देश के अलग-अलग राज्यों खासकर मराठवाड़ा, बुन्देलखण्ड और अन्य अंचलों में गहरा रहे मौजूदा जल संकट की परेशान करने वाली खबरों के बीच मौसम विभाग और स्काइमेट का हालिया पूर्वानुमान, काफी हद तक राहत प्रदान करता है। यह राहत 2016-17 के लिये है।
मौसम विभाग के पूर्वानुमान में बताया है कि इस साल मानसून समय पर आएगा। जून से लेकर सितम्बर के बीच 106 प्रतिशत तक बारिश (अधिकतम पाँच प्रतिशत घट-बढ़) हो सकती है। अर्थात इस साल कम-से-कम 101 प्रतिशत और अधिक-से-अधिक 111 प्रतिशत वर्षा होने की सम्भावना है।
पूर्वानुमानों में कहा गया है कि इस साल 30 प्रतिशत सामान्य वर्षा और 34 प्रतिशत सामान्य से अधिक वर्षा (104 प्रतिशत से 110 प्रतिशत) होगी। सामान्य से कम बरसात की सम्भावना केवल 5 प्रतिशत है। मौसम विभाग का मानना है कि इस साल 94 प्रतिशत सम्भावना इस बात की है कि देश में 96 प्रतिशत से सामान्य से अधिक बरसात होगी।
मात्र एक प्रतिशत सम्भावना सूखे की है। यह सूखा उन इलाकों में पड़ सकता है जहाँ 90 प्रतिशत से कम बारिश होगी। अनुमान आगे कहते हैं कि जून में 90 प्रतिशत, जुलाई में 105 प्रतिशत, अगस्त में 108 प्रतिशत और सितम्बर में 115 प्रतिशत बारिश हो सकती है। यह अनुमान, सामान्य औसत वर्षा (96 प्रतिशत से 104 प्रतिशत) से सम्भावित वर्षा की कमी-बेशी के आधार पर लगाया जाता है।
यह वैज्ञानिक हकीकत है कि भारत में होने वाली बरसात को अल-नीनो और ला-नीनो प्रभावित करते हैं। अल-नीनो प्रभाव से भारत में सूखा पड़ता है और ला-नीनो प्रभाव बारिश की मात्रा बढ़ाता है। मौसम वैज्ञानिक बताते हैं कि अल-नीनो और ला-नीनो, एक के बाद एक, आते रहते हैं इसलिये वर्ष 2016-17 की सामान्य वर्षा का पूर्वानुमान, फौरी राहत प्रदान करता है। वर्षा की दृष्टि से 2017-18 या उसके बाद के साल कैसे होंगे, कह पाना सहज नहीं है।
विदित है कि देश का लगभग 515 लाख हेक्टेयर क्षेत्र, सूखा सम्भावित क्षेत्र है। यह क्षेत्र देश के 13 राज्यों के 74 जिलों में स्थित है। भारत का पहला सूखा सम्भावित इलाका रेगिस्तानी और अर्द्धशुष्क है। राजस्थान के 12 जिले सूखा सम्भावित जिलों में आते हैं। जैसलमेर सबसे अधिक सूखा जिला है।
इस जिले की औसत सालाना वर्षा 164 मिलीमीटर और औसत वर्षा दिवस मात्र 10 हैं। दूसरा सूखा सम्भावित इलाका पश्चिमी घाट के पूर्व का इलाका है। इस इलाके के कुछ भागों में बरसात का औसत 300 मिलीमीटर से भी कम है। इस इलाके में मराठवाड़ा और विदर्भ भी आते हैं।
इन इलाकों के अलावा तमिलनाडु में वेगाई नदी के दक्षिण का भूभाग, केरल का कोयम्बटूर क्षेत्र, गुजरात का सौराष्ट्र और कच्छ, मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश का अनन्तपुर जिला, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जिला और बुन्देलखण्ड, ओड़िशा का कालाहांडी और पश्चिम बंगाल का पुरलिया क्षेत्र भी सूखा सम्भावित इलाका है।
