एक तरफ हमारे गाँवों में पीने के पानी की किल्लत, तो दूसरी तरफ शहरों के शौचालयों में सफाई के नाम पर कई-कई लीटर पानी की बर्बादी। यह सब देखकर सुलभ शौचालय में पानी की बचत की तकनीक खोजी गई। इसके और भी कई फायदे हो रहे हैं।
हमारे देश के गाँवों में आज भी पीने के पानी की भारी किल्लत है। कहीं-कहीं तो हालात और भी ज्यादा बदतर हैं। एक तरफ पीने के पानी को मोहताज इस देश की ग्रामीण जनता है, तो दूसरी तरफ शहरों के शौचालयों में 8 से 10 लीटर तक पानी सफाई के नाम पर बर्बाद कर दिया जाता है। हाल यह है कि अब बड़े-बड़े शहर, महानगर भी पानी की किल्लत की चपेट में आ रहे हैं। पानी की ऐसी बर्बादी को देखकर बेहद दुख होता है।
यह सब देखकर ही दशकों पहले मेरे मन में विचार आया कि कुछ ऐसा किया जाये कि शौचालयों में शुचिता भी रहे और पानी की बर्बादी भी न हो। यह विचार आते ही मैंने सोचना शुरू कर दिया, जिसका परिणाम दो गड्ढेवाली सुलभ शौचालय तकनीक के रूप में सामने आया। इस कार्य को गति देने के लिये मैंने 5 मार्च, 1970 को ‘सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन’ की स्थापना की। आज हम इसके माध्यम से पेयजल के क्षेत्र की अनेक योजनाओं के साथ-साथ स्वच्छता और सामाजिक कल्याण के कार्य भी कर रहे हैं।
यहाँ बात हो रही है कि शौचालयों में पानी की बर्बादी को कैसे रोका जाये? इसके लिये सुलभ तकनीक की खोज की गई। इसमें दो गड्ढों की व्यवस्था है और ढक्कन को वाटरसील से सीलबन्द कर दिया जाता है। दोनों गड्ढों का इस्तेमाल बारी-बारी से होता है। एक गड्ढे के भर जाने पर मल-मूत्र को दूसरे गड्ढे में छोड़ा जाता है। पहले गड्ढे को दो साल तक वैसे ही छोड़ देते हैं। इस दौरान मानव- मल गन्धहीन, पैथोजेन-मुक्त ठोस थक्कों में रूपान्तरित होकर खाद बन जाता है। उसे आसानी से खोदकर निकाला जा सकता है और उसका इस्तेमाल खाद के रूप में किया जा सकता है।
इस तकनीक में मानव-मल को हाथ से खुदाई करके निकालने की जरूरत नहीं पड़ती। इस शौचालय को ‘सुलभ शौचालय’ नाम दिया गया, इसका निर्माण विभिन्न भूजल वाली जगहों में थोड़ी सावधानी के साथ किया जा सकता है। ‘टू-पिट पोर-फ्लश’ वाली इस तकनीक को शहरी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक इस्तेमाल में लाया गया। जहाँ सीवर और सेप्टिक टैंक नहीं हैं, वहाँ मानव-मल के निस्तारण के लिये इस प्रणाली को सुरक्षित और साफ-सुथरा माना गया। इस शौचालय के डब्ल्यू.सी. में एक पी-ट्रैप रहता है और उसकी बनावट इस प्रकार है कि इसमें मल की सफाई के लिये मात्र 1.5 से 2 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, जबकि कमोड आदि में 8 से 10 लीटर पानी की जरूरत होती है। इस प्रकार हमारे द्वारा तैयार किये गये शौचालय से बड़ी मात्रा में पानी की बचत होती है।
इसे वर्षों पहले बिहार के एक छोटे शहर आरा से सन 1974 में प्रदर्शन के तौर पर प्रारम्भ करके, टू पिट पोर-फ्लश सुलभ शौचालय का निर्माण किया गया। ‘कम लागत वाली सफाई-व्यवस्था’ को लघु-स्तर से प्रारम्भ करके वृहत-स्तर तक पहुँचाया। अब इस तकनीक और परियोजना को राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति तथा मान्यता प्राप्त है।
शौचालय का एक छोटे शहर से चलकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाने का यह एक लम्बी और संघर्षपूर्ण कहानी है। बी.बी.सी. के ‘होराइजन्स’ प्रकोष्ठ ने ‘सुलभ शौचालय-तकनीक’ को विश्व के पाँच अद्भुत आविष्कारों में से एक माना है। इस तकनीक को डब्ल्यू.एच.ओ., वर्ल्ड बैंक, यू.एन.डी.पी., यूनिसेफ, यू.एन. हैबिटैट इत्यादि विश्व की प्रमुख एजेंसियों और भारत सरकार, चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों ने अपनाया और अनुमोदन किया है।
जब मानव मल एक जगह शौचालय में इकट्ठा होने लगा, तो उसके उचित निपटान और उपयोग के लिये सार्वजनिक शौचालयों के मानव-मल से बायोगैस उत्पादन की विधि की खोज की गई। पटना में सन 1977 में पहली बार एक बायोगैस प्लांट की स्थापना की। प्रारम्भ में कुछ तकनीकी समस्याएँ आईं, परन्तु बाद में अनुसन्धान और प्रयोग द्वारा इनका समाधान कर लिया गया।
