कोसी क्रान्ति का बिगुल

Submitted by Hindi on Sat, 08/25/2012 - 13:18
Author
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र
Source
डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'

कोसी क्रान्ति’ का प्रस्ताव इस बात को मानता था कि केवल संसाधन, पूंजी, श्रम-शक्ति, तकनीकी अनुभव और इन्फ्रास्ट्रक्चर की मौजूदगी से कृषि और ग्रमीण विकास तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि लोग खुद अपनी प्रेरणा से कोई काम नहीं करेंगे। ‘क्रान्ति’ प्रस्ताव में इस बात पर बल दिया गया था कि खास कर छोटे और सीमान्त कृषकों की समस्याओं की बारीकी से और तथ्यपरक समस्याओं की जानकारी हासिल की जाय।

पूर्णियाँ जिले के बनमनखी, भवानीपुर, धमदाहा, बरहरा और रुपौली प्रखण्डों में कृषि तथा सर्वतोन्मुखी विकास के लिये यह कार्यक्रम पाइलट प्रोजेक्ट की शक्ल में हाथ में लिया गया था। यह इलाका पूर्वी कोसी मुख्य नहर की जानकीनगर और पूर्णियां शाखा नहरों के कमाण्ड क्षेत्र में आता था। पूर्णियाँ की जमीन आन्दोलनों के लिये बड़ी जरखेज रही है और किसान आन्दोलनों का तो यह हमेशा से गढ़ रहा है। बटाईदारों के शिकमी हकदारी की एक बड़ी लड़ाई यहाँ 1950 के दशक में सफलतापूर्वक लड़ी गई थी। यहाँ की खासियत थी कि कृषि से सम्बद्ध 53 प्रतिशत लोग तब भूमिहीन थे और 40 प्रतिशत से ज्यादा किसान बटाईदार थे। खेती में काम करने वाले मजदूरों को साल में 150 से 180 दिन से ज्यादा का रोजगार नहीं मिलता था और मजदूरी की बाजारी दर उस समय 4 रुपये तक थी जबकि कानूनी तौर पर उन्हें 5 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिलनी चाहिये थी। कोसी क्रान्ति का मुख्य उद्देश्य था कि वह लोक-शक्ति और सरकार के समर्थन से इस सामन्तवादी व्यवस्था के सांड़ को उसके सींग से पकड़ेगी और उसे उसकी औकात बतायेगी।’’ कोसी क्रांति का उद्देश्य केवल भूमि-सुधार न हो कर आम आदमी की सामाजिक और आर्थिक क्षमताओं का विकास करना था और उन तक कोसी परियोजना द्वारा उपलब्ध सिंचाई क्षमता के पूर-पूरे लाभ को भी पहुँचाना था।

‘कोसी क्रान्ति’ का प्रस्ताव इस बात को मानता था कि केवल संसाधन, पूंजी, श्रम-शक्ति, तकनीकी अनुभव और इन्फ्रास्ट्रक्चर की मौजूदगी से कृषि और ग्रमीण विकास तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि लोग खुद अपनी प्रेरणा से कोई काम नहीं करेंगे। ‘क्रान्ति’ प्रस्ताव में इस बात पर बल दिया गया था कि खास कर छोटे और सीमान्त कृषकों की समस्याओं की बारीकी से और तथ्यपरक समस्याओं की जानकारी हासिल की जाय। दूसरी बात यह कि किसानों को मिलने वाली सारी सुविधाओं, जैसे कर्ज और विक्रय व्यवस्था के साथ जो एक जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया जुड़ी हुई है उसको ‘अच्छे प्रबन्धन’ से जहाँ तक मुमकिन हो सके आसान किया जाय। इसके लिए एक समेकित सपोर्ट सिस्टम की जरूरत पड़ेगी जिसकी नजर केवल लक्ष्य पूरा करने पर न होकर लोगों पर केन्द्रित होनी चाहिये। इस पूरी योजना के ‘कार्यकारी गाँधीवादी’ विकल्प की परिकल्पना बी.जी. वर्गीज ने की थी जिससे, “...क्षेत्रीय विकास के लाभ उसके सही हकदारों तक पहुँच सकें।’ जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति की दिशा और दृष्टि भी इस कार्यक्रम से जुड़ी हुई थी। इस तरह इस योजना से बहुत बड़े-बड़े नाम चाहे-अनचाहे जुड़ गये थे। एमरजेन्सी के ठीक बाद बनी सरकारों द्वारा शुरू किये गये कार्यक्रमों में से एक, इस कार्यक्रम में जनता का अपूर्व उत्साह देखने को मिलता था और इसलिए इस योजना का सुचारु रूप से संचालन सभी सम्बद्ध पक्षों के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था।

