कावेरी के पानी में फिर उबाल

Submitted by Editorial Team on Sun, 09/18/2016 - 15:10

कावेरी नदीकावेरी नदीकावेरी नदी के पानी पर कर्नाटक और तमिलनाडु में फिर आग भड़की हुई है, पानी के नाम पर दोनों राज्य पिछले दो हफ्ते से सुलग रहे हैं, तमिलनाडु को दस दिन तक 15 हजार क्यूसेक पानी देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से ही कर्नाटक में खासतौर से मंड्या, मैसूर और बंगलुरु में उग्र प्रदर्शन होने लगे, यहाँ से तमिलनाडु और केरल जाने वाली सड़क पर यातायात बाधित कर दिया गया।

पूरे राज्य में इस फैसले के विरोध में बन्द, जाम, हड़ताल, आगजनी और सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकसान का काम लगातार जारी हो गया। हिंसा और उपद्रव के कारण एक व्यक्ति की मौत हो गई और बंगलुरु के 16 थानों में धारा 144 लगाना पड़ा, तमिलनाडु के पंजीकरण संख्या वाली 15 से ज्यादा बसों को आग लगा दी गई।

दूसरी ओर 16 सितम्बर को तमिलनाडु में भी कावेरी जल के स्थायी समाधान की कर्नाटक में तमिलों पर हुए कथित हमलों के विरोध में बन्द का आयोजन किया गया। एसोचैम के ऑकड़ों के मुताबिक कावेरी विवाद के कारण केवल कर्नाटक को अब तक 25 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हो चुका है, लेकिन इस मसले का कोई हल अब तक नजर नहीं आ रहा है।

दरअसल, कावेरी के पानी को लेकर दोनों राज्यों में विवाद 125 साल पुराना है, लेकिन ताजा विवाद पाँच सितम्बर को आये उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद शुरू हुआ। 5 सितम्बर को दिये गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को तमिलनाडु को 10 दिन तक 15,000 क्यूसेक पानी देने का आदेश दिया था।

कर्नाटक सरकार ने अदालत के आदेश के बाद तमिलनाडु को 15,000 क्यूसेक पानी जारी करना शुरू कर दिया था लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट से अपने फैसले को वापस लेने की अपील की थी। जिस पर सुनवाई करते हुए 12 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को थोड़ी राहत दी और अपने पिछले फैसले में सुधार करते हुए 20 सितम्बर तक रोजाना 12 हजार क्यूसेक पानी तमिलनाडु को देने के आदेश दिया। बावजूद इसके कर्नाटक के लोगों खासतौर पर किसानों का गुस्सा शान्त नहीं हो रहा है।

इस फैसले का अन्यायपूर्ण बताते हुए कुर्ग से लगे इलाकों के कुछ किसानों ने कावेरी में कूद कर आत्महत्या करने की भी कोशिश की, गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस विवाद से पहले ही ये बयान भी दिया था कि कावेरी का एक बूँद पानी भी तमिलनाडु को नहीं दिया जाएगा।

मुख्यमंत्री के इस बयान से ही कावेरी के पानी की राजनीति और इस मसले की संवेदनशीलता को समझा जा सकता है। पिछले कुछ दशकों में दोनों राज्यों की राजनीति ने कावेरी के जल को भौगोलिक और प्राकृतिक दायरे में समझने और उसी मुताबिक उसके प्रबन्धन के बजाय उसे राज्य की पहचान और अस्मितामूलक राजनीति से जोड़ दिया है।

800 किलोमीटर लम्बी कावेरी नदी दक्षिण भारत की गंगा कही जाती है, जो कर्नाटक के कुर्ग से निकलकर तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी से होकर बहती है, समुद्र में मिलने से पहले इसका बड़ा हिस्सा पुदुचेरी के कराइकाल से होकर बहता है।

कावेरी के जल पर अंग्रेजों के शासनकाल में ही विवाद शुरू हो गया था 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी यानी आज का तमिलनाडु और मैसूर राज यानी कर्नाटक के बीच जल के बँटवारे को लेकर एक समझौता हुआ बाद में केरल और पुदुचेरी ने भी इसके पानी पर अपना दावा पेश किया। 1976 में कावेरी जल विवाद के सभी 4 दावेदारों के बीच एक समझौता हुआ था।

