उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने लगभग तीन साल की अल्पावधि में मोहम्मद सलीम की जनहित याचिका पर नदियों के हित में ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। यह फैसला उन्हें जीवित व्यक्ति का दर्जा देता है। यह फैसला विश्व जल दिवस के दो दिन पहले अर्थात 20 मार्च 2017 को आया है। इस फैसले ने एक ओर यदि नदियों को उनकी अस्मिता एवं जीवन की रक्षा का कानूनी कवच पहनाया है तो समाज तथा नदी प्रेमियों को वर्ष 2017 का सबसे बड़ा तोहफा दिया है।
इस फैसले के बाद गंगा तथा यमुना को देश के नागरिकों की ही तरह वे सभी अधिकार प्राप्त होंगे जो भारत के आम नागरिक को संविधान के अन्तर्गत मिले हैं। उन्हें प्रदूषित करना या हानि पहुँचाना अपराध की श्रेणी में आएगा। अब वे अनाथ नहीं होगी। इस फैसले ने उनके लिये तीन अभिभावक भी तय कर दिये हैं। अभिभावक हैं नमामि गंगे के महानिदेशक, उत्तराखण्ड राज्य के मुख्य सचिव और उत्तराखण्ड राज्य के ही महाधिवक्ता। जाहिर है गंगा तथा यमुना और उनकी सहायक नदियों के अभिभावकों को अदालत द्वारा प्रदत्त अधिकार दी गई कानूनी जिम्मदारी के बाद हालात बदलेंगे।
गंगा-यमुना तथा उनकी सहायक नदियों की स्थिति में सुधार होगा। भले कुछ समय लगे पर अन्य राज्यों में भी नदियों के लिये समान अधिकारों का मार्ग प्रशस्त होगा। यह सही है कि कुछ लोग अड़ंगा भी लगाएँगे पर आने वाले दिनों में 20 मार्च 2017 की तारीख नदियों तथा पर्यावरण पर काम करने वाले नागरिकों के लिये दीवाली के शुभ दिन जैसी स्मरणीय होगी। अनुभव बताता है कि कुदरती संसाधनों की सलामती और नागरिकों के हक की लड़ाई में नागरिक ही अक्सर आगे रहते हैं। इस फैसले ने समाज में फैले उक्त भ्रम को किसी हद तक खंडित किया है। संसाधनों का पक्ष मजबूत हुआ है।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का फैसला न्यूजीलैंड के उत्तरी द्वीप में स्थित 288 किलोमीटर लम्बी नदी वांगानुई नामक नदी के सम्बन्ध में पारित पेरेंट पैट्रिआई लीगल राइट से प्रेरित प्रतीत होता है। इस नदी का नाम न्यूजीलैंड की माओरी जनजाति के नाम पर है। उल्लेखनीय है कि सदियों से माओरी समाज इस नदी के किनारे रहता है। वह इसकी रक्षा करता है। उसकी सेहत की चिन्ता करता है। उनकी खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति इस नदी से होती है। उन्होंने 100 से अधिक सालों तक इस नदी की अस्मिता की कानूनी लड़ाई उन लोगों से लड़ी है जो बाहरी हैं और सम्पन्न हैं।
उल्लेखनीय है कि माओरी समाज वृक्षों, पहाड़ों और नदियों को जीवन्त मानता है। उन्हें जीवित व्यक्ति का दर्जा देता है। एक प्रसिद्ध माओरी कहावत कहती है कि मैं ही नदी हूँ और नदी ही मैं हूँ। कुदरत के अवदानों के प्रति यह भावना निसन्देह अद्भुत है। माओरी समाज की इसी भावना का कानून ने सम्मान किया है। कानून ने स्वीकार किया है कि नदी की सेहत का सीधा और गहरा सम्बन्ध माओरी समाज के लोगों की सेहत से है। उनकी कानूनी लड़ाई सिद्ध करती है कि नागरिकों की सेहत तभी तक ठीक रह सकती है जब तक प्राकृतिक संसाधन सेहतमन्द हैं।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय का फैसला इस हकीकत पर कानूनी मुहर लगाता है। दूसरे शब्दों में कुदरत से तालमेल के सिद्धान्त पर अपनाया विकास ही सही तथा निरापद विकास होता है। वही टिकाऊ विकास है। उसी के चलते जीवन की निरन्तरता सम्भव तथा सलामत है। उसे ही समाज की मान्यता प्राप्त है। माओरी समाज के गेरार्ड अलबर्ट कहते हैं कि नदी को जीवित व्यक्ति मानकर ही उसका उपयोग तथा दोहन किया जाना चाहिए।