‘कोसी क्रान्ति’ के मुख्य अंश इस प्रकार थे-


1. कृषि सुधारों की दिशा में सर्वतोन्मुखी प्रयास
2. ऑन फार्म डेवलपमेन्ट के कार्यक्रम सम्पन्न करना
3. स्वास्थ्य कार्यक्रम
4. शिक्षा कार्यक्रम
5. सड़कों तथा सम्पर्क सेवाओं का निर्माण
6. ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देना
7. समुचित विक्रय व्यवस्था का विकास
8. बहु-फसली पद्धति की शुरुआत करना।

बड़े लाव-लश्कर और गाजे-बाजे के साथ ‘कोसी क्रान्ति’ की शुरुआत 26 जनवरी 1978 को बनमनखी में तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर द्वारा की गई। इस आयोजन में ‘हरित क्रान्ति’ से लेकर ‘बेरोजगारी समस्या के समाधान,’ सामाजिक न्याय और जमीन के मालिकाना हक तक सभी चीजों की मांग, आश्वासन और सपनों का बड़े पैमाने पर आदान-प्रदान हुआ। देखें बाक्स-’कोसी क्रान्ति’ एक गंभीर पहल थी।

दुर्भाग्यवश एक साल होते न होते ‘कोसी क्रान्ति’ के खेमें उखड़ने लगे। एक तो जमीन का मसला बहुत ही संवेदनशील होता है और पूर्णियाँ जैसे इलाकों में तो स्थिति और भी गंभीर है। इन प्रखण्डों में जमीन के सर्वे और उसके रिकार्डों को लेकर बवाल खड़ा हो गया। सरकारी अमला, जिसकी भूमिका को सरल और समाज तथा जन-केन्द्रित बनाने की बात क्रान्ति के प्रस्तावों में की गई थी, दस्तूर के मुताबिक बातचीत में जन-केन्द्रित थी मगर अन्दर-अन्दर उनकी साठ-गाँठ भू-स्वामियों से थी। उसके अपने हित कभी भी गरीब आदमी की मदद कर के पूरे होने वाले नहीं थे।

इस समय एमरजेन्सी हटाई जा चुकी थी और कोसी परियोजना की उपलब्धियों और कार्यकलाप पर बहस भी जिन्दा हो गई। जब पूर्णियाँ के पाँच प्रखण्डों में ‘क्रान्ति’ का बिगुल फूंका जा रहा था तब लगभग उसी समय केन्द्र सरकार ने बिहार सरकार से कोसी नहरों के आधुनिकीकरण का प्रस्ताव मांगा क्योंकि अब यह तय हो चुका था कि कोसी योजना पूरी तरह से नाकारा साबित हो गई है और उससे सिंचाई अपने कथित उद्देश्यों से एक चौथाई हिस्सों में ही हो पा रही है और यह कि अर्जित सिंचाई क्षमता का 75 प्रतिशत बिना उपयोग के व्यर्थ हो रहा है। लेकिन केन्द्र के दिशा-निर्देशों में यह साफ कहा गया था कि आधुनिकीकरण की यह योजना ‘वर्तमान व्यवस्था की खामियों के गहन अध्ययन और विभिन्न आउटलेट पर सिंचित कमाण्ड की व्यापक जानकारी’ के आधार पर बनाई जानी चाहिये। इण्डियन नेशन अपने 18 फरवरी 1980 के सम्पादकीय में लिखता है कि, ‘‘जानकारी तो इस बात की है कि कोसी परियोजना कब की बट्टे खाते में चली गई और इसके हालात दिनों-दिन बदतर होते चले जा रहे हैं और कोसी क्रान्ति कर्पूरी ठाकुर की अधिकांश विकास और रोजगार पैदा करने वाली योजनाओं की तरह छलावा साबित हुई है।’’ पत्र आगे लिखता है कि, ‘‘...कांग्रेस ने कोसी प्रोजेक्ट का सत्यानाश कर दिया और बहुत सी तकनीकी, प्रशासनिक और राजनीतिक समितियों का गठन करके उसने सुधार के रास्ते सुझाने को कहा लेकिन वह इन परियोजनाओं को पुर्नजीवित करने में नाकामयाब रहीं। उसके उत्तराधिकारियों की, जो इस गर्द को साफ करने के क्रम में खुद हर जगह कूड़े का अम्बार लगा बैठे, कार्य क्षमता के इतिहास को देखते हुये यह आशा करना ही बेकार है कि वह कोसी योजना या किसी भी विकास कार्यक्रम में कोई सुधार ला पायेंगे।’’

