मैं कावेरी बोल रही हूँ

Submitted by RuralWater on Fri, 11/25/2016 - 16:20

कावेरी नदीन्यायाधीश महोदय, भारतवर्ष
मैं कावेरी नदी हूँ, मुझे दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है। ऋषि अगस्त ने दिया था यह सम्मान मुझे, जब वे निकले थे उत्तर और दक्षिण की एकता के सूत्र तलाशने। एक वह समय था और एक आज है, आज मेरे तट पर बसने वाले मेरे बच्चे ही मेरा पानी लाल करने पर आतुर हैं। दक्षिण बँट रहा है और उसका कारण मैं हूँ... लेकिन मेरी इस हालत के जिम्मेदार आप भी हैं, आप, जी हाँ न्यायाधीश महोदय आप, आपने कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, पुदुचेरी सहित केन्द्र का पक्ष तो सुना लेकिन कभी मेरा पक्ष जानने की कोशिश ही नहीं की।

आप सब मिलकर मेरा पानी आपस में बाँटते रहे लेकिन कभी इस पर विचार नहीं किया कि नदी के पानी पर नदी का हिस्सा भी होता है, उसे भी जिन्दा रहने के लिये पानी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे पूरे समाज को चाहिए। माँ के स्तनपान और रक्तपान में फर्क होता है न्यायाधीश महोदय। हमेशा मेरी क्षमता से अधिक मेरा दोहन किया गया और इस हद तक विवाद पैदा किया गया कि मुझे ही आत्मग्लानि होने लगे।

कहाँ तो मैं सोना उगलती थी और खेतों को भी सोने की तरह लहलहा देती थी, कुबेर की बेटी जैसा सम्मान था कावेरी का, वहीं आज सीवेज और कारखानों का वेस्टेज मिला पानी मेरे साथ-साथ मेरे बच्चों को भी बीमार बना रहा है, आपने सोचा है कुर्ग से लेकर बंगाल की खाड़ी तक कितनी जगह प्रदूषण से नहाई हूँ मैं।

कुर्ग रियासत का क्षेत्र ही है जहाँ से निकलती हूँ मैं, यहीं अवतरित हुई थी दक्षिण का कल्याण करने हेतु। चौंकिए मत न्यायाधीश महोदय, कुएँ, तालाब, झील, नहर सब कुछ मानव निर्मित होते हैं या हो सकते हैं लेकिन नदी को इंसान नहीं बनाता वह अवतरित होती है, किसी व्यवस्था की बपौती बनकर नहीं बल्कि मानव कल्याण के लिये। अब ये समाज पर निर्भर करता है कि वह कब तक ईश्वरीय देन को अवतार बनाकर रखता है।

कुर्ग की पहाड़ियों से लेकर समुद्र तक लगभग 800 किलोमीटर की यात्रा में सैकड़ों बार मेरा रूप बदलता है, कहीं दो चट्टानों के बीच बहती पतली धारा तो कहीं दो किलोमीटर की चौड़ाई लिये हुए होता है मेरा पाट। मेरा हर रूप मेरे तट में बसने वालों की भलाई के लिये था लेकिन आपके आदेश और सरकारी नीतियों ने मुझे कुरूप बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी अपने रास्ते में आने वाली तकरीबन पचास नदियों को साथ लेकर समुद्र तक जाती हूँ मैं।

मेरे पानी के लिये लड़ने वालों को भी याद नहीं होगा कि कितनी जगह से मुझे काटकर उन्होंने नहर निकाली है। आज भी मेरे पानी से डेढ़ करोड़ हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है लेकिन मैं कितना भी कर लूँ लालच को पूरा नहीं कर पाऊँगी। आप जानते हैं मेरा वास्तविक नाम काविरि है, काविरि का अर्थ है- उपवनों का विस्तार करने वाली। अपने जल से ऊसर भूमि को भी वह उपजाऊ बना देती है।

समुद्र में समाने से पहले मैं कितने शहरों, कस्बों और तीर्थ स्थानों को तारती हूँ इसका अन्दाजा भी इन चक्काजाम करने वालों को नहीं होगा। एक समय था जब पहार नामक बन्दरगाह मेरी विदाई को स्मरणीय बनाता था, सैकड़ों साल पहले जब राजसत्ता होती थी, पहार बंगाल की खाड़ी में मेरा अन्तिम पड़ाव था।

दक्षिण का सबसे ज्यादा व्यापार मेरे ही दामन से शुरू होता था और आज मैं एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं हूँ, जिसे आपस में बाँटने के लिये लोग आपकी तरफ देख रहे हैं। क्या मेरा सम्मान इतना ही है, मेरे तट पर बड़े-बड़े वीरों, राजाओं, दानियों, कवियों ने जन्म लिया, कंबन ने अपनी रामायण भी मेरे ही तट पर रची। आपसे निवेदन है मेरे देय को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये नाकि कुछ चालाक राजनेताओं और लालच के सन्दर्भ में। मेरी याचिका है कि मुझमें थोड़ा मुझे भी रहने दें ताकि महसूस कर सकूँ मैं, कि मैं नदी हूँ , माँ हूँ।

आपकी कावेरी