वैसे ये भी उल्लेखनीय है कि 1892 और 1924 के समझौते के मुताबिक कावेरी के 75 प्रतिशत जल पर तमिलनाडु और पुदुचेरी का अधिकार माना गया, 23 प्रतिशत कर्नाटक के हिस्से में आया और बाकी का 2 प्रतिशत केरल के ​हिस्से में।

1990 में केन्द्र सरकार द्वारा न्यायाधिकरण करने के बाद से इस विवाद को सुलझाने की कोशिश चल रही है, 1991 में न्यायाधिकरण ने एक अन्तरिम आदेश पारित कर यह निर्देश दिया कि कर्नाटक को कावेरी जल का एक तय हिस्सा हर साल तमिलनाडु को देना होगा, बावजूद इसके अब तक इसका हल नहीं निकल सका है। 2016 से पहले 2012, 2002, 1995-1996 में भी कावेरी के पानी को लेकर दोनों राज्यों के बीच युद्ध जैसी स्थिति बनी थी और ये सभी साल सामान्य से कम बारिश वाले साल थे। बहरहाल, 1986 में तमिलनाडु ने अन्तरराज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत इस मामले को सुलझाने के लिये केन्द्र सरकार से न्यायाधिकरण के गठन का निवेदन किया था। बाद में तमिलनाडु के कुछ किसानों की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार को इस मामले में न्यायाधिकरण का गठन करने का निर्देश दिया।

1990 में केन्द्र सरकार द्वारा न्यायाधिकरण करने के बाद से इस विवाद को सुलझाने की कोशिश चल रही है, 1991 में न्यायाधिकरण ने एक अन्तरिम आदेश पारित कर यह निर्देश दिया कि कर्नाटक को कावेरी जल का एक तय हिस्सा हर साल तमिलनाडु को देना होगा, बावजूद इसके अब तक इसका हल नहीं निकल सका है।

2016 से पहले 2012, 2002, 1995-1996 में भी कावेरी के पानी को लेकर दोनों राज्यों के बीच युद्ध जैसी स्थिति बनी थी और ये सभी साल सामान्य से कम बारिश वाले साल थे। विवाद को सुलझाने की दिशा में 2007 में कावेरी जल विवाद प्राधिकरण की ओर से जो फैसला आया उसके मुताबिक कावेरी के जल का बँटवारा इस प्रकार से किया गया।

एक सामान्य मानसून वाले साल में कावेरी में कुल पानी 740 टीएमसी होता है। इसमें से 419 टीएमसी फीट पानी तमिलनाडु को आवंटित किया गया, 270 टीएमसी फीट पानी कर्नाटक को 30 और 7 टीएमसी फीट पानी क्रमश: केरल और पुदुचेरी को। लेकिन इसके बाद भी कोई निश्चित समाधान नहीं हो सका।

2007 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सीआरए की सातवीं बैठक में कर्नाटक एवं तमिलनाडु को नौ हजार क्यूसेक पानी देने का निर्देश दिया। लेकिन ये निर्देश भी दोनों राज्यों को अस्वीकार्य था, 2013 में कर्नाटक सरकार ने ये भी कहा कि तमिलनाडु जब चाहे तब पानी दे पाना मुश्किल है, खासकर जून से सितम्बर के बीच तमिलनाडु को 134 टीएमसी फीट पानी दे पाना सम्भव नहीं है।

क्षेत्रफल के लि​हाज से देखा जाये तो 81,155 वर्ग किलोमीटर में फैले कावेरी बेसिन का 44 हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका तमिलनाडु में है और 32 हजार वर्ग किलोमीटर कर्नाटक में लेकिन कावेरी का उद्गम कर्नाटक में होने के कारण कर्नाटक इसके पानी पर पहला हक अपने राज्य का मानता है। इसलिये जिस साल बारिश कम होती है, मानसून सामान्य से कम होता है दोनों राज्यों के बीच कावेरी के पानी का बँटवारा गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा कर देता है।

