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पानी की समस्या दूर करने के लिये दुर्गम पठारी क्षेत्र में पहाड़ों के बीच पानी को रोक पाना बहुत मुश्किल काम था लेकिन संस्था द्वारा किये गए तकनीकी और सामाजिक बदलाव के कामों से काफी कुछ बदल सका है। यहाँ पहाड़ियों के बीच अनेक जल संरचनाओं का निर्माण कराया गया बरसाती नालों और छोटी-छोटी नदियों को रोककर इन पर स्टॉपडैम, बोल्डर चेकडैम और अन्य जल संरचनाएँ बनाई गई। कुछ पहाड़ियों को जोड़कर छोटे-छोटे तालाब भी बनाए गए।
कल्दा पठार यानी वह दुर्गम पहाड़ी आदिवासी इलाका, जहाँ अब तक विकास की किरण नहीं पहुँच सकी है। आजादी के सत्तर साल भले ही बीत गए हों पर यहाँ के आदिवासी अब भी अन्धेरे में जिन्दगी बिताने और एक–एक घड़े पानी के लिये मजबूर हैं। यहाँ के लोगों को अपनी प्यास बुझाने के लिये तीन किमी दूर एक घाटी उतरकर पहाड़ी नदी की झिरिया से पानी उलीच कर कंधे पर केन टाँगें सीधी चढ़ाई चढ़ना पड़ता है। पानी का मोल इनसे ज्यादा कौन समझ सकता है।मध्य प्रदेश में पन्ना जिले के शाहनगर जनपद पंचायत में आने वाले जिले के सबसे दुर्गम पहाड़ी आदिवासी क्षेत्र कल्दा पठार में बसे दर्जन भर गाँव आज भी विकास के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ क्षेत्र है, यहाँ तक कि इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को अभी बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिये समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन अब धीरे-धीरे इस पठारी क्षेत्र की तस्वीर भी बदल रही है।
कुछ सालों पहले यहाँ संस्था विभावरी ने काम करना शुरू किया। विभावरी के टीम लीडर हरिओम गोस्वामी बताते हैं कि हम जब पहली बार आज से करीब 4 साल पहले यहाँ इन गाँवों को देखने आये तो बसौरा गाँव में हमने देखा कि गाँव के लोग अपने कंधों पर प्लास्टिक के डिब्बे पानी से भरकर लकड़ी में टाँग कर पहाड़ी पर चढ़े आ रहे हैं। कुछ दूर आगे एक महिला भी इसी तरह कंधों पर पानी के डिब्बे टाँगें आती नजर दिखाई दीं।
जब इस बारे में हमने वहाँ के आदिवासियों से बात की तो उन्होंने बताया कि इतनी ऊपर पहाड़ी पर पानी कहाँ से आएगा, बरसात के बाद ही हमें ज्यादातर वक्त अपने पीने के लिये पानी यहाँ से 3-4 किलोमीटर दूर घुनवारा घाटी से लेकर आना पड़ता है। यह एक बेहद दुखद अनुभव था हमारे लिये, हमें यहाँ पानी की कमी का अन्दाजा था पर पीने के पानी के लिये इस तरह पहाड़ी चढ़कर पानी लाना कितना परेशानी का काम होता होगा इन लोगों के लिये। यही वह पल था जब हमने यहाँ सबसे पहले पानी के इन्तजाम पर काम करने का मन बनाया।
वे बताते हैं कि यहाँ काम करना इसलिये भी महत्त्वपूर्ण और बड़ी चुनौती का था कि यह क्षेत्र लम्बे समय से विकास की दृष्टि से काफी पिछड़ा हुआ रहा है। इस क्षेत्र में दुर्गम पहाड़ियों और उनमें रहने वाले आदिवासियों के पास बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराना पहली प्राथमिकता थी। यहाँ जब पहली बार काम शुरू किया गया तो इस इलाके में बिजली भी नहीं थी। ये वह आदिवासी गाँव हैं, जहाँ आज भी लोग प्राथमिक सुविधाओं से अछूते हैं।
विकास की बात तो दूर है, इन दूरस्थ गावों तक पहुँचने के लिये सड़क तक नहीं है। विकासखण्ड शाहनगर से करीब सवा सौ किमी दूर पहाड़ी और जंगली इलाके तक पहुँचने के लिये ये लोग टूटी–फूटी सड़कों या पगडंडियों के सहारे पास के कस्बों तक पहुँचते हैं। आवागमन के नाम पर कुछ साधन चलते हैं पर ऐसा साल में बहुत ही कम दिनों में देखने को मिलता है।
बारिश के चार महीने ये इलाका पूरी तरह दुनिया से करता रहता है। मौसम सही होने पर भी इस इलाके के महज चार रुट पर बस चलती है। कल्दा से पन्ना, कुसमी से कटनी, कल्दा से मैहर और सलेहा से मैहर पर हर दिन नियत समय पर बस मिलेगी, यह कहना आज भी मुश्किल है। सीधे कल्दा पहाड़ी के गाँवों से आज भी सीधी बस सुविधा नहीं है।
