किसके सपनों का भारत !!

Submitted by Hindi on Wed, 08/17/2011 - 15:02
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, 12 अगस्त 2011

महाराष्ट्र में पुणे के निकट मावल में पुलिस की गोली से चार किसानों के मारे जाने के समाचार को यदि आप सरकारी ‘दूरदर्शन’ के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे तो आपको लगेगा कि यह कोई ऐसा छोटा-मोटा मामला है जिसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी ने संसद की कार्रवाही बाधित कर दी है। इसके अलावा आप और कुछ भी नहीं जान पाएंगे कि अन्ततः यह समस्या है क्या?

जबकि मूल मुद्दा है महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पंवार जो कि केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पंवार के भतीजे हैं के ‘सपनों की परियोजना’ जिसमें पुणे मुंबई मार्ग पर पिंपरी-चिंचवाड़ नई टाउनशिप विकास प्राधिकरण के गठन के साथ बड़े आईटी कंपनियों, हवाई अड्डों और औद्योगिक क्षेत्र के लिए आवश्यक हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण और इस टाउनशिप के लिए पावना बांध से पानी लाने के लिए पाइप लाइन डालने हेतु रास्ते में आने वाली अत्यंत उपजाऊ कृषि भूमि का अधिग्रहण। इस इलाके में अधिग्रहण का यह खेल अंग्रेजों के समय से चल रहा है तब यहां रक्षा संस्थानों के लिए अधिग्रहण किया गया। आजादी के बाद सन् 1957 से अब तक किसानों से पावना बांध के विस्तार, पुणे मुंबई राजमार्ग विस्तार, इसके बाद एक्सप्रेस वे निर्माण और अब हिजेनवाड़ी आईटी पार्क एवं पिंपरी-चिंचवाड़ नई टाउनशिप विकास प्राधिकरण के लिए भूमि की मांग की जा रही है। गौरतलब है कि कुछ वर्ष पूर्व इस इलाके में सरकार द्वारा एक विशेष आर्थिक क्षेत्र हेतु 2000 एकड़ भूमि अधिग्रहण के प्रस्ताव का इतना जबरदस्त विरोध हुआ था कि सरकार को यह योजना रद्द करना पड़ी थी और अभी हाल ही में मान गांव के निवासियों ने हिजेनवाड़ी आईटी पार्क के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए आए अधिकारियों को इस प्रक्रिया पर रोक लगाने हेतु मजबूर कर दिया था।

‘किसान किसी की तलवार बल के बस न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, न किसी तलवार से वे डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका डर छोड़ दिया है।’ (महात्मा गांधी)

इसके बावजूद केंद्रीय कृषि मंत्री जिनकी कि जवाबदारी है कि देश की कृषि भूमि और किसान सुरक्षित रहें कि अगुवाई वाले दल और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री के सपने को पूरा करने के लिए किसानों के साथ की गई इस बर्बरता का क्या अर्थ है? समाचार पत्रों में आया है कि अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसान उग्र हो गए और उन्होंने तीन पुलिस वाहनों को आग लगा दी। क्या तीन वाहनों की कीमत चार मनुष्यों की जान हो सकती है? पोस्टर्माटम रिपोर्ट बता रही है कि पुलिस की गोली से मारे गए दो युवकों के गले में और युवती के सीने में गोली लगी है। घायल होने वालों में से भी अधिकांश के शरीर के ऊपरी हिस्से में गोलियां (पुलिस की) लगी हैं। जबकि पुलिस मेन्युअल जो कि अंग्रेजों के समय बना था और जिसका उद्देश्य देश में स्वाधीनता आंदोलनों को कुचलना ही था, तक में साफ लिखा है कि प्रदर्शनकारियों पर अपरिहार्य स्थिति में कमर से नीचे के भाग में ही गोली चलाई जाए। मगर आजादी के 6 दशक बाद अब पुलिस प्रदर्शनकारियों के सिर को निशाना बनाकर गोलियां चला रही है।

