अल्मोड़ा संग्रहालय में सुरक्षित छठी शताब्दी के उत्तर गुप्त कालीन ब्राह्मी लिपि संस्कृत भाषा में अंकित तालेश्वर ताम्रपत्र में सबसे पहले कोट शब्द का प्रयोग मिलता है। इसके अनुसार पर्वताकार राज्य की राजधानी ब्रह्मपुर में द्वितीवर्मा के मंत्री भद्रविष्णु का कार्यालय कोट में था (कोटाधिकारण अमात्य भद्रविष्णु पुरसरेणच)। राजा ललितसूर के ताम्रशासन में भी वर्त्मपाल, कोटपाल आदि का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज के शासन काल के दो अभिलेख मिले हैं। प्राप्त दूसरे अभिलेख में अन्तपाल के पुत्र अल्ल को स्पष्ट रूप में गोपाद्रि का कोट्टपाल कहा गया है। कुमाऊँ में कोट से प्रचलित कोटि, कोटिया, कोटिला आदि उसी के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। चन्द राजाओं द्वारा धीरे-धीरे अपनी स्थाई छावनियाँ भी बनवाई गई। उदाहरणतः राजा उद्योत चन्द्र ने गढ़वाल युद्ध के समय पूर्व में नेपाल सीमा ब्रह्म देव मण्डी, चम्पावत एवं सोर में अपनी छावनियों में स्थाई सेना रखी थी।
कुमाऊँ में कोट सैन्य परम्परा प्रणाली विभिन्न राजवंशों में पाई जाती है। कोट शब्द का शाब्दिक अर्थ आवरण अथवा बन्द/ढ़का रखना अर्थात सुरक्षा कवच बना रहना। यह प्रणाली कत्यूर, मल्ल, चन्द, बम, पाल, गोरखा राजाओं से लेकर अंग्रेजी शासन काल तक देखने को मिलती है।
पुराणों में दुर्ग का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में ‘पुर’ शब्द का उल्लेख हैं। कालान्तर में पुर शब्द को ही कोट, किला आदि शब्दों से नवाजा गया है। दुर्गविधानम में अमर सिंह ने दुर्ग दो प्रकार के बताए-प्रकृति प्रदत्त अथवा नैसर्गिक और मानव निर्मित। कौटिल्य के अनुसार दुर्ग चार प्रकार के होते हैं- औदक, पार्वत, धान्वन और वन। रामायण में चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख है-नादेय, पार्वत, वन्य तथा कृत्रिम। इसी प्रकार महाभारत में छः प्रकार के दुर्ग बतलाए गए हैं-धन्वदुर्ग, मही दुर्ग, मनुष्य दुर्ग, गिरी दुर्ग, अब्दुर्ग तथा वनदुर्ग। मत्स्य पुराण में भी छः दुर्गों का उल्लेख किया है-धान्वदुर्ग, महीदुर्ग, नरदुर्ग, वार्क्षदुर्ग और गिरी दुर्ग। इन सबमें से गिरि दुर्ग को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इसी प्रकार दुर्गों की यही सूची विष्णुधर्मोत्तर पुराण, मनुस्मृति, विष्णु धर्मसूत्र, मानसार, मयमत, समरांगणसूत्रधार और मानसोल्लास में भी पर्वतीय दुर्ग, वनदुर्ग,जलदुर्ग, पंकदुर्ग, मिश्रदुर्ग, इष्टिकादुर्ग, मृत्तिकादुर्ग,मरूदुर्ग, नरदुर्ग आदि उल्लेखनीय हैं।शुक्रनीति में कहा गया है कि जो दुर्ग एकान्त में किसी पहाड़ी के ऊपर बना हो तथा जिसके ऊपर जलाशय का भी प्रबन्ध हो उसे गिरि दुर्ग कहते हैं। मानोदय काव्य मेें दुर्ग विजय का उल्लेख मिलता है, जिसमें राजा मानशाह और लक्ष्मण चन्द के युद्ध का वर्णन मिलता है। वाणासुर का किला, चम्पावत का किला, मल्ला महल का किला, नैथाना गढ़ी अल्मोड़ा, सीराकोट, पिथौरागढ़ का किला, कोटाबाग का किला, कोटभ्यो, कोट भ्रामरी, चाँद गढ़ी बागेश्वर आदि को इस कोटि में रखा जा सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पर्वत दुर्ग और गिरि दुर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।
