मौसम विभाग के हवाले से खबरें आ रही हैं कि मानसून कमजोर है। जून में मानसून की बारिश 31 फीसद कम हुई है। एक खबर के मुताबिक पिछले तीस सालों में इतना कमजोर मानसून कभी नहीं रहा। बाजार में खाने-पीने चीजों में महंगाई का तेज रुख शुरू हो गया है। कुछेक हफ्तों पहले जिन बाजारों में आलू-टमाटर 20 रुपये प्रति किलो मिल रहे थे, वो 30 रुपये प्रति किलो हो गए।
किसानों की लागत बढ़ी है तो कीमत बढ़नी चाहिए। मानसून की वजह से खाद्यान्न की उपज कम हो, तो कीमत बढ़नी चाहिए। पर सवाल यह भी है कि आम आदमी को दाल-रोटी का जुगाड़ होना चाहिए या नहीं। मसला सिर्फ दाल-रोटी का नहीं है। लगभग हर आइटम महंगा हो गया है या महंगे होने की तैयारी में है। दिल्ली को ही लें। बिजली महंगी हो गई। पानी देर-सबेर महंगे होने की राह पर है।
कृषि मंत्री शरद पवार कह रहे हैं कि मानसून की सुस्ती चिंता का विषय नहीं है। मानसून की चाल गड़बड़ाई जरूर है पर चिंता की बात नहीं है। हालांकि चिंता की एक बात उन्होंने यह बताई कि पिछले साल के मुकाबले इस बार अभी तक धान की बुआई का क्षेत्र 1.90 लाख एकड़ कम है। अगर बारिश ठीक हो गई तो इस अंतर को पाटा जा सकता है। पवार साहब परम आशावादी हैं। उनके बयान का आशय यह है कि धान की बुआई यों तो कम हुई है पर इस कम बुआई को बेहतर बारिश ठीक कर देगी। बेहतर बारिश के चलते फसल उतनी ही होगी या उससे ज्यादा होगी, जितनी पहले होती आई है। यह सिर्फ आशावाद ही नहीं, परम आशावाद है। पर मौसम विभाग के हवाले से खबरें आ रही हैं कि मानसून कमजोर है। जून में मानसून की बारिश 31 फीसद कम हुई है। एक खबर के मुताबिक पिछले 30 सालों में इतना कमजोर मानसून कभी न रहा। बाजार में खाने-पीने के चीजों में महंगाई का तेज रुख शुरू हो गया है। कुछेक हफ्तों पहले जिन बाजारों में आलू-टमाटर 20 रुपये प्रति किलो मिल रहे थे, वह 30 रुपये प्रति किलो हो गए। यह मानसून कमजोर होने का नहीं, मानसून कमजोर होने की आशंका का नतीजा है। आशंकाएं भाव बढ़ा देती हैं। वास्तविक खतरा तो बाद में सामने आता है।
सरकार ने खड़े किए हाथ
कमजोर मानसून, धान की कम बुआई के इलाके ये खबरें कारोबारियों तक पहुंचती हैं। धान की फसल की कमजोरी के आशंका से चावल के भाव अभी से महंगे होना शुरू हो गए हैं। कुल मिलाकर खाने पीने की चीजों की महंगाई को लेकर विकट आशंकाएं हैं। सरकार का रुख इस पर क्या है; यह पता लगता है कि एक आर्थिक अखबार को दिए गए केंद्रीय खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री के वी थामस के इंटरव्यू से। थामस साहब ने कहा है कि सरकार खाद्य महंगाई को रोकने के लिए कुछ खास नहीं कर सकती। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भावों में बढ़ोतरी के चलते महंगाई को रोकना मुश्किल है और अगर कच्चे तेल के भाव गिरने भी लगें तो रुपये की कमजोर होती स्थिति के चलते कच्चा तेल महंगा ही पड़ेगा। यानी कच्चा तेल महंगा हो या सस्ता, आफत है ही।
कच्चा तेल अगर महंगा होता है तो साफ तौर पर भारत को ज्यादा कीमत चुकानी ही पड़ेगी और परिवहन लागत की ज्यादा कीमत का मतलब साफ होता है कि लगभग हर वस्तु या सेवा में महंगाई देखी जा सकती है। वैसा हाल में लगातार होता रहा है। गिरते रुपये में भी ज्यादा कीमत यों चुकानी पड़ती है कि एक डॉलर का अगर 45 रुपये भुगतान करना पड़े तो भुगतान कम होगा। एक डॉलर के बदले अगर भुगतान पचपन या 57 रुपये किया जाए तो भुगतान तो ज्यादा ही होगा। ज्यादा भुगतान यानी ज्यादा कीमत यानी ज्यादा महंगाई। कमजोर रुपया महंगाई को मजबूत कर रहा है, वैसे ही जैसे कमजोर मानसून महंगाई को मजबूत कर रहा है। रुपया कमजोर बहुत सारे कारणों से हो रहा है। उन पर सरकार का बस नहीं है। थामस साहब एक तार्किक बात कहते हैं कि किसानों की लागत बढ़ी है, इसलिए समर्थन मूल्य बढ़ाना पड़ता है।