क्या यह देश के किसानों को सबक सिखाने का तरीका है? गौरतलब है देश की दो तिहाई आबादी आज भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है और इस तरह का गोली चालन साफ दर्शा रहा है कि सरकार और सरकारी अमला किसके लिए कार्य कर रहा है। पुणे के पुलिस अधीक्षक का कहना है कि गोली चालन आत्मरक्षा में किया गया था। परंतु विचारणीय यह है कि जब क्षेत्र के रहवासी अपनी भूमि देना ही नहीं चाहते तो उनकी सम्पत्ति की रक्षा का जिम्मा कौन उठाएगा? क्या यह पुलिस का कर्तव्य नहीं है कि वह गैरकानूनी अधिग्रहण फिर भले ही वह कोई अन्य सरकारी विभाग ही क्यों न कर रहा हो, से भू-स्वामियों की रक्षा करें। लेकिन वह तो आंख मूंच कर वही करती है तो आला-अफसर और राजनीतिक नेतृत्व उससे कहता है।

ऐसा सिर्फ मावल में ही नहीं हुआ। पिछले वर्षों में नर्मदा घाटी, कलिंग नगर, विशाखापट्टनम, सिंगुर, नंदीग्राम, आंध्रप्रदेश से लेकर उत्तरप्रदेश के भट्टा परसौल तक यानि पूरे देश में पुलिस प्रशासन का दमनकारी स्वरूप हमारे सामने है। बिहार में फारबिसगंज में पुलिस की गोली से मृत व्यक्ति की लाश पर उछलता पुलिस जवान क्या हमारे देश का नया प्रतीक चिन्ह बन रहा है? इस बीच इस अत्यंत महत्वपूर्ण समाचार पर भी निगाह डालना आवश्यक है जिसके अनुसार भारत सरकार जिस राष्ट्रपति के नाम पर शासन करती है, उसके आधिकारिक निवास एवं कार्यालय ‘राष्ट्रपति भवन’ के लिए सन् 1911 यानि 101 वर्ष पूर्व अधिग्रहित की गई भूमि का मुआवजा अब तक किसानों को नहीं मिला है। ऐसे करीब 340 परिवार आज भी दिल्ली के पटियाला हाउस न्यायालय में अपना मुकदमा लड़ रहे हैं। गौरतलब है कि इस हेतु अंग्रेजों ने करीब 3792 एकड़ भूमि अधिग्रहित की थी।

उपरोक्त मामले से साफ हो जाता है कि यदि भारत सरकार अपने नागरिकों को एक शताब्दी में भी न्याय नहीं दे सकती है तो फिर वह किसानों से सहयोग की अपेक्षा भी कैसे रख सकती है? हमारा पूरा देश आज सकल घरेलू उत्पाद दर और विदेशी पूंजी निवेश के शोर में भूल जाता है कि भारत में बन रही बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के निर्माताओं में दलित आदिवासी या ग्रामीणों का प्रतिशत कितना है। किसान से भूमि लेकर किसे दी जा रही है? और यदि वह विरोध करता है तो पुलिस की गोलियां उसे छलनी करने को तैयार हैं।

इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें संसद और विधानसभाओं के भीतर बहस को तैयार दिखतीं हैं लेकिन वे अधिग्रहण की चपेट में आने वाले समुदाय के साथ किसी भी चर्चा हेतु तैयार क्यों नहीं होतीं? थोड़ी बहुत लेट लतीफी कर वे जोर जबरदस्ती पर उतर आती हैं या मामलों को न्यायालयों में भेजकर प्रभावित समाज पर ही नया बोझ डाल देती हैं। यानि सरकार आम जनता के धन से उन्हीं के खिलाफ मुकदमा लड़ती है। ऐसे में करदाता पर दोहरा बोझ पड़ता है और उसकी स्थिति अजीब सी हो जाती है। क्योंकि अंततः वह स्वयं के ही खिलाफ खड़ा हो रहा प्रतीत होता है। क्योंकि हम लोकतंत्र को जनता के लिए और जनता के द्वारा, के रूप में परिभाषित किया जाता है।