चन्द्र वंशीय राजाओं के ताम्रशासन में सर्वप्रथम ‘कोट’ शब्द का उल्लेख राजा ज्ञान चन्द के शाके 1342 में खड़कोट की भूमि देने का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार पाल राजवंश में महेन्द्र पाल ने शाके 1545 में बराकोट, कल्याण चन्द द्वारा शाके 1661 में कोटगाँव देने आदि का उल्लेख चन्द राजवंश में मिलता है। लोक में प्रचलित तीन प्रकार के कोट पाए जाते हैं।1.किला/टीला युक्त कोट 2.ग्रामीण कोट 3.भवनीय कोट।
1.टीला युक्त कोट
प्रकृति प्रदत्त एवं मानव द्वारा निर्मित ऐसे टीले युक्त कोट जो ऊँची पहाड़ियों पर बने हैं जिनको चारों अथवा एक ओर से तराशकर बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त भौगोलिक परिवेश के आधार पर कहीं त्रिकोणीय, चतुष्कोणीय एवं पंचकोणीय आदि स्थानों से तराश कर भी किलो/कोट को बनाया गया है।
चम्पावत के किले
बाणासुर का किला
लोहाघाट से लगभग 5 किमी, की दूरी में कर्णकरायत ग्राम के उत्तरी भाग के शीर्ष में बाणासुर का किला विद्यमान है। इसके बारे में खण्ड-1(73-82) में विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत है।
चम्पावत गढ़ी
चम्पावत में किला/राजबुंगा/राजबुड्डा अर्थात राजा की गढ़ी भी कहा जाता है। अण्डाकार आकार के किले की प्राचीर की दीवार लगभग 3.50 मी. मोटी और ऊँचाई किले की भौगोलिक स्थिति के अनुसार 4 से लगभग 7 मीं तक की है। किले का प्रवेश द्वार दक्षिण में तथा निकास द्वार उत्तर में है। प्रवेश द्वार प्रस्तर खण्ड में सिंह का अंकन है अर्थात इसे सिंह द्वार कहा जा सकता है। इस द्वार की लxऊxचौ. लगभग 2x3x4.85 मीटर है। निकास द्वार 1.20x2.5xगर्भगृह 3.90 मीटर है। साधारण बनाए गए हैं, जिनकी चौ.2x3 मीटर तथा 3 इंच मोटाई है। राजबुंगी नौला चम्पावत का सबसे बड़ा ग्यारह सोपानों युक्त है। भौगोलिक परिवेश के आधार पर यह किला दो ओर से तराशा गया है। जबकि दो ओर प्रकृति प्रदत्त है। इस किले की रक्षा दीवार कितनी ऊँची थी, वर्तमान में यह बताना सम्भव नहीं। परन्तु रक्षा प्राचीर ऊँची एवं तीर छोड़ने हेतु छिद्र अवश्य बने होगें। समय को जाने पहचाने बगैर ही हमारी विरासत काल कवलित हो गयी।
चण्डाल कोट
जिला मुख्यालय से लगभग 6 किमी.ढकमा ग्राम के शीर्ष में वीरान पड़ा एक ऊँचा टीला विद्यमान है जिसे चाँद/चन्द/चण्डाल कोट कहते हैं। यह टीला सामने चम्पावत में विद्यमान किले (राजबुड्डा) से भी ऊँचा है। राजबुड्डा सामरिक स्थल के साथ-साथ राजनिवास भी था जबकि चण्डाल कोट सामरिक स्थल है। इसके अतिरिक्त यह कोट संचार व रक्षा व्यवस्था का सर्वोत्तम कोट है। कत्यूरी राजवंश द्वारा चन्द परिवार को दहेज में दिये जाने के बाद चन्द राज परिवार द्वारा इस कोट का संचालन किया गया। चण्डाल कोट चम्पावत के पश्चिमी पार्श्व में है। जबकि हवाई दूरी आधा किमी. है। इस कोट के पश्चिमी पार्श्व में चट्टान को लगभग 100 से 150 मीटर तक काटकर व तराश कर बनाया गया है। जिसमें 25 मी. की परिधि वाला अनगढ़ तालाब विद्यमान है। वर्तमान समय में इस तालाब के पानी का उपयोग पशु पक्षी एवं जंगली जानवर करते हैं। जबकि पूर्वोत्तर भाग में 100 मीटर नीचे दो तीन जगह मोर्चाबन्दी हेतु लम्बी चौड़ी खाईयाँ भी बनाई गई है। लगभग 20 मीटर नीचे चट्टान को काटकर एक लम्बी सुरंग है। इस