इन इलाकों में, सूखे के कारण खेती और पेयजल पर पड़ने वाला संकट सबसे अधिक भयावह होता है इसलिये बारिश के मौजूदा पूर्वानुमानों का लाभ लेकर, सूखा सम्भावित इलाकों में थोड़े-थोड़े अन्तरालों पर पड़ने वाले सूखों मुख्यतः खेती और पेयजल संकट का स्थायी हल खोजा जाना चाहिए।
सब जानते हैं कि सिंचित इलाकों में सूखे का असर बहुत कम होता है। इसी कारण, बाँधों को सूखे से निजात पाने के लिये कारगर विकल्प के रूप में जाना जाता है। इसी कारण अधिकांश लोग, अधिक-से-अधिक बाँध बनाने की पैरवी करते हैं। अनुभव बताता है कि बाँध भी सर्वाधिक सुरक्षित स्थायी विकल्प नहीं हैं क्योंकि जब किसी साल कम बरसात होती है और सूखे का अन्देशा होता है, बाँध आधे-अधूरे भरते हैं और पानी की आपूर्ति घट जाती है।
आपूर्ति घटने के बावजूद कमांड क्षेत्र, काफी हद तक सूखा मुक्त रहता है। गौरतलब है कि बाँध बनाने के लिये उपयुक्त साइट की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता के कारण उनका निर्माण हर जगह नहीं किया जा सकता। इस कारण, उनकी मदद से खेती की सारी जमीन को पानी नहीं दिया जा सकता। दूसरे शब्दों में, बाँधों से छूटी जमीन पर सूखे का खतरा बना रहेगा। यही सूखे की असली चुनौति है।
देश के सूखा सम्भावित इलाकों में पहले किस्म का सूखा, खेती का सूखा होता है। इसका असर खरीफ या/तथा रबी की फसलों पर पड़ता है। खरीफ में सूखा असमय बारिश, पानी की कमी, लम्बे सूखे अन्तरालों या अन्य कारणों से पड़ता है। अधिक पानी गिरने से पनिया अकाल पड़ता है। पनिया अकाल में फसलें गल जाती है।
जलवायु बदलाव के कारण बरसात का बदलता चरित्र, विकल्पों, प्रयासों और रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन की पैरवी करता है। सबसे पहले खरीफ की फसलों को मानसून की बेरुखी और अनिश्चितता से बचाकर खतरों को कम करना होगा। हर खेत तक सुरक्षात्मक सिंचाई पहुँचाना होगा। पानी के उपयोग में दक्षता लाना होगा। फ्लो इरीगेशन को समाप्त करना होगा। वाटरशेड प्रोग्रामों को असरकारी बनाना होगा। अनुभवों को ध्यान में रख परिष्कृत रणनीति पर काम करना होगा। अनुभव बताता है कि सही उत्पादन लेने के लिये वर्षा की सकल मात्रा के स्थान पर सही समय पर, फसल की आवश्यकतानुसार, पानी का बरसना ही आवश्यक होता है। सही समय पर सही मात्रा में पानी बरसने से फसल का अंकुरण, उसका विकास एवं उत्पादन ठीक होता है। दूसरे शब्दों में, यदि समय पर वांछित मात्रा में बारिश हो तो सामान्य से कम बारिश में भी अच्छा-खासा उत्पादन मिल जाता है। इस हकीकत का अर्थ है कि सूखा सम्भावित इलाकों में सबसे पहले लम्बे सूखे अन्तरालों में सुरक्षात्मक सिंचाई का इन्तजाम किया जाना चाहिए।
रबी सीजन में सूखी खेती की चुनौतियाँ अधिक गम्भीर हैं। सूखी खेती करने वाले किसानों के लिये भले ही सही तापमान, मावठा, ओस मिल जावें पर असमय बारिश, ओले, पाला जैसे प्राकृतिक कारणों से फसलें बर्बाद हो सकती हैं। सूखी खेती की चुनौतियों का हल, काफी हद तक सुरक्षात्मक सिंचाई ही है।
