कोसी को बचाने की जंग

Submitted by RuralWater on Thu, 07/02/2015 - 10:34
Source
कादम्बिनी, मई 2015

अपने अथाह जल प्रवाह और विकराल रूप के कारण बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इसके लगातार घटते जल स्तर के कारण आज यह सूखने के कगार पर है। यद्यपि लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकारी कर्मियों के मिले-जुले प्रयास इसे बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। कोसी को बचाने की इसी जद्दोजहद की एक दास्तान।

कोसी का जल स्तर लगातार घट ही रहा था। सब देख ही रहे थे। सन 2003 की गर्मी की शुरूआत में वह सूखने के कगार पर पहुँच गई थी। अखबार और आँकड़े बता रहे थे कि सन 1993 में कोसी का जल-प्रवाह 995 ली. प्रति सेकेंड था, सन 2003 में वह 85 लीटर प्रति सेकेंड ही रह गया। अल्मोड़ा नगर की पेयजल आपूर्ति कोसी नदी से ही होती है। इस गैरबर्फानी नदी का उद्गम कौसीनी के नजदीक पिनाथ पर्वत से होता है। इसके प्रारम्भिक मुख्य जलागम वन क्षेत्र पिनाथ, ‘एक्वा विंसर’ के वन हैं। सोमेश्वर में इसमें मंशानाला और लोथ घाटियों से आने वाली उपनदियाँ मिलती हैं। उद्गम से सोमेश्वर तक यह बोरारो घाटी में बहती है। सन 2003 में प्रशासन ने अल्मोड़ा नगर की जलापूर्ति को मुख्य मानकर नदी क्षेत्र के खेतों को सिंचाई से रोकने के लिए पुलिस व्यवस्था भी कर दी।

स्थिति सबके सामने थी। ऐसा लग रहा था कि इस घाटी में काम करने की आवश्यकता है। पर्यावरण आन्दोलन की जनक सरला बहन द्वारा स्थापित लक्ष्मी आश्रम कौसानी ने पर्यावरण बचाने के आन्दोलनों में हमेशा महती भूमिका निभाई है। सन 1946 में स्थापित इस संस्था की मार्गदर्शिका राधा बहन की प्रेरणा से आश्रम की मैं भी कार्यकर्ता रही और मैंने नवम्बर 2003 से महिला मंडल गठन के उद्देश्य से बोरारो घाटी के गाँवों में आना-जाना शुरू कर दिया। यहाँ आवश्यकता व क्षमता से अधिक कार्य महिलाओं के सिर पर परम्परागत बोझ बनकर दिनचर्या में शामिल था। इस घाटी में एक साल में गेहूँ, धान व आलू तीन फसल होती हैं। आलू की फसल अच्छी होती है, लेकिन किसानों को उचित कीमत नहीं मिल पाती।

हमने पहले यह समझा कि वन आधारित कोसी नदी को बचाना है तो इसके जल भरण क्षेत्र पिनाथ वन को चौड़ी पत्ती के वृक्षों से आच्छादित होने देना होगा। जब मैं गाँवों में गई तो मैंने देखा कि इस घाटी की महिलाएँ कमरतोड़ मेहनत करती हैं। उनका पूरा साल खेतों और जंगलों में बीतता था। जंगलों से सूखी लकड़ी, घास, बांज की हरी पत्ती व हरी लकड़ी काटकर लाना आदि जाड़ों के पूरे चार महीने उनकी दिनचर्या यही रहती थी। ऐसे में बच्चों का पालन-पोषण ठीक तरह से न हो पाना सहज-सी बात थी। वे सुबह का खाना शाम को खाती थीं और शाम का सुबह, क्योंकि सुबह जल्दी जंगल जाना होता था। इससे उनके स्वास्थ्य और उचित संवाद के अभाव में गृहस्थी पर भी बुरा असर पड़ता था। इस घाटी के पिनाथ आरक्षित वन व एक्वा बिंसर आरक्षित वनों से प्रतिदिन 500 से 1000 गट्ठर बांज की पत्ती व इसका चार गुना कच्ची लकड़ी काटी जाती थी। अपनी जीवनदायिनी नदी को जन्म देने वाले वन का प्रबंधन करना सब भूल गए थे। जिनकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी थी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे बेहतर प्रबन्ध कर सकें। समुदाय और प्रशासन/सरकार के बीच संरक्षण व सहयोग का रचनात्मक जोड़ किताबों व लोगों के मन में ही रह गया। जंगल जाने वाली अधिकतर महिलाएँ पेड़ पर चढ़ पाईं तो ठीक, अन्यथा जड़ से काटने में भी गुरेज नहीं था।