सरकार की तरफ से ‘कोसी क्रान्ति’ कार्यक्रम के दावे और वायदे किये जाते रहे, कागजी घोड़ों की फर्राटा दौड़ हुई मगर काम कुछ नहीं हुआ। जमीन के मालिकाना हक के लिये जो प्रारंभिक सर्वेक्षण इस दौर में शुरू हुये उसके प्रति स्थानीय किसान बड़े सशंकित थे और दस्तावेज ठीक करने के नाम पर भ्रष्टाचार की शिकायतें बड़े पैमाने पर आने लगीं। राज्य में जनता पार्टी के शासन में उसी पार्टी के एक विधायक शालिग्राम सिंह तोमर ने सरकार को चेताया कि अगर दस्तावेज ठीक करने के नाम पर किसानों को परेशान किया गया तो ‘कोसी क्रान्ति’ ‘खूनी क्रान्ति’ में बदल जायेगी।

उधर सरकारी प्रचार भी अपने चरम पर था। 24 जुलाई 1978 को राज्य के मुख्य सचिव के.ए. रामासुब्रह्मण्यम ने एक प्रेस कांफ्रेन्स में बताया कि कोसी क्रान्ति के अधीन बहुत सी जल-निकासी की योजनाओं पर काम शुरू हो गया है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि 10,000 हेक्टेयर के एक चौर से 7,000 हेक्टेयर क्षेत्र की जल-निकासी कर दी गई है और 12,000 हेक्टेयर के एक दूसरे चौर पर काम शुरू होने वाला है। जबकि सच यह था कि सिर्फ इन योजनाओं का समावेश ऑन फार्म डेवलपमेन्ट की स्कीमों में किया गया था।

इसके अलावा कृषि विकास की इन सारी योजनाओं में यह उम्मीद की जाती थी कि सारा पैसा सरकार लगायेगी और इसमें से अधिकांश निवेश अनुदान की शक्ल में होगा। धीरे-धीरे यह साफ होने लगा कि कम से कम 40 प्रतिशत कामों में यह पैसा ज्यादातर वित्तीय संस्थाओं से कर्ज के रूप में दिया जायेगा जिसे किसान किस्तों में वापस करेंगे। इसका उत्साह न तो बैंकों में देखा गया और न ही पहले से कर्ज में दबे किसानों ने कृषि विकास के नाम पर नये कर्ज लेने में कोई रुचि दिखाई। साथ ही बहुत से किसानों ने बैंकों के पुराने व़फर्शे न लौटा कर अपनी साख पहले ही खो दी थी, इसलिये अगर वह चाहते तो भी बैंक उन्हें नया कर्ज नहीं देते। बटाईदारी के झमेले इन सब के ऊपर थे।

नतीजा यह हुआ कि ‘कोसी क्रान्ति’ ने साल भर के अन्दर दम तोड़ दिया। 21 अप्रैल 1979 को कर्पूरी ठाकुर की सरकार का भी पतन हो गया जिसकी वजह से सरकार की जो कुछ भी रुचि इस कार्यक्रम में थी वह समाप्त हो गई। 5 जनवरी 1982 को पूर्णियाँ के कलक्टर एम.के. दास ने ‘क्रान्ति’ से सम्बन्धित 37 कर्मचारियों की छटनी कर के इस योजना का औपचारिक रूप से श्राद्ध कर दिया।