कावेरी नदी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु आमने-सामने हो गए हैं। अब यह विवाद फिर से हिंसक रूप लेने लगा है। पानी के नाम पर दोनों राज्यों के लोगों में नफरत की आग इस तरह फैली है कि वे एक दूसरे को मरने-मारने पर उतारू होते जा रहे हैं। आगजनी की घटनाएँ हो रही हैं। यह बहुत शर्मनाक है, उन दोनों राज्यों के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये।
बीते कुछ सालों में हमारी बड़ी गलती यह हुई है कि हमने पानी को केन्द्रीकृत करने की भूल की है। हमने यह साबित किया है कि एक खास किस्म के संसाधनों से ही पानी की आपूर्ति की जा सकती है, अन्य संसाधनों और तौर-तरीकों को करीब-करीब भूला देने की हद तक उपेक्षित कर दिया है। विकल्पों पर हमारी कोई चर्चा नहीं है। कावेरी पर मचे घमासान से हमें पानी को लेकर कई मुद्दों की स्पष्ट समझ और कुछ सबक लेने की जरूरत है।
कभी दक्षिण भारत की गंगा के रूप में ख्यात यह नदी सदियों से लोगों को जोड़ती रही है लेकिन आज इसी के पानी के बँटवारे को लेकर इसी नदी की गोद में बसने वाले लोग तेरा पानी और मेरा पानी को लाठियाँ लेकर छिनने की हद तक पहुँच गए हैं।
कल तक कहा-सुना जाता रहा कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिये होगा लेकिन इससे हमें यह सीखने की जरूरत है कि पानी के मुद्दे पर अब लोगों की सहनशक्ति (लगातार कम होते जल संसाधनों और गिरते भूजल भण्डारों के मद्देनजर) जवाब देने लगी है। हमें पानी के मुद्दे पर अब परम्परागत तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करने, वैकल्पिक संसाधनों पर गम्भीर बात करने के साथ पानी के पूरे भूगोल की समझ बढ़ानी होगी ताकि हम फिर से पानीदार बन सकें।
कावेरी के पानी को लेकर विवाद करीब सवा सौ साल पुराना है लेकिन इसे लेकर सरकारों का रवैया हमेशा ही इसे टालते जाने का रहा है। सरकारें आजादी के पहले से अब तक इस पर कोई अहम राय नहीं बना सकी है। वहीं प्रभावित किसानों को कभी वैकल्पिक संसाधन मुहैया करने पर भी कोई सकारात्मक, ईमानदार और गम्भीर सोच नहीं दिखाई देती।
यह बात एक सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि संसाधनों की कमी से ही लोग आपस में लड़ते हैं। यदि इन क्षेत्रों में पानी की पर्याप्तता होती तो वे एक नदी के कुछ पानी को लेकर इस तरह जान हथेली पर लेकर तोड़फोड़ करने पर आमादा क्यों होते।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अपने 12 सितम्बर के आदेश में कर्नाटक को 20 सितम्बर तक तमिलनाडु के लिये हर दिन 12 हजार क्यूसेक पानी छोड़े जाने को कहा है। इससे पहले 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़ने की बात कही गई थी।
कर्नाटक ने हर दिन एक हजार क्यूसेक पानी छोड़े जाने की अनुमति माँगी वहीं तमिलनाडु के किसान और अधिक पानी छोडे जाने की बात कह रहे हैं। दरअसल कावेरी के पानी के बँटवारे को लेकर दो पड़ोसी राज्यों कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच ब्रिटिशराज के दौर 1891 से विवाद चल रहा है।
इस विवाद को समझने से पहले जरूरी है कावेरी की भौगोलिक स्थिति को समझना। करीब 800 किमी लम्बी कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक के कोडागु से होता है और यहाँ से कर्नाटक और तमिलनाडु के बड़े हिस्से में बहते हुए ये बंगाल की खाड़ी में पहुँचती है। इसका एक हिस्सा केरल और पुदुचेरी से भी गुजरता है।
1891 में मैसूर राज और मद्रास प्रेसिडेंसी के बीच हुए इस विवाद में अगले 50 सालों के लिये 1924 में समझौता हुआ लेकिन कर्नाटक की नाराजगी थी, उसे लगता था कि तमिलनाडु में अंग्रेजी शासन होने से उसके साथ न्याय नहीं हुआ। उसकी दलील थी कि कर्नाटक में खेती का विकास उतना नहीं है, जितना पड़ोसी तमिलनाडु में।
1972 में भारत सरकार ने आजादी के बाद पहली बार इसे सुलझाने के लिये समिति बनाई। इससे दोनों पक्षों के बीच समझौता होकर इसकी घोषणा संसद में की गई। लेकिन 1986 में तमिलनाडु ने केन्द्र सरकार से इसमें विवाद सुलझाने के लिये ट्रिब्युनल के गठन की माँग की। इसी दौरान किसानों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने भी ट्रिब्युनल गठित करने के निर्देश दिये।
1990 में ट्रिब्युनल गठित हुआ और उसने 1991 में कर्नाटक को कावेरी के पानी का एक हिस्सा दिया जाये लेकिन कर्नाटक ने बात नहीं मानी। 2007 में ट्रिब्युनल की रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी जिसमें 1892 और 1924 के अनुबन्ध को सही माना गया। 2013 में केन्द्र ने इस रिपोर्ट पर मुहर लगा दी।