मानसून की कमजोरी महंगाई की मजबूती
तो सीन यह है कि मानसून कमजोर होकर सामने आएगा पर महंगाई मजबूत होकर सामने आएगी। वैसे सरकार की तरफ से ये दावे लगातार आते रहे हैं कि पर्याप्त अनाज मौजूद है। किसी भी किस्म की समस्या से मुकाबला कर लिया जाएगा पर दावों से महंगाई कम होती दिखती नहीं है। सो आने वाले महीनों में उपभोक्ताओं को महंगाई और खास तौर पर खाने-पीने की चीजों में महंगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। किसानों की लागत बढ़ी है तो कीमत बढ़नी चाहिए। मानसून की वजह से खाद्यान्न की उपज कम हो, तो कीमत बढ़नी चाहिए। पर सवाल यह भी है कि आम आदमी को दाल-रोटी का जुगाड़ होना चाहिए या नहीं। मसला सिर्फ दाल-रोटी का नहीं है।
लगभग हर आइटम महंगा हो गया है या महंगे होने की तैयारी में है। दिल्ली को ही लें। बिजली महंगी हो गई। पानी देर-सबेर महंगे होने की राह पर है। महंगाई में दाल-रोटी के लिए कुछ बचेगा या नहीं। यह सवाल मानसून के परिप्रेक्ष्य में अहम होता जा रहा है। साफ यह हो रहा है कि गिरते रुपये पर, कमजोर मानसून से पैदा हुई स्थितियों पर सरकार का कोई बस नहीं है। पर अगर स्थितियों पर कोई बस नहीं है तो फिर सरकार आखिर होती किसके लिए है? ऐसी स्थितियों में केंद्रीय मंत्री का बयान तो बहुत ही खराब है कि खाद्य महंगाई को रोकने के लिए सरकार कुछ खास नहीं कर सकती। अन्य शब्दों में यह बयान कालाबाजारियों, महंगाई के लिए जिम्मेदार तत्वों को सरकार की तरफ से यह संकेत है कि सरकार के हाथ में कुछ खास नहीं है करने के लिए।
20 फीसद दाम ज्यादा होंगे अगले तीन माह में
मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि तीन महीने बाद खाद्य वस्तुओं के भाव अब के मुकाबले 15 से 20 प्रतिशत अधिक होंगे। खाद्यान्न के भंडार सरकार के पास हों, इससे महंगाई को कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि वह भंडार सुचारु तौर पर बाजार में नहीं आते। सरकारी स्तर पर कुप्रबंधन इतना ज्यादा है कि वास्तविक स्थिति का अंदाज भी ठीक होने के आसार कम हैं। जितने अनाज के स्टाक को लेकर सरकार आस्त है, हो सकता है कि वास्तविक स्टॉक उससे कम ही हों। पर ये सब खास चिंता का विषय यों ही नहीं है कि निकट भविष्य में कहीं कोई महत्वपूर्ण चुनाव नहीं होने वाले हैं। 2014 के आम चुनाव अभी बहुत दूर ही माने जा रहे हैं। महंगाई को मुद्दा बना पाने में विपक्ष सफल नहीं हो पा रहा है।
राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में विपक्ष जिस तरह से विभाजित हुआ है, उसे देखते हुए यह भी साफ हुआ कि सरकार को विपक्ष से किसी चुनौती का डर इस संदर्भ में नहीं है। कमजोर मानसून से पैदा होने वाली महंगाई को लेकर सरकार का बेपरवाह रवैया कम से कम यही साबित करता है। खैर मसला यह है कि महंगाई से मुकाबले के लिए एक हद राशन की दुकान कारगर हो सकती है। पर उसे बेहतर करने के लिए ठोस प्रयासों की जरूरत है। ये प्रयास किसी भी दल की प्राथमिकता में नहीं हैं। कमजोर मानसून से पैदा हुई स्थितियों में अगर राशन की दुकान के पुनरोद्धार के कुछ सूत्र मिल सकें तो माना जाना चाहिए कि यह कमजोर मानसून कुछ ठोस उपलब्धि भारतीय अर्थव्यवस्था को देकर जाएगा।