- सुरक्षित भण्डार (बफर स्टॉक) रखना ताकि संकटों (प्राकृतिक आपदा, युद्ध आदि) का सामना किया जा सके,
- बाजार में कीमतों को नियंत्रण में रखना
- आवश्यक वस्तुओं का सार्वजनिक वितरण करना
वर्ष1965 में भारतीय खाद्य निगम की स्थापना हुई, जिसका काम था खाद्यान्न की खरीदी करना, भण्डारण, परिवहन, वितरण और खुले बाजार में विक्रय।
- छठवीं पंच वर्षीय योजना (1980-85) में यह माना गया था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को इतना विकसित किया जाना चाहिए कि खाद्यान्न और अनिवार्य वस्तुओं के समान वितरण और कीमतों के नियंत्रण के लिये हमारी रणनीति का यह एक स्थायी हिस्सा बन जाए।
- 1982 में नये 20 सूत्रीय कार्यक्रमों में 17वाँ बिंदु अनिवार्य आपूर्ति कार्यक्रम का था, जिसमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विस्तार के लिये राशन दुकानों से स्कूल की किताबें और कॉपियाँ भी उपलब्ध करवाई जाने लगीं।
- दो सालों में राशन दुकानों की संख्या 2.30 लाख दुकानों से बढ़ाकर 3.02 लाख कर दी गयी।
- सरकार ने गेहूँ, चावल, शक्कर, केरोसीन, खाने के तेल और मुलायम कोयले की आपूर्ति की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ली।
- वर्ष 1984 में खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय की स्थापना की। इसमें दोनों अलग-अलग विभाग माने गए। नागरिक आपूर्ति विभाग पीडीएस की जिम्मेदारी लिये हुए है।
- 1985 में पीईओ द्वारा किये गए मूल्यांकन से पता चला कि समस्या कवरेज या प्रबंधन में कमी की नहीं थी, अनियमित आपूर्ति, गुणवत्ता और उठाव में कमी की थी। राशन दुकान चलाने वाले इसे घाटे का सौदा मानते थे।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली समिति लक्षितकरण (1991 से शुरू)
- नयी आर्थिक नीतियों में यह तय किया गया था कि सरकार अपने उत्तरदायित्वों को सीमित करेगी और सरकारी रियायत (सब्सिडी) को कम करेगी।
- एक तरह से खाद्यान्न को नियंत्रण से मुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई।
- वर्ष 1991-92 में पीडीएस के लिये 2.17 करोड़ टन अनाज आवंटित किया गया था, जिसमें से 1.90 करोड़ टन बाँटा गया था। वर्ष 1994-95 में 2.41 करोड़ टन का आवंटन हुआ, जिसमें से 1.31 करोड़ टन ही बटा।
- राशन के ढेर बढ़ने शुरू हो गए।
- इसी समय दुनिया भर में अनाज की कीमतें बढ़ने से भारत में लोगों को अनाज देने के बजाए निर्यात किया जाने लगा।
- 1752 विकासखंडों में रीवेम्पड पीडीएस शुरू की गयी।
- देश के 36 प्रतिशत परिवारों को गरीब मान कर एक बड़े तबके को असुरक्षित कर दिया गया। माँग ज्यादा थी परन्तु प्रावधान सीमित कर दिए गए, जिससे खाद्यान्न भ्रष्टाचार भयंकर स्तर तक बढ़ा।
- राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग मानता है कि ‘‘भोजन का अधिकार गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार का अविकल हिस्सा है और अधिकार की प्राप्ति को सुनिश्चित करने के लिये राज्य की क्या भूमिका होना चाहिए, इसको समझने के लिये अनुच्छेद-21 के साथ अनुच्छेद-39 (अ) {राज्य सभी नागरिकों, स्त्री और पुरुषों सभी को समान रूप से जीने के पर्याप्त साधन का अधिकार दे} और अनुच्छेद-47 {राज्य लोगों के पोषण और जीवन स्तर को उन्नत करने को अपनी जवाबदेही के तौर पर लेगा} को भी पढ़ा जाना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि भूख से मुक्ति एक मौलिक अधिकार है। भुखमरी इस अधिकार का हनन करती है।’’(राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग 37-3-97-एलडी)।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सीमित किये जाने से एक नयी परंपरा की शुरुआत भारत में हुई संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को सीमित किया जाना। ये अधिकार हर नागरिक के लिये हैं, न कि बीपीएल-एपीएल की श्रेणियों में बाँटने के लिये।