5 सितम्बर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर कर्नाटक को दस दिन तक हर दिन 15 हजार क्यूसेक पानी छोड़े जाने के आदेश दिये और 12 सितम्बर 2016 को इसे 12 हजार क्यूसेक करने के आदेश दिये गए।
1891 में मैसूर राज और मद्रास प्रेसिडेंसी के बीच हुए इस विवाद में अगले 50 सालों के लिये 1924 में समझौता हुआ लेकिन कर्नाटक की नाराजगी थी, उसे लगता था कि तमिलनाडु में अंग्रेजी शासन होने से उसके साथ न्याय नहीं हुआ। उसकी दलील थी कि कर्नाटक में खेती का विकास उतना नहीं है, जितना पड़ोसी तमिलनाडु में। 1972 में भारत सरकार ने आजादी के बाद पहली बार इसे सुलझाने के लिये समिति बनाई। इससे दोनों पक्षों के बीच समझौता होकर इसकी घोषणा संसद में की गई।
12 सितम्बर को ही कर्नाटक के बंगलुरु और अन्य इलाकों में भड़की हिंसा में तीन दर्जन बसों और वाहनों को जला दिया गया। कुछ दुकानों-दफ्तरों में भी तोड़-फोड़ और आगजनी हुई है, वहीं तमिलनाडु में भी कन्नड़ों पर हमले और आगजनी की खबरें आ रही हैं।इन दोनों ही राज्यों में बड़ी तादाद में प्राकृतिक तालाब है और दोनों ही तालाबों से अपनी जमीन के बड़े रकबे में सिंचाई करते रहे हैं। इसके अलावा दोनों ही कई बड़ी और सदानीरा नदियों की विरासत से भी समृद्ध हैं तो फिर थोड़े से पानी के लिये यह कोहराम क्यों? कहीं पानी के मुद्दे पर राजनीति तो नहीं हो रही है। लोगों को अपनी जरूरत का छलावा देकर अपने स्वार्थ साधने की कोशिश तो नहीं है यह।
अकेले कर्नाटक की बात करें तो यहाँ गोदावरी, तुंगभद्रा, पेन्नार और भीमा जैसी समृद्ध जलराशि वाली नदियाँ हैं। इसकी मलभद्रा नदी की नहरों से राज्य के ढाई लाख हेक्टेयर जमीन में सिंचाई होती है तो कृष्णा नदी और तुंगभद्रा से करीब दो लाख हेक्टेयर में। इसके अलावा यह राज्य तालाबों से सिंचाई के लिये भी देश की पहचान है।
तालाबों से सिंचाई में देशभर में आन्ध्र और तमिलनाडु के बाद इसका तीसरा स्थान है। यहाँ करीब 1.47 हेक्टेयर जमीन में (2003-04 के उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक) तालाबों के जरिए सिंचाई होती है। यह राज्य की कुल सिंचाई क्षमता का 22 फीसदी तथा देश में तालाबों से कुल सिंचित हिस्से का 7.5 फीसदी है। यहाँ तुंगभद्रा नदी और उसकी सहायक नदियों के अपवाह क्षेत्र में तालाबों का विशेष महत्त्व है। यहाँ कृष्णराज जैसा बड़ा प्राकृतिक तालाब है।
वहीं तमिलनाडु भी पानी के लिहाज से घाटे में नहीं है। यहाँ कोलेरून, कोल्लिटम, पिनाकिनी और वेगा जैसी नदियाँ हैं। यहाँ कावेरी डेल्टा से सबसे ज्यादा चार लाख और कावेरी पर बने मैटूर बाँध से 5.8 हेक्टेयर जमीन में सिंचाई होती है।
कावेरी की सहायक नदी भवानी परियोजना से भी करीब एक लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती है। इसके अलावा यहाँ तालाबों से करीब 3.85 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती है, जो देश में तालाबों से सिंचाई का करीब 20 फीसदी तथा राज्य की कुल सिंचाई का 27 फीसदी होता है। यहाँ दक्षिण और पूर्वी हिस्से में तालाबों का खास महत्त्व है।
खासतौर पर चेन्नई से रामनन्द तक प्राकृतिक तालाबों की एक भरी-पूरी सतत शृंखला बनी हुई है। कुएँ और नलकूपों से भी यहाँ 1928 हेक्टेयर जमीन में सिंचाई होती है।
इन पड़ोसी राज्यों को कावेरी के नाम पर भिड़ाने के बजाय यहाँ के राजनैतिक दलों और सरकारों को पानी के अन्य वैकल्पिक संसाधनों पर भी फोकस करना होगा। यहाँ झीलों की कमी नहीं है, कमी है तो इच्छाशक्ति की। जरूरत है झीलों को और समृद्ध किये जाने की। नए जल संसाधनों के विकसित करने की।
स्थानीय जरूरतों और वहाँ के भूगोल के मुताबिक छोटी जल परियोजनाएँ तैयार की जाएँ और उनका लाभ यहाँ के किसानों को मुहैया कराया जाये। महज एक नदी के पानी को लेकर मारकाट मचाने कि जगह हमें समझदारी दिखाने की जरूरत है।
दक्षिण के प्राकृतिक तालाब बहुत समृद्ध हैं। ज्यादातर कठोर चट्टानी इलाकों में होने से मजबूत होते हैं और इनमें तीन तरफ काफी ऊँची दीवार होती है। इससे आसपास का जलस्तर भी बना रहता है। इनमें किसान सिंचाई के आलावा मछली पालन भी करते हैं। किसानों को वैकल्पिक रोजगारों से जोड़ने के प्रयास भी तेज करने होंगे। भारत में कुल सिंचित जमीन का 3.5 फीसदी हिस्सा यानी 19.41 लाख हेक्टेयर अब भी तालाबों से ही तर होता है।
कुल मिलाकर हमें पानी के लिहाज से एक समग्र दृष्टि बनाने की जरूरत है ताकि आने वाले दिनों में एक बार फिर से हम पानीदार समाज बना सकें।
(2003-04 के उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक)
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