सूखा : जंग जारी है

Submitted by RuralWater on Mon, 12/28/2015 - 12:23

.सूखा प्राकृतिक त्रासदी है। सारी दुनिया में उसके असर से, खेती सहित, अनेक गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। कुओं, तालाबों, जलाशयों और झीलों में पानी घटता है। कई बार, उन पर असमय सूखने का खतरा बढ़ता है। प्रभावित इलाकों में पीने के पानी की किल्लत हो जाती है। उद्योग धंधे भी पानी की कमी की त्रासदी भोगते हैं।

मिट्टी में नमी की कमी के कारण खाद्यान्नों का उत्पादन घट जाता है। कई बार पूरी फसल नष्ट हो जाती है। सूखे की अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक की हो सकती है। सूखे का सबसे अधिक असर किसान की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। बरसों से उसके विरुद्ध जंग जारी है।

भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठी मानसूनी हवाओं के कारण बरसात होती है। दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में लौटते मानसून के कारण शीत ऋतु में पुनः बरसात होती है। देश के विभिन्न भागों में होने वाली बरसात की मात्रा और औसत वर्षा दिवसों में काफी भिन्नता है।

भारत में बरसात की अवधि तीन से चार माह है। इसी अवधि में, कुल बरसात का लगभग 80 से 90 प्रतिशत पानी बरस जाता है। भारत के पूर्वी भाग में खूब पानी बरसता है। देश का पश्चिमी भाग, अपेक्षाकृत कम वर्षा वाला इलाक़ा है। इसी अवधि में कई बार सूखे अन्तराल आते हैं।

कई बार, सूखे अन्तरालों में, मिट्ठी में नमी की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि फसल सूखने लगती है और उत्पादन प्रभावित होता है। लम्बा सूखा अन्तराल फ़सलों को पूरी तरह सुखा देता है।

भारत में खेती की कुल ज़मीन लगभग 1410 लाख हेक्टेयर है। इस ज़मीन का लगभग 54 प्रतिशत अर्थात लगभग 760 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर होने वाली खेती, बरसात के मिज़ाज पर निर्भर है।

भारत के लगभग 12 प्रतिशत इलाके में 400 मिलीमीटर से कम पानी बरसता है। भारत के लगभग 35 प्रतिशत इलाके की औसत सालाना बरसात 750 मिलीमीटर से कम है।

राजस्थान के 12 जिले सूखा सम्भावित जिलों में आते हैं। इन जिलों को शुष्क श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। जैसलमेर सबसे अधिक सूखा जिला है। इस जिले की औसत सालाना वर्षा 164 मिलीमीटर है। इस जिले में वर्षा के औसत दिन मात्र 10 हैं।

अनुमान है कि भारत के कुल कृषि क्षेत्र में से लगभग 560 लाख हेक्टेयर इलाके में कम बरसात होती है। इस क्षेत्र में होने वाली बरसात के चरित्र में बेहद अनिश्चितता है।

भारत का लगभग 515 लाख हेक्टेयर क्षेत्र, सूखा सम्भावित क्षेत्र है। वैज्ञानिकों ने उसे रेखांकित किया है। यह क्षेत्र 13 राज्यों के 74 जिलों में स्थित है। भारत के सूखा प्रभावित इलाके मुख्यतः शुष्क, अर्धशुष्क और उप-आर्द्र क्षेत्रों में स्थित हैं। पहला सूखा सम्भावित इलाक़ा रेगिस्तानी और अर्धशुष्क है। इसका रकबा लगभग छह लाख हेक्टेयर है।

भारत के पश्चिमी भाग में स्थित इस इलाके की औसत बरसात 750 मिलीमीटर से कम है। कहीं-कहीं वह 400 मिलीमीटर से भी कम है। भारत का दूसरा सूखा सम्भावित इलाक़ा पश्चिमी घाट के पूर्व का इलाक़ा है। वैज्ञानिक इसे वृष्टि छाया कहते हैं। इसमें मराठवाड़ा और विदर्भ भी आते हैं। इसके कुछ भागों में बरसात का औसत 300 मिलीमीटर से भी कम है।