इस बायोगैस प्लांट का संशोधित डिजाइन विकसित किया गया और इसे विभिन्न राज्यों में कार्यान्वित किया गया। आज पूरे देश में ऐसे लगभग 200 प्लांट कार्यरत हैं। जहाँ यह व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, वहाँ बड़े सामुदायिक शौचालयों के लिये मानव-मल के निपटान हेतु सबसे अच्छा विकल्प बायोगैस प्लांट है। इसका अतिरिक्त लाभ यह है कि यह रिन्यूएबल (नवीकरणीय) ऊर्जा का भी स्रोत है, जो बात सेप्टिक टैंक व्यवस्था के साथ नहीं है। मानव-मल से उत्पादित बायोगैस का कई प्रकार से प्रयोग किया जाता है- खाना बनाना, बत्ती-बिजली उत्पादन तथा शरीर गर्म रखना। इसके अलावा, इसके मल का उपयोग खाद के रूप में किया जाता है, क्योंकि इसमें नाइट्रोजन, पोटैशियम तथा फास्फेट की अच्छी मात्रा रहती है।
बायोगैस बनाने के बाद इससे जो जल निकाला जाता है, उसके खराब रंग, दुर्गन्ध, रोगजनक कीटाणु तथा अधिक मात्रा में बी.ओ.डी. के कारण वह कृषि कार्य/बागवानी एवं पानी में सीधे बहाव के लिये अनुपयुक्त होता है। इसलिये सुलभ शौचालय में मल के साथ जो जल जाता है, उसके शोधन और शुद्धिकरण की तकनीक को विकसित किया गया। हमारी संस्था देशभर में फैले हुए लगभग 9,000 सार्वजनिक शौचालयों की देखभाल कर रही है, जिनमें से 200 बायोगैस प्लांट से जुड़े हुए हैं।
हमारे लिये यह महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह बाहर निकलने वाले पानी को गन्ध, रंग एवं रोगजनक कीटाणु से मुक्त रखे, जिससे कृषि-कार्यों के लिये इसका सुरक्षित प्रयोग हो सके। कई परीक्षणों के बाद एक नई और सुविधाजनक तकनीक का विकास किया है, जिससे मानव-मल-आधारित-बायोगैस प्लांट से निकलने वाला पानी रंगहीन, गन्धहीन, कीटाणुरहित एवं रोगमुक्त शुद्ध जल में परिवर्तित हो जाता है।
चारकोल एवं अल्ट्रावायलेट किरणों के माध्यम से इस जल को छानना; इसी पर यह तकनीक आधारित है। फिल्ट्रेशन यूनिट इसे रंगहीन एवं गन्धहीन बना देता है। कीटाणुओं से मुक्त कर देता है तथा यू.वी. बैक्टीरिया को खत्म कर देता है। यह गन्दे पानी का बी.ओ.डी. तथा सी.ओ.डी. भी कम करता है। चूँकि ऐसा गन्दा पानी मानव-मल से आता है, इसका बी.ओ.डी. (बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड), जो 200 मिग्रा प्रति लीटर है, उपचार करने के बाद घटकर 10 मिग्रा/लीटर से भी कम हो जाता है, जो जलीय एवं कृषीय उपयोग, बागवानी तथा पानी में बहा देने के लिये सुरक्षित है। सूखाग्रस्त इलाके में सार्वजनिक शौचालय का फर्श साफ करने में भी इसका प्रयोग किया जा सकता है।
अपने देश के अतिरिक्त अफगानिस्तान के काबुल शहर में भी ऐसे पाँच सुलभ सार्वजनिक शौचालय-परिसर बनाये गये हैं, जहाँ बायोगैस का उत्पादन होता है और उसमें एकत्र जल को शुद्ध किया जाता है।
बड़ी बात यह है कि जल के बचाव और सार्वजनिक शौचालय में एकत्र मानव-मल और उसमें प्रयुक्त जल को शुद्ध करने की इस तकनीक को वैश्विक मान्यता मिली है। वर्ष 2009 में जल के क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘स्टॉकहोम वॉटर प्राइज’ से हमें सम्मानित किया गया। देश-विदेश से मिलने वाले अनेक सम्मान हमें निरन्तर गुणवत्तापूर्ण कार्य करने के लिये प्रेरित करते रहते हैं। इस विकेन्द्रीकृत प्रणाली के कई लाभ हैं, जैसे-
1. मल-जल के संग्रहण तथा प्रणाली के संचालन और रख-रखाव की लागत बहुत कम है।
2. मानव-मल को स्पर्श करने की आवश्यकता नहीं होती।
3. यह वातावरण को स्वच्छ बनाता है एवं सामाजिक रूप से स्वीकार्य है।
4. बायोगैस का उपयोग विभिन्न कार्यों में होता है।
5. साफ किया हुआ पानी कृषि, बागवानी या जलाशय में बहा देने के दोबारा प्रयोग के लिये सुरक्षित है।
6. साफ किये गये जल को सूखाग्रस्त क्षेत्र में सार्वजनिक शौचालय के फर्श को साफ करने के प्रयोग में लाया जाता है।
7. यदि इसे नाले में बहा दिया जाए, तब एस.टी.पी. (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) पर प्रदूषण-भार बहुत कम होगा।
इस प्रकार बायोगैस-तकनीक के माध्यम से मल-निकासी उपचार की विकेन्द्रीकृत प्रणाली प्रदूषण से लड़ने में, आर्थिक भार को कम करने में अधिक प्रभावी है।
(लेखक ‘सुलभ इंटरनेशनल’ के संस्थापक हैं)