मैं बोरारो घाटी के एक-एक गाँव में चार-पाँच बार जा चुकी थी, लेकिन मुझे महिलाएँ फिर भी घर पर नहीं मिलती थीं। बड़े-बुजुर्ग मिलते थे। महिलाओं की संगठन शक्ति के बारे में तमाम उदाहरणों के साथ उनसे बात होती थी। उन्हें न तो महिलाओं पर विश्वास था और न ही इस कार्य में आवश्यक रूचि थी। महिलाओं के बारे में वे कहते थे- “ये महिलाएँ जिलाधिकारी का कहना भी नहीं मानेंगी, तब आप और हम क्या चीज हैं?” इस प्रकार कई दिन गाँवों में जाते-जाते बीत गए। मेरे पहुँचने से पहले वे जंगल जा चुकी होती थीं। एक दिन संयोग से मैं बोरारो घाटी के गाँवों में भ्रमण कर वापस आ रही थी कि रास्ते में 15 महिलाएँ मिल गईं। यहाँ महिलाएँ झुंड में काम करती हैं। चाहे खेती का काम हो या जंगल का। वहीं पर बैठक हो गई। उनसे बात हुई कि जंगल और हमारे नौले-धारे व नदी का आपस में क्या अंतर्सम्बंध है? नदी हमारे जीवन से कैसे जुड़ी हुई है? पर्याप्त ईंधन-चारा होने के बावजूद भी जंगलों का कटान क्यों करते हैं? इससे जीवन के अन्य पहलू-अपना स्वास्थ्य, बच्चों का स्वास्थ्य व उनकी शिक्षा-दीक्षा और गृहस्थी-कैसे प्रभावित हो रहे हैं? कोसी नदी के घटते जल स्तर को तो गाँववासी देख भी रहे थे और प्रभावित भी हो रहे थे, लेकिन कारणों पर न तो किसी का ध्यान गया और न ही किसी ने रूचि दिखाई। वैसे भी विकास की यह अंधी दौड़ नीतियों व व्यवस्थाओं तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि वह व्यक्ति के मन में भी घर कर रही है। जिसके कारण अनावश्यक, विनाशक व नुकसानदेय भाग-दौड़ होती रहती है।

पहाड़ों में पुरूषों के मन कितने भी व्यक्तिवादी हो रहे हों, लेकिन महिलाओं की मूल में बसी सामूहिकता पर उसका असर नहीं पड़ा है आज भी उनका मन और कार्य सामूहिकता के आधार पर खड़ा है। सामूहिक निर्णयों के लिए भीड़ से अधिक सामूहिक मनों की आवश्यकता होती है। बस, तुरन्त पहली महिला मंडल का गठन हो गया। नियम तय किए गए कि हम-

1. कोसी के दोनों जलागमों के आरक्षित वनों से बांज वृक्ष की पत्तियाँ नहीं काटेंगी।
2. अन्य चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों से भी बिछाली के लिए हरी पत्तियाँ नहीं काटेंगी।
3. ईंधन के लिए केवल सूखी लकड़ियाँ एकत्र करेंगी, कच्ची नहीं काटेंगी।
4. वनाग्नि से इन वनों को बचाएँगी।
5. वृक्षों की चोटी काटने से रोकेंगी।

महिलाओं ने उक्त निर्णयों का शब्दशः पालन किया। सर्वप्रथम स्वयं कच्ची लकड़ी व बांज काटना बंद किया। वनों में आग न लगे, सावधानी रखी। आग लगने पर त्वरित कार्यवाही कर, सामूहिक रूप से उसे बुझाया। साथ ही वृक्षों की चोटी पर महिला मंडलों ने नजर रखी। वन कर्मचारियों की मिलीभगत से काटी जा रही इमारती लकड़ी को जब्त किया। उसका इतना हल्ला चारों ओर मचाया कि फिर आगे से किसी की हिम्मत नहीं हुई। इस दौरान संघर्षों से भी संगठनों को गुजरना पड़ा। होटल व्यवसायी ग्रामीणों के खेतों के स्रोतों से पानी ले जाने लगा, महिलाओं ने विरोध किया और उसका पानी ले जाना बंद करवा दिया और कहा कि अगर आप लोग जल संरक्षण, संवर्धन में किसी भी भूमिका का निर्वहन नहीं करते, तो आपको अधिकार नहीं है कि आप कहीं से भी पानी ले जाएँ। उसने अपनी प्रशासनिक धमक से पुलिस बुलवा ली, जो ग्रामीणों का डराने-धमकाने लगे। पुरूष तो घबरा गए, लेकिन महिलाएँ अपने निर्णय पर अडिग रहीं। इससे प्रशासन को भी महिला शक्ति का अंदाजा हुआ और वे वापस लौट गए।

इस सफलता से प्रोत्साहन पाकर महिला मंडल की सदस्याएँ दूसरे गाँवों की महिलाओं को जागृत व संगठित करने में जुट गईं। तीस-चालीस महिलाओं का झुंड एक गाँव से दूसरे गाँव, अपनी घाटी से दूसरी घाटी जाता था। इस प्रकार यह अभियान लोध व मंशानाल घाटियों तक फैल गया। देखते-देखते 60 महिला मंडलों का गठन हो गया।