इस क्षेत्र में होने वाली बरसात के चरित्र में बेहद अनिश्चितता है। इन इलाकों के अतिरिक्त तमिलनाडु में वेगाई नदी के दक्षिण का भूभाग, केरल का कोयम्बटूर क्षेत्र, गुजरात का सौराष्ट्र और कच्छ, मध्य प्रदेश का बुन्देलखण्ड, आन्ध्र प्रदेश का अनन्तपुर इलाक़ा, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर और बुन्देलखण्ड, क्षेत्र, ओडिशा का कालाहांडी इलाक़ा और पश्चिम बंगाल का पुरलिया क्षेत्र भी सूखा सम्भावित इलाक़ा है। इन छोटे-छोटे एवं बिखरे इलाकों का सकल क्षेत्रफल लगभग एक लाख हेक्टेयर के आसपास है।

उल्लेखनीय है कि भारत में सूखे से निपटने के लिये बरसों से प्रयास किये जा रहे हैं। सूखे से निपटने के लिये बड़ी संख्या में बाँध बनाए हैं। उपयुक्त इलाकों में भूजल दोहन को बढ़ावा दिया गया है। ग़ौरतलब है कि सिंचित इलाकों में सूखे का असर बहुत कम होता है। इसलिये उन्हें किसी हद तक सूखा मुक्त इलाक़ा कहा जा सकता है।

इसी कारण, भारत में बाँधों को सूखे से निजात पाने के कारगर विकल्प के रूप में जाना जाता है। किसी-किसी साल जब कम बरसात के कारण जलाशय आधा-अधूरा भरता है तो पानी की आपूर्ति घट जाती है पर आपूर्ति घटने के बावजूद इलाक़ा, काफी हद तक सूखा मुक्त रहता है।

ग़ौरतलब है कि बाँधों की मदद से खेती की पूरी ज़मीन को पानी नहीं दिया जा सकता। इसलिये, बाँधों के कैचमेंट और बाकी इलाकों की 760 लाख हेक्टेयर भूमि असिंचित ही रहेगी और उस पर सूखे का खतरा बना रहेगा।

सूखे से निपटने, उसके असर को कम करने तथा उसके कुप्रभाव से फ़सलों की सुरक्षा के लिये मौजूदा प्रयासों में अनेक कार्यक्रमों को जोड़ा गया है। कुछ कार्यक्रमों के लिये प्राथमिकताएँ तय की गई हैं। हर खेत के लिये पानी के इन्तज़ाम और उसे फसल तक पहुँचाने की बात कही गई है। सूखे से निपटने के लिये यह नए सिरे से किया समन्वित प्रयास है। परिणामों की सुनिश्चितता के लिये आवश्यक है कि प्रत्येक उपयोजना के गुण, दोषों, सम्भावनाओं तथा सीमाओं पर विचार किया जाये।सूखे का सर्वाधिक असर असिंचित इलाकों तथा सिंचाई परियोजनाओं के कैचमेंट की कृषि भूमि पर होता है। ग्रामीण और कृषि मंत्रालय द्वारा सूखे से निजात पाने के लिये अनेक परियोजनाएँ संचालित की हैं उनमें सूखा प्रवण क्षेत्र विकास कार्यक्रम (डीपीएपी), मरुस्थल विकाय कार्यक्रम, समन्वित पड़त भूमि विकास कार्यक्रम (आईडब्ल्यूडीपी), वर्षा आश्रित क्षेत्रों में राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना (एनडब्ल्यूडीपीआरए) उल्लेखनीय हैं।

इन योजनाओं के मिश्रित एवं अस्थायी परिणाम मिले हैं। सूखा अभी भी चुनौती बना हुआ है। बरसात का बदलता चरित्र विकल्पों, प्रयासों और रणनीति में आमूलचूल बदलाव की पैरवी करता है।

भारत सरकार, जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना’ प्रारम्भ कर रही है। इस योजना का उद्देश्य हर खेत को पानी उपलब्ध कराना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये सभी विकल्पों पर विचार किया जाएगा। अधूरी सिंचाई योजनाओं को पूरा किया जाएगा।

बरसात के पानी का उपयोग जल संरक्षण तथा भूजल रीचार्ज के लिये किया जाएगा। पानी की बर्बादी घटाने के लिये उपाय किये जाएँगे। हर बूँद का उपयोग उत्पादन वृद्धि के लिये होगा। उम्मीद है, ये प्रयास सूखे से निपटने तथा किसान की आय सुनिश्चित करने में कारगर सिद्ध होंगे।