भारतीय लोकतंत्र में बढ़ता बल प्रयोग हम सबके लिए अत्यंत घातक है। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम और कोया कमांडों दस्तों में विशेष पुलिस अधिकारियों के रूप में नियुक्त आदिवासियों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए सारगर्भित फैसले के विरोध में छत्तीसगढ़ सरकार विशेष अध्यादेश ला रही है। वहीं केंद्रीय गृह मंत्रालय को इस 58 पृष्ठ के फैसले के अध्ययन में शायद 58 वर्ष नहीं तो भी कम से कम 58 महीने तो लग ही जाएंगे। लेकिन हाल ही में कश्मीर में एक विक्षिप्त युवक को आतंकवादी बताकर इनाम ले लेने का प्रयास करने वाले दो सुरक्षाकर्मियों में से एक विशेष पुलिस अधिकारी भी था। यानि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था यह समझ ही नहीं पा रही है कि हिंसा अंततः हिंसा को ही जन्म देती है। जनरैल सिंह भिंडरावाले का मामला भी हमारी स्मृति से नहीं निकला है और लिट्टे द्वारा की गई नृशंसा हमने भी भुगती है। लेकिन हमारे राजनीतिज्ञ ये भूल रहे हैं कि उन्हें शासन की बागडोर देश की जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दी गई है न कि अपनी विचारधाराएं उन पर थोपने के लिए।

मावल की घटना कहीं और घटित होती तो उस पर विचार का नजरिया भिन्न हो सकता था। देश के कृषि मंत्री का परिवार ही यदि कृषकों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं है तो यह बात एकदम स्पष्ट रूप से उभर कर आती है कि वर्तमान व्यवस्था पूर्णतः कृषि और कृषक विरोधी है। अभी तक तो हम भाजपा शासित गुजरात के बारे में ही सुनते थे कि नर्मदा का पानी जो कि कच्छ रेगिस्तान के नागरिकों के पीने और अन्य स्थानों पर सिंचाई के लिए प्रयोग में आना चाहिए, का इस्तेमाल औद्योगिक क्षेत्रों में हो रहा है लेकिन कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस दल शासित महाराष्ट्र द्वारा इसी मनोवृत्ति को दोहराया जाना स्पष्ट कर रहा है कि भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों का एजेंडा एक ही है। अतः इसका मुकाबला करने के लिए प्रभावितों को स्वयं ही सामने आना पड़ेगा।

प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून भी महज एक छलावा है और अंततः वह किसान, दलित व आदिवासियों के पक्ष में नहीं है। वहीं प्रस्तावित सरकारी लोकपाल अधिनियम के अधिकार क्षेत्र में देश के एक करोड़ बीस लाख सरकार कर्मचारियों में से मात्र 65000 यानि 0.5 प्रतिशत ही आएगे और लोकपाल पद पर रहा व्यक्ति यह पद छोड़ने के 5 वर्ष बाद न केवल लाभ के पद पर नियुक्त हो सकता है बल्कि चुनाव लड़कर राष्ट्रपति भी बन सकता है।

यानि कहीं कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। 9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन को 70 वर्ष पूरे हो गए हैं। हमें अब उसी तरह के एक व्यापक अहिंसक आंदोलन की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने कहा था ‘बीज हमेशा हमें दिखाई नहीं देता। वह अपना काम जमीन के नीचे करता है और जब खुद मिट जाता है तब पेड़ जमीन के ऊपर देखने में आता है।’

मावल के इन चार बीजों ने स्वयं को मिटाकर अधिग्रहण रूपी समस्या को एक बार पुनः हमारे सामने रखा है। अब यह हमारा दायित्व है कि इस समस्या को अमरबेल न बनने दें जो कि हमारे कृषक समाज रूपी वृक्ष को ही नष्ट कर दे।