अब लगने लगा था कि गाँववासियों ने तो जंगल जाना बंद कर दिया, लेकिन वन विभाग अपनी आदत के अनुसार जंगलों को अभी भी नुकसान पहुँचा रहा है। सो, एक बैठक आयोजित करने का विचार आया, जिसमें महिला मंडलों के साथ वन विभाग कर्मचारियों, सरपंच, ग्राम प्रधान व अन्य पंचायत प्रतिनिधियों ने भाग लिया। महिलाओं ने अपने निर्णयों से उन्हें अवगत कराया। अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगते हुए वन विभाग को जंगलों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रति जागरूक होने को कहा और साथ ही वन संरक्षण के लिए आपसी सहयोग को प्रमुखता दी। इन निर्णयों पर सभी ने सहमति जताई। इस प्रकार महिला मंडलों ने वन विभाग के स्थानीय कर्मचारियों को साथ लिया। उन्होंने वन की आग बुझाने अथवा वृक्षारोपण साथ मिलकर किया। इस स्वतः स्फूर्त अभिक्रम का प्रभाव वन विभाग के अधिकारियों पर बहुत सकारात्मक रहा। उन्होंने 37 महिला मंडलों के कार्यों को देखते हुए उन्हें पुरस्कार दिए। कफाड़ी गाँव की महिला मंडल अध्यक्षा को वन विभाग की संस्तुति पर अग्नि से वन की सुरक्षा करने के उत्तम कार्य हेतु राज्य स्तरीय सम्मान मुख्यमन्त्री द्वारा प्राप्त हुआ। वन विभाग और महिला मंडलों के तालमेल से सन 2003 से अभी उक्त वनों में अग्नि से वैसी हानि नहीं हुई, जैसी पहले हुआ करती थी।

मैंने इस पूरे दौर में देखा कि इस पूरे काम में शुरूआती परेशानी के बाद पुरूषों का सहयोग भी सराहनीय रहा। गाँवों से सुझाव आ रहे थे कि केवल जलागम के वन क्षेत्र को बचाने मात्र से ही कोसी जल की मात्रा में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो सकेगी। अतः महिला मंडलों के साथ पूरा गाँव-समाज अपने सुख गये नौलों-धारों तथा कोसी में मिलने वाले गधेरों को पुनर्जीवित करने का अभियान भी आरम्भ करें। इन उद्देश्यों को लेकर पदयात्रा करने का विचार कुछ महीनों से गाँवों में उठने लगा था और यह सबको आवश्यक भी लगने लगा था।

उक्त दोनों उद्देश्यों को लेकर इनकी शुरूआत 27 मई 2007 को कोसी के उद्गम के बाद आने वाले प्रथम संगम पर कोसी माँ के पूजन के साथ आरम्भ की गई। कोसी जल को हाथ में लेकर यहाँ उपस्थित 300 महिला-पुरूषों ने संकल्प लिया कि कोसी माँ को बचाने के लिए हरसम्भव प्रयास करेंगे। यहाँ पर्यावरण वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता आदि उपस्थित थे। तीनों घाटियाँ ‘कोसी बचाओ, जीवन बचाओ’ के नारों से गूँज उठी थी।

सभी संघर्षरत साथियों का सामूहिक विचार बनने लगा कि प्रदेश में जगह-जगह विनाशकारी जल-विद्युत परियोजनाओं के विरोध में और नदियों के घटते जल पर चिन्ता के साथ अलग-अलग संघर्ष व रचनात्मक काम चल रहे हैं, क्यों न सामूहिक रूप से सभी नदी घाटी के संघर्षरत साथियों द्वारा जल संरक्षण, संवर्धन के लिए जनजागरण तथा नदी घाटी के लोगों के साथ हो रहे अन्यायों के विरोध में पदयात्राएँ की जाएंँ। खैर, वर्ष-2008 को ‘नदी बचाओ वर्ष’ के रूप में मनाया गया और 1 जनवरी, 2008 से सभी नदीघाटियों में पदयात्राएँ की गईं।

1 दिसम्बर, 2007 को अनासक्ति आश्रम कौसानी में ‘कोसी बचाओ अभियान’ पदयात्रा का उद्घाटन सम्मेलन हुआ था, जिसमें प्रसिद्ध गाँधीवादी चिन्तक और लेखक अनुपम मिश्र ने कहा- “राज और समाज का साथ जुड़कर जो काम यहाँ हुआ है वह देश में अनोखा है।” 1 जनवरी को प्रातः कौसानी से पदयात्रा आरम्भ हुई। जगह-जगह जनसभाएँ, नुक्कड़ नाटक करते हुए 15 जनवरी को अल्मोड़ा, खैरना, बेताल घाट व गर्जिया होते हुए पदयात्रा रामनगर पहुँची।

रामनगर में दो दिन के सम्मेलन में उत्तराखंड के 16 नदियों में पदयात्रा कर आए साथी, अपनी-अपनी नदी के जल को लेकर उपस्थित हुए। इसी के साथ पूरे उत्तराखंड में नदियों को बचाने की जनचेतना का संचार हुआ।

(लेखिका गाँधी शांति प्रतिष्ठान केन्द्र, उत्तराखंड की पूर्व सचिव और पर्यावरणकर्मि हैं)