सूखी खेती को मानसून की बेरुखी और अनिश्चितता से बचाएँगे। खतरों को कम करेंगे। सरकार, हर खेत तक सुरक्षात्मक सिंचाई का लाभ पहुँचाने की अवधारणा पर काम करना चाहती है। यह अभिनव पहल है।

जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना मुख्य रूप से एआईबीपी (Accelerated Irrigation Benefit Programme), हर खेत को पानी, प्रति बूँद अधिक उत्पादन और वाटरशेड प्रोग्राम पर काम करेगी। इन उपयोजनाओं की खास-खास बातें निम्नानुसार हैं-

 

 

एआईबीपी (Accelerated Irrigation Benefit Programme)


यह सिंचाई विभाग की योजना है। इसका प्रारम्भ 1996 में 292 बड़ी/मध्यम योजनाओं और 13098 सतही लघु सिंचाई योजनाओं के लिये किया गया है। इसके अन्तर्गत चालू राष्ट्रीय योजनाओं (14) के साथ-साथ, अधूरी पड़ी मध्यम तथा बड़ी सिंचाई योजनाओं को तेजी से पूरा किया जाएगा।

 

 

 

 

हर खेत को पानी


इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये सिंचाई प्रदान करने वाले सतही जल और भूजल आधारित नए-नए छोटे जलस्रोत बनाए जाएँगे। पुराने जलस्रोतों की मरम्मत, सुधार और क्षमता बहाली की जाएगी। परम्परागत जलस्रोतों की क्षमता में वृद्धि की जाएगी। बरसात के पानी को रोकने के लिये संरचनाएँ बनाई जाएँगी। सिंचाई योजनाओं के कमाण्ड क्षेत्र का विकास किया जाएगा।

वितरण प्रणाली को विकसित तथा सुदृढ़ किया जाएगा। भूजल समृद्ध इलाकों में भूजल का विकास किया जाएगा। जल प्रबन्ध और वितरण प्रणाली में सुधार किया जाएगा। कम-से-कम 10 प्रतिशत इलाके में सूक्ष्म सिंचाई व्यवस्था कायम की जाएगी। परम्परागत जल प्रणालियों को यथासम्भव पुनर्जीवित किया जाएगा।

 

 

 

 

प्रति बूँद अधिक उत्पादन


पानी के उपयोग में दक्षता लाने के लिये हर सम्भव प्रयास किये जाएँगे।

हितग्राहियों को आवश्यक प्रशिक्षण दिलाया जाएगा। उद्देश्य पूर्ति के लिये कृषि विस्तार और अन्य सहयोगी गतिविधियों को संचालित कराया जाएगा।

 

 

 

 

वाटरशेड प्रोग्राम


रन-आफ के प्रभावी प्रबन्ध, मिट्टी और नमी के संरक्षण के लिये वाटरशेड अवधारणा पर आधारित गतिविधियाँ ली जाएँगी। इसके अलावा, वर्षा आश्रित पिछड़े इलाकों में मनरेगा राशि का उपयोग, पूर्ण क्षमता वाले जलस्रोतों के निर्माण पर किया जाएगा।

सूखे से निपटने, उसके असर को कम करने तथा उसके कुप्रभाव से फ़सलों की सुरक्षा के लिये मौजूदा प्रयासों में अनेक कार्यक्रमों को जोड़ा गया है। कुछ कार्यक्रमों के लिये प्राथमिकताएँ तय की गई हैं। हर खेत के लिये पानी के इन्तज़ाम और उसे फसल तक पहुँचाने की बात कही गई है। सूखे से निपटने के लिये यह नए सिरे से किया समन्वित प्रयास है।

परिणामों की सुनिश्चितता के लिये आवश्यक है कि प्रत्येक उपयोजना के गुण, दोषों, सम्भावनाओं तथा सीमाओं पर विचार किया जाये। इस एक्सरसाइज का उद्देश्य लक्ष्य प्राप्ति की राह आसान करना होगा। प्रस्तावित उपयोजनाओं के बारे में कुछ विचारणीय प्रश्न और सुझाव निम्नानुसार हैं-