- नीतियों में बदलाव का सबसे बड़ा असर 1 जून 1997 से दिखाई दिया, जब लोक व्यापक पीडीएस को लक्षित पीडीएस में बदला दिया गया।
- अब सभी को सस्ता राशन नहीं देकर केवल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों को सस्ता राशन (आर्थिक लागत की आधी कीमत पर) देने की नीति अपनाई गयी, जबकि गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों को आर्थिक लागत पर खाद्यान्न दिए जाने की नीति बनी।
- यहीं से गरीबी की परिभाषा, गरीबी के मानक, कुल गरीब परिवारों की संख्या, गरीबों की पहचान और उनके सूचीकरण की विसंगतिपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी। भारत सरकार के हिसाब से अब केवल 36 प्रतिशत परिवार सस्ते राशन के हकदार थे, शेष 64 प्रतिशत को एक तरह से पीडीएस से वंचित कर दिया गया।
- 1998-2001 के बीच राशन की दुकान से मिलने वाली सामग्री की कीमतें (गेहूँ की 66 प्रतिशत और चावल की 62 प्रतिशत) बढ़ाई गयीं।
- मंशा यह थी कि एक तरफ तो सब्सिडी का खर्च बचे, दूसरी तरफ ‘‘उपभोक्ताओं को खुले बाजार की तरफ ले जाया जाए।’’ अध्ययन यह बता रहे थे कि खाद्यान्न और प्रसंस्कृत भोजन का बाजार बढ़ाना है तो सरकारी खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को खत्म किया जाना चाहिए!
सर्वोच्च न्यायालय की सक्रियता चौथा चरण-(2001 से)
- हमारी राय में बुजुर्गों, अशक्तों, विकलांगों, भुखमरी के शिकार दरिद्र महिलाओं और पुरुषों, गर्भवती-धात्री महिलाओं, खासकर उन मामलों में जिनमें वे या उनके परिवार न हों, को भोजन उपलब्ध कराना सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अकाल की हालत में भोजन की कमी हो सकती है लेकिन यहाँ तो प्रचुरता के बीच अभाव है। प्रचुर भोजन उपलब्ध है, लेकिन वह गरीब लोगों तथा दरिद्रों तक को वितरित नहीं हो पाता। इससे कुपोषण, भुखमरी और अन्य सम्बंधित समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। {सर्वोच्च न्यायालय 23.07.2001}
- भारत सरकार ने 1991 से पीडीएस व्यवस्था को धीरे-धीरे खत्म करने की कोशिश शुरू की थी। इससे एक तरफ तो लोगों में भुखमरी बढ़ना शुरू हुई, तो वहीं दूसरी तरफ सरकार के सदस्य उन्हें पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने की आर्थिक स्थिति में गोदामों में अनाज का जबरदस्त भण्डार भर गया। उस वक्त गोदामों में लगभग 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न वहाँ था।
मुख्य निर्देश
- पात्र व्यक्तियों की पहचान का काम जनवरी 2002 तक कर लिया जाए।
- अन्त्योदय योजना का लाभ देने के लिये बीपीएल में नाम होना जरूरी नहीं है।
- उन राशन दुकान संचालकों के लाइसेंस निरस्त किये जाएँ जो माह के पूरे दिन दुकान न खोलते हों। राशन कार्ड अपने पास रखते हों। राशन कार्ड में गलत जानकारी भरते हों। राशन की काला-बाजारी करते हों। राशन दुकान का संचालन किसी और को दे देते हों। सही निर्धारित कीमत पर राशन न देते हों।
- हर राशन की दुकान पर जानकारी का बोर्ड लगा होना चाहिए।