न्यूजीलैंड के उत्तरी द्वीप में स्थित वांगानुई नदी की कहानी रोचक और सबक विचारणीय हैं। प्रारम्भ में नदी का पानी निर्मल था। वह प्रदूषणमुक्त थी। बाहरी लोगों ने उसमें अनुपचारित मल-मूत्र तथा रसायनों को विसर्जित कर उसे प्रदूषित किया। प्रदूषण के कारण नदी में स्नान करना और तैरना कठिन हो गया। प्रदूषित पानी के कारण मछलियाँ मरने लगीं। सीवर ट्रीटमेंट प्लांट भी बेअसर हुए। हालात बिगड़े और माओरी समाज के सामने खाद्यान्न संकट पैदा हो गया। आजीविका के संकट ने कानूनी लड़ाई की धार को कम नहीं होने दिया। कानूनी सफलता मिली। इसी कारण न्यूजीलैंड सरकार ने नदी को जनजातीय मान्यताओं से बाहर निकाल का पेरेंट पैट्रिआई लीगल राइट का कानूनी कवच पहनाया।
आज इस गुमनाम नदी को विश्वव्यापी पहचान मिल चुकी है। उसकी चर्चा होने लगी है। उसकी तर्ज पर नदियों के पक्ष में नीतियों और कानूनों की सुगबुगाहट तेज हो गई है।
सारी दुनिया एक स्वर से नदी को गन्दा करना बुरा मानती है। इसी कारण संयुक्त राष्ट्र संघ ने गन्दे पानी को विश्व जल दिवस 2017 का मुख्य विचारणीय विषय घोषित किया है। इस घोषणा के कारण इस विषय पर साल भर सारी दुनिया में चर्चा होगी पर मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था पानी या नदी में प्रवाहित पानी को नागरिक नहीं मानती। उसके प्राकृतिक अधिकारों को तवज्जो नहीं देती। उसके सामाजिक सरोकारों का बखान तो होता है पर उनकी रक्षा में कोताही नजर आती है। कुछ लोगों के लिये वह सम्पत्ति है, कुदरत का तोहफा नहीं। उनके लिये वह मात्र वस्तु है। वह धन कमाने का बहुत बढ़िया साधन है।
भारत में कुछ लोग उन्हें वाटरबॉडी तो कुछ लोग माँ का दर्जा देते हैं। माँ का दर्जा मिलने के बाद भी सारी माताएँ सेहतमन्द नहीं हैं। राष्ट्रीय नदी होने के बावजूद गंगा और उसके कछार की नदियाँ कहीं-कहीं बहुत बीमार हैं। उनका पानी अमृत नहीं है। उनका पानी जीवन की रक्षा में असफल सिद्ध हो रहा है। वादों और दावों के बावजूद माता और उसका परिवार अस्पताल में है या अस्पताल जाने की तैयारी कर रहा है।
आने वाले दिनों में उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के फैसले को अमलीजामा पहनाने के लिये सामाजिक तथा राजनैतिक दबाव बनेगा। कुछ लोग असहमत होंगे तो कुछ उसे चुनौति भी देंगे। भारत में चूँकि नदियों की पूजा की जाती है। कुछ नदियों को माता का दर्जा दिया जाता है। कुछ को अवतार माना जाता है। कुछ नदियाँ परिक्रमा के लिये जानी जाती हैं। ऐसी हालत में कानून और आस्था का समुद्र मंथन होगा। धार्मिक तथा सामाजिक संगठन भी अपनी बात सामने रखेंगे।
न्यूजीलैंड का कानून भी भारत सहित पूरी दुनिया में नदी को संरक्षण देने के लिये बेहतरीन उदाहरण बनेगा। नदी और पर्यावरण की बात करने वालों के लिय यह माकूल समय है लेकिन आने वाला समय बाजार और कुदरत के अधिकारों के द्वन्द को भी देखेगा। आने वाला समय सरकार और उसकी भूमिका को भी देखेगा। इस सब के बीच सम्भव है, नदियों को और कुछ समय तक सूर्यादय का इन्तजार करना पड़े।
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा नदियों को जीवित इकाई का दर्जा दिये जाने के आदेश को यहाँ देखें।
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