एआईबीपी (Accelerated Irrigation Benefit Programme)- यह कार्यक्रम अधूरी पड़ी सिंचाई योजनाओं को तेजी से पूरा करने का पुराना कार्यक्रम है। जाहिर है, लम्बित सिंचाई योजनाओं को पूरा करने से कमाण्ड क्षेत्र में सिंचित रकबा बढ़ेगा लेकिन इस प्रयास से कैचमेंट में स्थित खेतों को पानी नहीं मिलेगा।

कैचमेंट पर बरसे अधिकांश पानी के जलाशय में जमा होने के कारण कैचमेंट की हालत सँवारने के लिये कम पानी बचेगा। कम पानी से उनकी कितनी हालत सुधरेगी, सूखे का सामना कैसे होगा - कहना कठिन है। इसके अलावा, जलाशयों तथा कमाण्ड की पर्यावरणी समस्याओं का निदान और जलाशयों में जमा पानी और कमाण्ड की मिट्टी की गुणवत्ता को निरापद बनाए रखने के लिये लगातार समुचित प्रयास करने होंगे।

सिंचाई योजनाओं की डीपीआर बताती हैं कि बाँध अजर-अमर नहीं हैं। उनकी सम्भावित उम्र होती है। वे बूढ़े होते हैं। सिल्ट का जमाव उनकी क्षमता घटाता है। सिल्ट जमाव तथा अन्य कारणों से, कालान्तर में वे अनुपयोगी हो जाते हैं। इस कारण यह सवाल विचारणीय है कि बाँधों के उम्रदराज और अनुपयोगी होने के बाद सूखा सम्भावित इलाकों में क्या विकल्प अपनाया जाएगा।

हर खेत को पानी- यह कार्यक्रम बरसात के मिज़ाज पर निर्भर इलाकों के खेतों के लिये होगा। इस कार्यक्रम के प्रबन्धकों के सामने, अलग-अलग समस्या वाले दो प्रकार के इलाके होंगे-

इन सभी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के अनेक जगह सकारात्मक परिणाम आये हैं पर अधिकांश मामलों में वे रालेगाँव तथा हिवरेबाजार की तरह टिकाऊ सिद्ध नहीं हुए। थोड़े समय बाद, नदी नाले मौसमी हो गए। उपचारित इलाकों के जलस्रोतों में गाद भर गई। जलस्रोत समय पूर्व सूखने लगे। पानी की किल्लत लौट आई। भूमि कटाव का असर पुनः दिखने लगा। खेतों की नमी सहेजने वाली काबिलियत गायब होने लगी। अनुत्पादकता लौटने लगी। पहली श्रेणी में वे इलाके होंगे जो किसी सिंचाई योजना के कैचमेंट में स्थित हैं। ग़ौरतलब है कि अधिकांश सिंचाई योजनाओं के कैचमेंट, प्राकृतिक संसाधनों सहित पानी के मामले में गरीब होते हैं। उन पर बरसा अधिकांश पानी जलाशय में जमा हो जाता है इसलिये कैचमेंट के हर खेत को पानी उपलब्ध कराना कठिन होगा।

इन इलाकों में सूखा इसलिये अधिक त्रासद होता है क्योंकि धरती का ढाल, मिट्टी की परत की कम मोटाई और नमी संचय की अल्प अवधि, उसकी असली समस्या होती है। लम्बे सूखे अन्तरालों या कम बरसात वाले सालों में यह इन्तज़ाम बेहद कठिन चुनौती बनेगा। इसके अलावा, पानी उठाने के लिये ऊर्जा का इन्तज़ाम करना होगा।

दूसरी श्रेणी में बरसात पर निर्भर वे असिंचित इलाके होंगे जो प्राकृतिक संसाधनों के बिगाड़ के कारण संकट में हैं। उनकी उत्पादकता घट चुकी है। इन इलाकों के अधिकांश हिस्सों में अलग-अलग समय में प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध करने या भूमि कटाव रोकने या वाटरशेड कार्यक्रम संचालित किये गए हैं।

इन सभी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के अनेक जगह सकारात्मक परिणाम आये हैं पर अधिकांश मामलों में वे रालेगाँव तथा हिवरेबाजार की तरह टिकाऊ सिद्ध नहीं हुए। थोड़े समय बाद, नदी नाले मौसमी हो गए। उपचारित इलाकों के जलस्रोतों में गाद भर गई। जलस्रोत समय पूर्व सूखने लगे। पानी की किल्लत लौट आई।