- हितग्राहियों को किश्तों में राशन पाने का हक है।
- बीपीएल परिवार को 35 किलो राशन पाने का हक है।
- सभी खाद्य/रोजगार कार्यक्रमों के सामाजिक अंकेक्षण और कोष के हर दुरुपयोग के हर मामले को अधिकारियों को सूचित करने का ग्राम सभाओं को अधिकार है।
- शिकायत मुख्य कार्यपालन अधिकारी/कलेक्टर को की जाएगी, जो इन शिकायतों को एक विशेष रजिस्टर में दर्ज करेंगे। इस अदालत के आदेश को लागू करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होगी।
- अगर अब न्यायालय के आदेशों को मनवाने में लापरवाही बरती गयी तो इसके लिये राज्यों के मुख्य सचिव और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक जिम्मेदार होंगे।
निम्न श्रेणियों को अन्त्योदय अन्न योजना में शामिल किया जाए-
- बूढ़े, लाचार, विकलांग, बेसहारा पुरुष एवं महिलायें, गर्भवती और धात्री माताएँ
- विधवा एवं वे एकल महिलाएँ जिनका कोई सहारा न हो,
- 60 साल व उससे ऊपर के बेसहारा व्यक्ति, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है
- वे परिवार जिनमें कोई विकलांग व्यक्ति है।
- ऐसा परिवार, जहाँ वृद्धावस्था, शारीरिक व मानसिक बीमारी, सामाजिक रीति-रिवाजों, विकलांग की देखभाल के लिये या किन्हीं अन्य वजहों से कोई काम पर न जा सकता हो
- आदिम जनजातियाँ
न्यायमूर्ति वाधवा आयोग के अवलोकन
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई अनियमितताएँ हैं। समय पर अनाज नहीं उठाया जाता है और कभी-कभी एक साथ उठा लिया जाता है।
- राशन दुकानों का संचालन राजनीतिक दलों से जुड़े लोग करते हैं। जिस दल की सरकार होती है, उस दल का राशन व्यवस्था पर प्रभाव होता है।
- निगरानी व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त है। जनप्रतिनिधि निगरानी समिति की बैठकों में आये ही नहीं।
- खराब गुणवत्ता का अनाज मिलता है।
- लोगों को जानकारी नहीं दी जाती है।
- सप्ताह में 4-5 दिन ही दुकान खुलती है।
- पारदर्शिता की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है।
- फर्जी राशन कार्डों का खूब उपयोग हो रहा है।
खाद्य सुरक्षा व्यवस्था में पीडीएस का योगदान
अगर क्रियान्वयन जवाबदेय हो तब राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एन एस एस ओ) द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर किये गए सर्वेक्षण से पता चला कि वर्ष 2004-05 की तुलना में वर्ष 2009-10 में व्यवस्था में सुधार हुआ है।
- वर्ष 2009-10 में एक ग्रामीण परिवार की कुल चावल खपत (6 किलो) में से 23.5 प्रतिशत (1.41 किलो) राशन की दुकान से आने लगा था। शहरी परिवार 0.81 किलो (कुल खपत 4.52 किलो का 18 प्रतिशत) राशन की दुकान से पाने लगे थे। वर्ष 2004-05 में यह अनुपात गाँवों में 13 प्रतिशत और शहरों में 11 प्रतिशत था।
- गेहूँ के मामले में वर्ष 2004-05 में गाँवों में कुल खपत का 7.3 प्रतिशत राशन दुकान से आता था, जो 2009-10 में बढ़कर 14.7 प्रतिशत हो गया। शहरों में यह अनुपात 3.8 प्रतिशत से बढ़कर 9 प्रतिशत हो गया।
- राशन की दुकान के गेहूँ का उपयोग करने वालों की संख्या गाँवों में 11 प्रतिशत से बढ़कर 27.6 प्रतिशत और चावल का उपयोग करने वालों की संख्या 24.4 प्रतिशत से बढ़कर 39.1 प्रतिशत हो गयी।
- शहरों में गेहूँ का उपयोग करने वाले 5.8 प्रतिशत से बढ़कर 17.6 प्रतिशत और चावल का उपयोग करने वाले 13.1 न से बढ़कर 20.5 न हो गए।
क्रियान्वयन जवाबदेय क्यों हो?