इस साल भी विवाद की वजह बारिश का कम होना है। कावेरी बेसिन में चार जलाशय या डैम हैं, कृष्णराजसागर, काबिनी, हेमावती और हेरांगी, पिछले साल इन सबको मिलाकर कुल 59.95 टीएमसी फीट पानी था लेकिन इस साल अभी त​क केवल 31.58 टीएमसी फीट पानी ही जमा हो पाया है। कर्नाटक के कुर्ग, मैसूर, मंड्या जिलों में खेती के लिये कावेरी का पानी अनिवार्य है और बंगलुरु समेत कई छोटे शहरों को पीने के पानी की आपूर्ति भी इन्हीं जलाशयों से होती है।

इन जलाशयों में कम पानी होने पर इन जिलों और बंगलुरु को पेयजल मुहैया कराया जाना मुश्किल हो जाएगा। जैसा कि मुख्यमंत्री ने कहा भी कि अभी उनके पास अगले एक से डेढ़ महीने तक का ही पानी है, जाहिर है इन तथ्यों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती, आखिर कर्नाटक पानी की इस मात्रा की कमी कैसे पूरा करेगा? और बंगलुरु जैसी आबादी वाले शहर को पेयजल की आपूर्ति कैसे होगी? जबकि ये तथ्य हैं कि कावेरी के सबसे मुख्य जलसंग्रह क्षेत्र कोदगू में इस साल सामान्य से 35 प्रतिशत कम बारिश हुई है, ऐसे में पानी पर बवाल होना तय था।

कावेरी जल विवाद राजनीतिक मामला पकड़ता जा रहा हैकर्नाटक सरकार से लेकर यहाँ के लोगों की प्रतिक्रिया और तर्क यही हैं कि पहले खुद के घर को दुरुस्त करने के बाद ही दूसरों का घर ठीक किया जाता है। ये भी सच है कि कर्नाटक सूखे की भी मार झेल रहा है, पिछला साल पिछले चालीस साल में सबसे सूखा साल रहा है, कावेरी का पानी पेयजल की आपूर्ति में ही खत्म हो जा रहा है, किसानों को पानी ही नहीं मिल पा रहा।

गौरतलब है कि ​कर्नाटक में किसानों की आत्महत्याओं के मामलें में 40 प्रतिशत तक इजाफा हुआ है और 2014 के 321 की तुलना में 2015 में 1,300 किसानों ने यहाँ आत्म​हत्याएँ की हैं और ये भी सच है कि इन आत्महत्याओं की बड़ी वजह सूखा भी है।

एक और तथ्य ये भी है कि पिछले पचास साल में कावेरी का पानी मिलने के बाद से तमिलनाडु के कावेरी बेसिन वाले इलाके में सिंचाई आधारित खेती का रकबा 1,440,000 एकड़ से बढ़कर 2,580,000 एकड़ हो गया जबकि कर्नाटक का सिंचाई आधारित रकबा 680,000 एकड़ ही रहा है।

तमिलनाडु में तीन फसलें ली जाती हैं और ये समय सांबा धान की फसल का है जिसके लिये पानी चाहिए होता है जबकि कर्नाटक में दो फसलें ली जाती हैं बारिश नहीं होने पर यहाँ के किसानों के लिये रबी फसलों की बुआई करना भी मुश्किल है।

इसलिये तमिलनाडु सरकार के इस कथन में स्वभाविक चिन्ता है कि इस साल भी इन किसानों को पानी नहीं मिला तो लाखों किसान तबाह हो जाएँगे। बहरहाल, दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री ने एक दूसरे को पत्र अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की अपील की है साथ ही सिद्धारमैया ने इस मसले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से हस्तक्षेप कर विवाद का हल निकालने का निवेदन किया है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल ये क्या कावेरी जल विवाद को कोई राजनीतिक हल हो सकता है? जवाब है नहीं और सामान्य मानसून कोई गारंटी नहीं है।

दरअसल, समस्या का हल ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन जैसी वास्तविकताओं के सन्दर्भ में ही खोजा जा सकता है और ये किसी एक राज्य की नहीं बल्कि सभी राज्यों के प्रयास सहयोग और नीतिगत बदलावों से सम्भव है मसलन, वर्षाजल संरक्षण, खेती के तरीकों में बदलाव, नदियों के कैचमेंट इलाकों का संरक्षण, पहाड़ों और जंगलों का संरक्षण, इन उपायों के बगैर कावेरी में आने वाले दिनों में पानी रहेगा ही नहीं फिर किसके लिये लड़ेंगे?


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