भूमि कटाव का असर पुनः दिखने लगा। खेतों की नमी सहेजने वाली काबिलियत गायब होने लगी। अनुत्पादकता लौटने लगी। वृक्षारोपण असफल रहा। ऐसे इलाकों में हर खेत को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाना और उनकी जल समृद्धि को टिकाऊ बनाना, हकीक़त में अब तक की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

कारण साफ है, हर किसान चाहेगा उसे इतना पानी मिले ताकि वह कम-से-कम खरीफ और रबी की फसल आसानी से ले सके। यह पानी सहेजने से अधिक मौसम से लड़ने की जद्दोजहद है।

ग़ौरतलब है कि भूजल स्तर की गिरावट के कारण स्टापडैम, कुएँ, उथले नलकूप और तालाब समय पूर्व सूखने लगे हैं। छोटी नदियाँ मौसमी रह गईं हैं। ऐसी हालत में बिना समानुपातिक रीचार्ज किये नए भूजल स्रोत बनाना और असमय सूखते पुराने जलस्रोतों की क्षमता बहाली करना एवं उनको बारहमासी बनाना बेहद कठिन होगा। इस दिशा में समानुपातिक रीचार्ज के लिये गम्भीर प्रयास करना होगा।

परम्परागत जलस्रोतों की क्षमता के वृद्धि में आधुनिक जल विज्ञान के सिद्धान्तों को काम में लाया गया है। उक्त आधार पर किये प्रयासों के पुराने अनुभव बताते हैं कि ऐसा करने से उनका पुराना जल विज्ञान बदल गया। पुराने जल विज्ञान के बदलने के कारण, परम्परागत जलस्रोतों में गाद जमाव में वृद्धि हुई और वे तेजी से गाद से पटने लगे।

इस अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि परम्परागत जल प्रणालियों को पुनर्जीवित करने या उपयोगी बनाने के लिये परम्परागत जलविज्ञान को ही उपयोग में लाना होगा। ऐसा करने के बाद ही उनसे लम्बे समय तक लाभ लेना सम्भव होगा।

भूजल समृद्ध इलाकों में भूजल के प्रस्तावित विकास को निरापद रखना होगा अन्यथा वह नई-नई अनेक विसंगतियों और चुनौतियों को जन्म देगा। इन सावधानियों को ध्यान में रख फैसले करना होगा और काम को अंजाम देना होगा।

प्रति बूँद अधिक उत्पादन- पानी के उपयोग में दक्षता लाने के लिये हर सम्भव प्रयास किये जाएँगे। हितग्राहियों को आवश्यक प्रशिक्षण दिलाया जाएगा। उद्देश्य पूर्ति के लिये कृषि विस्तार और अन्य सहयोगी गतिविधियों को संचालित कराया जाएगा। इन कामों की पहली आवश्यकता जलस्रोत में पानी की सुनिश्चितता है। उसे कम होने से रोकने के लिये पुख्ता इन्तजाम करना होगा। अधिक उत्पादन लेने के लिये यही सबसे अधिक जरूरी शर्त है।

वाटरशेड प्रोग्राम- रन-आफ के प्रभावी प्रबन्ध, मिट्टी और नमी के संरक्षण के लिये वाटरशेड अवधारणा पर आधारित गतिविधियाँ ली जाएँगी। इसके अलावा, वर्षा आश्रित पिछड़े इलाकों में मनरेगा राशि का उपयोग, पूर्ण क्षमता वाले जलस्रोतों के निर्माण पर किया जाएगा। इन कामों के पुराने अनुभव ध्यान में रख आगे बढ़ना होगा।

पुराने अनुभव बताते हैं कि क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधन आधार को समृद्ध करने वाले अधिकांश काम अस्थायी रहे हैं। उनके अस्थायी होने के कारण परिणाम अल्पजीवी रहे।

भविष्य में ऐसा नहीं हो, को सुनिश्चित करने की परिष्कृत रणनीति पर काम करना होगा। यही रालेगाँव और हिवरे बाजार में सम्पादित वाटरशेड कार्यक्रम का सन्देश है। यही सूखे से निजात पाने की जंग की कारगर रणनीति है।