- वर्ष 2009-10 में 76 प्रतिशत परिवार चावल और 71.7 प्रतिशत परिवार गेहूँ खरीद कर उपयोग में लाते हैं। जबकि 21.4 न परिवार चावल और 26.1 प्रतिशत परिवार गेहूँ खरीदकर उपयोग में लाते हैं।
- वर्ष 2009-10 में हुए इस अध्ययन में बताया गया कि गाँवों में सवाल पूछे जाने से ठीक पहले वाले 30 दिनों में से 53.8 प्रतिशत परिवारों ने तुअर की दाल का उपयोग किया था, 17.5 प्रतिशत ने साबुत चने, 40.5 प्रतिशत ने मूंग, 34.9 प्रतिशत ने मसूर, 35.4 प्रतिशत ने उड़द और 76.4 प्रतिशत ने दूध का उपयोग किया था।
- लगभग 92 प्रतिशत लोग अंडा, चिकन और सभी किस्म की सब्जियाँ खरीद कर उपयोग में लाते हैं। 10 प्रतिशत से कम उत्पादन करके उपयोग करते हैं।
घरेलू खाद्य सुरक्षा में पीडीएस का योगदान | ||||||
सामग्री | ग्रामीण | शहरी | ||||
राशन दुकान से | अन्य स्रोत से | कुल | राशन दुकान से | अन्य स्रोत से | कुल | |
गेहूँ (मात्रा) | 2.880 (14.6%) | 16.858 | 19.738 (100%) | 19.738 (100%) | 15.324 (90.91%) | 16.86 (100%) |
गेहूँ (कीमत रुपए में) | 13.90 (रुपए 4.83) | 207.59 (रुपए 12.31) | 221.50 (रुपए (11.22) | 9.85 (रुपए 6.42) | 231.88 (रुपए 15.13) | 241.73 (रुपए 14.33) |
चावल (मात्रा) | 6.549 (23.46%) | 21.365 (76.54%) | 27.914 (100%) | 3.367 (18.01%) | 15.325 (81.99%) | 18.69 (100%) |
चावल (कीमत रुपए में) | 22.75 (रुपए 3.47) | 357.21 (रुपए 16.71) | 379.96 (रुपए 13.61) | 10.27 (रुपए 3.05) | 349.10 (रुपए 22.25) | 359.36 (रुपए 19.22) |
(स्रोतः राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण रिपोर्ट 545 पीडीएस और पारिवारिक उपभोग के अन्य स्रोत, रिपोर्ट जारी हुई -जनवरी 2013) |
पाँचवा चरण - रोजगार और खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार बनना (2005 से 2014)
- वर्ष 2001 में सर्वोच्च न्यायलय के सक्रिय दखल के बाद यह स्पष्ट हो गया कि रोजगार के अधिकार के बिना भुखमरी और खाद्य सुरक्षा से मुक्ति संभव नहीं है। तभी जन-संघर्ष भी शुरू हुआ रोजगार के हक के लिये। और वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बना।
- इसके साथ ही जन समूह यह भी मांग कर रहे थे कि अब जबकि अदालत ने खाद्य सुरक्षा को एक हक का दर्जा दे दिया है, तो सरकार को इसे लोकव्यापी कानूनी रूप देना चाहिए ताकि एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम बन सके।
- वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में वायदा किया कि वह गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को खाद्य सुरक्षा का अधिकार देगी। एक तरह से बहुत सीमित जनसंख्या (उस वक्त 29.7 प्रतिशत परिवार की गरीब माने जा रहे थे) को हक देने की बात कही गयी थी।
- तब बहस शुरू हुई कि यह मौलिक अधिकार सबको क्यों नहीं ? क्योंकि हमारी गरीबी की रेखा बेहद अव्यवहारिक, अमानवीय और अपमानजनक है।
क्या है कानून में?
एक तरह से इस खाद्य सुरक्षा कानून में पहले से ही चल रही योजनाओं को शामिल किया गया है। यह कानून जीवन चक्र के मुताबिक पोषण और खाद्य सुरक्षा का हक देने का वायदा करता है-
- मध्यान्ह भोजन योजना (स्कूल) - आठवीं तक के बच्चों को सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में गरम पका हुआ भोजन।
- एकीकृत बाल विकास सेवाएँ योजना (आंगनबाड़ी)- 6 वर्ष तक के बच्चों, गर्भवती और धात्री महिलाओं को पोषण आहार। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य-पोशण-टीकाकरण-स्कूल पूर्व शिक्षा के साथ लोकव्यापीकरण के निर्देश दिए हैं, पर कानून में नहीं हैं।
- लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली- राशन की दुकान के जरिये पात्र परिवारों (प्राथमिक श्रेणी और अन्त्योदय श्रेणी) को सस्ता राशन (5 किलो अनाज प्रति सदस्य प्राथमिक श्रेणी को और 35 किलो अनाज अन्त्योदय श्रेणी के पूरे परिवार को)।
- मातृत्व हक- हर गर्भवती-धात्री महिला को 6000 रूपए की सहायता (कुछ खास परिस्थितियों को छोड़कर)
कानून में नया क्या है? - मातृत्व हक - पोशक अनाजों को शामिल किया जाना - पीडीएस में बदलाव (कम्प्यूटराईजेशन, सामाजिक अंकेक्षण, राशन दुकान तक अनाज पहुँच) - गरीबी की रेखा से ज्यादा संख्या (मध्यप्रदेश में 42 लाख के बजाए 1.27 करोड़ परिवार शामिल होना) - महिलाओं के नाम पर राशन कार्ड होना - राशन दुकान निजी हाथों में न जाने देना - शिकायत निवारण व्यवस्था (खाद्य आयोग और जिला शिकायत निवारण अधिकारी) - खाद्य सुरक्षा भत्ता का प्रावधान - सामाजिक अंकेक्षण |
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की बहस?