यहाँ के गाँवों मेन्हा, पिपरिया, भोपार, छितोल, वैजाही, मेंहगां, , भोंहारी, बसोरा, दरबई से बस अब भी कल्पना है, जो साकार होने में एक दशक पीछे है। कल्दा पठार के गाँवों में रहने वाले लोग अपनी जरूरतों के लिये अपने गाँवों से दूर डेढ़ किमी की सीधी चढ़ाई वाली पहाड़ी से 5-6 किमी पैदल चल कर अमदरा बाजार पहुँचते हैं।
पानी के लिये लोग दूर-दूर जाते वहीं पहाड़ी खेती की जमीन में भी उन्हें अपेक्षित फायदा नहीं मिल पाता था। यह लोग बारिश के समय केवल एक ही खेती पर निर्भर रहा करते थे।
यहाँ की सबसे बड़ी समस्या थी-पानी। पानी नहीं होने की वजह से यह लोग अपने खेतों में एक ही फसल ले पाते हैं। यहाँ की हालत तो यह थी कि इन लोगों को पीने के पानी के संकट का ही सामना करना पड़ता है, ऐसे में खेती के लिये पानी की तो बात ही दूर है।
यहाँ के नदी नाले और अन्य जलस्रोत बारिश खत्म होने के कुछ महीनों में ही आखरी साँसे लेने लगते हैं। इससे पानी की कमी और भी बढ़ जाती है। यहाँ आस-पास पूरा क्षेत्र पठारी होने की वजह से बारिश का पानी तेजी से नीचे की ओर पहाड़ी नदी–नालों से होते हुए बह जाता और पानी जमीन में रिस नहीं पाता। यही वजह है कि यहाँ का जलस्तर बहुत नीचे है।
अब विभावरी संस्था के माध्यम से हुए कामों के बाद यहाँ आदिवासियों को न केवल जल संकट से मुक्ति मिली है बल्कि अपने खेतों में उनके लिये दो फसलें लेना भी सम्भव हो सका है। यहाँ आदिवासियों को उनकी बस्ती तक पानी पहुँचाने के लिये कई तरह की कोशिश की जा रही है।
बीते चार सालों से यहाँ लगातार पानी के लिये काम कर रहे हरिओम गोस्वामी बताते हैं कि पानी की समस्या दूर करने के लिये दुर्गम पठारी क्षेत्र में पहाड़ों के बीच पानी को रोक पाना बहुत मुश्किल काम था लेकिन संस्था द्वारा किये गए तकनीकी और सामाजिक बदलाव के कामों से काफी कुछ बदल सका है। यहाँ पहाड़ियों के बीच अनेक जल संरचनाओं का निर्माण कराया गया बरसाती नालों और छोटी-छोटी नदियों को रोककर इन पर स्टॉपडैम, बोल्डर चेकडैम और अन्य जल संरचनाएँ बनाई गई।
कुछ पहाड़ियों को जोड़कर छोटे-छोटे तालाब भी बनाए गए। यहाँ बातचीत में यह बात सामने आई कि यदि पहाड़ी के पास से बहकर जा रहे नाले को पाल से रोक लिया जाये और इसके किनारे एक झिरिया खोदी जाये तो लोगों को 3 किलोमीटर दूर जंगली रास्ते में पहाड़ी चढ़कर पानी लाने की किल्लत से मुक्ति मिल सकती है।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए यहाँ ग्रामीणों के सहयोग से झीरिया का उपचार किया और इसके लिये बाउंड्री वाल का निर्माण भी कराया गया। इसकी गहराई बढ़ाने से इसमें काफी मात्रा में पानी इकट्ठा होने लगा और झिरिया चारों तरफ से बाँध दिये जाने के कारण वह छोटे कुएँ की तरह दिखाई देने लगी है। अब गाँव के लोगों को पीने के पानी के लिये 3 किलोमीटर तक दूर घुनवारा की घाटी तक नहीं जाना पड़ता।
इसी तरह यहाँ के आदिवासियों को उनकी खेती के लिये पानी उपलब्ध कराने की मंशा से विभावरी ने 46 स्व-सहायता समूह गठित कर इनमें से 34 समूहों को लाभांवित किया है। इससे करीब 6000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 4000 हेक्टेयर पहाड़ी और बंजर जमीन को खेती लायक बनाकर उपचारित किया जा सका है। इसी तरह अब तक यहाँ बीते 3 सालों में 9 स्टॉपडैम, 5 तालाब और 7 तालाबों का विस्तार सहित 80 खेत तालाब भी बनाए गए हैं। इसके अलावा 61 गेबियन स्ट्रक्चर, 10 हेक्टेयर में कंटूर, 125 लूज बोल्डर, 54 गली प्लग और 15 हेक्टेयर क्षेत्र में मेड बंधान का कार्य किया गया है।
अब इलाके में 500 से ज्यादा जल संरचनाएँ बन जाने से कुछ किसान अब दो से तीन फसलें भी लेने लगे हैं। यहाँ सबसे पहले हमने ऐसे आदिवासी किसानो को चिन्हित किया जिनकी जमीनें पास-पास थी। पास-पास जमीनों वाले 10 से 12 किसानों को एक क्लस्टर बनाकर जोड़ा गया और ऐसी जल संरचना बनाई गई जिसका लाभ क्लस्टर के सभी किसानों को बराबरी से मिल सके। इसका बहुत फायदा हुआ और ऐसे कई क्लस्टरों में अलग-अलग तकनीक की जल संरचनाओं से पानी का इन्तजाम किया गया। इससे अब यहाँ के किसान खुश हैं और अपनी धरती से सोना उगल रहे हैं।