सूखा सम्भावित इलाकों में सूखे के असर को गम्भीर बनाने में वर्षा दिवस और बारिश का चरित्र बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि वर्षा दिवस पूरे और बारिश की गति धीमी है तो रन-आफ घट जाता है और बाँध आधे-अधूरे भर पाते हैं लेकिन बारिश का उपर्युक्त चरित्र भूजल भण्डारों के लिये मुफीद होता है।
यदि वर्षा दिवस घटते हैं और बारिश की गति तेज होती है तो, रन-आफ बढ़ता है और बाँध लबालब भर जाते हैं लेकिन भूजल भण्डार, किसी हद तक रीते रह जाते हैं। यही पेयजल संकट का मुख्य कारण है। सूखा सम्भावित इलाकों में वही असली चुनौती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण खतरा दिन-प्रतिदिन और अधिक गम्भीर हो रहा है लेकिन वह लाइलाज नहीं है।
भारत में सूखे से निपटने के लिये बरसों से प्रयास किये जा रहे हैं। ग्रामीण और कृषि मंत्रालयों द्वारा अनेक परियोजनाएँ संचालित की हैं उनमें सूखा प्रवण क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डीपीएपी), मरुस्थल विकाय कार्यक्रम, समन्वित पड़त भूमि विकास कार्यक्रम (आईडब्ल्यूडीपी) उल्लेखनीय हैं। इन योजनाओं के मिश्रित एवं अस्थायी परिणाम मिलने के कारण सूखा अभी भी चुनौती बना हुआ है।
जलवायु बदलाव के कारण बरसात का बदलता चरित्र, विकल्पों, प्रयासों और रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन की पैरवी करता है। सबसे पहले खरीफ की फसलों को मानसून की बेरुखी और अनिश्चितता से बचाकर खतरों को कम करना होगा। हर खेत तक सुरक्षात्मक सिंचाई पहुँचाना होगा। पानी के उपयोग में दक्षता लाना होगा। फ्लो इरीगेशन को समाप्त करना होगा। वाटरशेड प्रोग्रामों को असरकारी बनाना होगा। अनुभवों को ध्यान में रख परिष्कृत रणनीति पर काम करना होगा। कुछ सुझाव निम्नानुसार हैं-
1. सिंचाई योजना के कैचमेंट अक्सर प्यासे होते हैं। इन इलाकों में सूखा अधिक त्रासद होता है। इन इलाकों को खेती और पेयजल संकट से निजात दिलाने के लिये बाँधों के पानी को बचाने की रणनीति अपनानी होगी। कमांड में नहर और भूजल का मिला-जुला उपयोग करना होगा और बाँधों के पानी की बचत से प्यासे कैचमेंटों में सुरक्षात्मक सिंचाई करना होगा।
2. असिंचित इलाकों में हर खेत को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाना होगा। यह काम खरीफ और रबी की फसलों के लिये सुरक्षात्मक सिंचाई लायक पानी उपलब्ध कराकर किया जा सकता है। यह पानी सहेजने से अधिक मौसम से लड़ने किसान को आत्मनिर्भर बनाने की जद्दोजहद है।
3. भूजल स्तर की चिन्तनीय गिरावट के कारण स्टापडेम, कुएँ, नलकूप और तालाब सूखने लगे हैं। छोटी और मंझोली नदियाँ मौसमी बन गईं हैं। ऐसी हालत में, बिना समानुपातिक रीचार्ज किये सूखे से निजात पाना बेहद कठिन होगा। यही मानसून के पूर्वानुमानों का असली सन्देश है।
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