- मांग यह थी कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोकव्यापीकरण करते हुए सबको खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में लाया जाए। गरीबी की रेखा एक खतरा है। (67 प्रतिशत जनसंख्या को शामिल किया गया।)
- उत्पादन, खरीदी और भण्डारण की व्यवस्था में विकेन्द्रीकरण के प्रति प्रतिबद्धता नहीं।
- मांग यह थी कि यदि वास्तव में कुपोषण खत्म करना है तो अनाज के साथ दाल और खाने का तेल देना होगा ताकि प्रोटीन और वसा की जरूरत को पूरा किया जा सके। (केवल अनाज का प्रावधान)।
- कृषि (उत्पादन, भण्डारण और खरीदी) की व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण की मांग थी, मुख्य कानून में न होकर अनुसूची में है।
- व्यवसायिक निर्यात पर रोक नहीं।
- भ्रष्टाचार पर कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए था।
- स्वतंत्र शिकायत निवारण व्यवस्था होनी चाहिए थी।
- नकद हस्तांतरण का प्रावधान न हो।
- कृषि की जमीन का अन्य प्रयोजनों के लिये उपयोग न किये जाने का प्रावधान नहीं है।
इतना अनाज-कितना अनाज?
आमतौर पर यह तर्क दिया जाता है कि सरकार देश में उत्पादित कुल अनाज का बहुत बड़ा हिस्सा खुद खरीद लेती है, जिससे खुले बाजार में अनाज की कमी हो जाती है और बाजार में अनाज उपलब्ध नहीं होता है। विश्व व्यापार संगठन भी यह कहता है कि भारत में किसानों से अनाज खरीद कर सस्ते में लोगों को अनाज बेचने से बाजार नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है, परन्तु यह सच्चाई नहीं है। पीडीएस, बफर स्टॉक समेत अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिये सरकार जो अनाज खरीदती है, वह देश के कुल उत्पादन के एक चौथाई हिस्से से भी कम होता है। ये देखिये -
वर्ष | कुल खाद्यान्न उत्पादन (मि. टन) | कुल खरीदी (मि. टन) | प्रति व्यक्ति सालाना उत्पादन (किलो) | पीडीएस (मि. टन) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (किलो) |
1970-71 | 108.4 | 8.9 | 7.8 | 197.75 | 0.542 |
1980-81 | 129.6 | 11.2 | 15.0 | 189.66 | 0.520 |
1990-91 | 176.4 | 24.0 | 16.0 | 208.44 | 0.571 |
2000-01 | 196.8 | 35.6 | 13.0 | 191.62 | 0.525 |
2011-12 | 257.4 | 64.5 | 47.9 | 212.7 | 0.583 |
2012-13 | 250.1 | 52.8 | 47.16 | 206.59 | 0.566 |
स्रोत- भारत का आर्थिक सर्वेक्षण (2012-13) और खाद्य, नागरिक आपूर्ति और पीडीएस मंत्रालय की वेबसाइट खाद्यान्न - वर्तमान में कुल मिलाकर लगभग 5.5 करोड़ टन खाद्यान्न का उपयोग हो रहा है, विस्तारित कार्यक्रम में 6.2 करोड़ टन खाद्यान्न की जरूरत होगी। |
आर्थिक संसाधन
- भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 27500 करोड़ रूपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। (अभी कुल 1.05 लाख करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं।)
- मातृत्व हक कार्यक्रम के लिये 16000 करोड़ रूपए की आवश्यकता होगी।
- अन्य कार्यक्रमों के विस्तार और सुधार के लिये 10000 करोड़ रूपए की आवश्यकता होगी।
{इस कानून के विरुद्ध यह तर्क दिया गया कि इतने संसाधन सरकार के पास नहीं हैं यह वास्तव में संसाधन है तभी तो हर साल भारत सरकार लगभग 6 लाख करोड़ रूपए की राजस्व छूट - Revenues Foregone देती है।}
‘राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून-2013 और सामुदायिक निगरानी मैदानी पहल के लिए पुस्तक (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
क्रम और अध्याय | |
पुस्तक परिचय : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 | |
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