प्रकार के कुशल कारीगर को ‘खै काटा ओढ़’ (खाई काटने वाले संगतरास) कहा जाता था। यह सुरंग लगभग 200 मी. लम्बी है। सुरंग के लगभग हर 15 मीटर की दूरी में एक जाला बना है। यह जाला प्रकाश देने के साथ शत्रु पर नजर रख सकता है। बाह्य व्यक्ति भीतर नहीं देख सकता है। सुरंग में अभी केवल चार ही जाले शेष है। सुरंग के मुखद्वार अथवा जाले का आकार 1.50 x .90 x 1.10 मीटर है। इसी तरह की माप आन्तरिक सुरंग की है। सुरंग में चढ़ने एवं उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनीं हैं। सुरंग के मुख भाग के प्रस्तरों को निकालने से कहीं सुरंग बन्द हो गई हैं। यह सुरंग चिनाई खोला में मिलती है। चिनाई खोला के मध्य में एक बावड़ी है। वर्तमान समय में यह सूख चुका है। चिनाई खोला से पन्यान होते हुए चक्कू को रास्ता जाता है। चिनाई खोला में विद्यमान बावड़ी से आपात काल एवं युद्ध के समय इस सुरंग का उपयोग किया जाता होगा। कोट के दाएँ पार्श्व में कालछिन गधेरा है।क्षेत्र देवदार वृक्षों से आच्छादित है। कोट से लगभग 200 मीटर की दूरी में देवदार व बाँज के झुरमुटों के मध्य में शिल्प व स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण एक हथिया नौला है। बावड़ी चम्पावत अथवा मायावती आश्रम के पैदल रास्ते में है। कोट के शिखर भाग की लम्बाई पूर्व से पश्चिम 30 मी. उत्तर में दक्षिण भाग की चौ.25. मी. है। इस स्थल में केवल दो भवनों के नींव की भग्नावेश विद्यमान है। प्रथम कक्ष पूर्व से पश्चिम 7.60 एवं उत्तर से दक्षिण 6 मी. है और गर्भगृह 4 मी. है। दूसरा कक्ष 4.50 x4.50मी. वर्गाकार और गर्भगृह 3 मी. है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दीवार की मोटाई 1.50 से 2.50 मी. तक है। यह दीवार पक्की और मजबूत है।
चिन्तकोट
लोहावती और गिड़िया नदी के संगम पर उस किले को तरास कर बनाया गया है। चारों ओर गहरी खाईयाँ हैं। किले की चोटी लगभग 150 मी. तक सुरंग बनी है। सुरंग के अन्दर लगभग दस व पन्द्रह मीटर की दूरी पर पाँच जाले बने हैं। वर्तमान समय में सड़क मार्ग बनने से इस कोट को बहुत क्षति हुई है। इस कोट के नीचे एक माछीघर (मछली घर) भी है।
कत्यूर कोट
मूलाकोट के पूर्वोत्तर भाग में एक खान में कत्यूर कोट नाम से प्राचीन दुर्ग आकारित बस्ती है। इस कोट के आस-पास डूंगरा कोट, मूलाकोट, घिंगारू कोट आदि प्रमुख हैं।
बाराकोट
बाराकोट के बारह कोटों का क्रम इस प्रकार है-बाराकोट, राजाकोट, रीठाकोट, रामपुर कोट, कीकड़ कोट, ग्वाला कोट, भटकोट, कलकोट, काना कोट इत्यादि। यह कोट आत्म सुरक्षा के साथ-साथ संचार व्यवस्था के साधन थे।
करक्यूड़ा बुंगा
करक्यूड़ा बुंगा में संग्राम कार्की के बुंगा/कोट का उल्लेख लोक में बहुत मिलता है। अभी इस स्थल का स्थानीय निरीक्षण में अपरिहार्य कारणों से नहीं कर पाया।
पिथौरागढ़ के किले
मदन चन्द्र भट्ट मानते हैं कि पिथौरागढ़ किले के संस्थापक कत्यूरी राजा राय पिथौरा का असली नाम प्रीतम देव था। इसी राजा ने पिथौरागढ़ नगर को बसाया था। एटकिंसन ने इन किलों का विल्कीगढ़( वर्तमान जी.जी.आई.सी) लन्दन फोर्ट (वर्तमान तहसील) के नाम से उल्लेख किया है। पाण्डे ने बताया है कि इसका जीर्णोद्वार लगभग 16वीं सदी ई. में पीरू गुसाई ने किया था। कौशल सक्सेना ने उत्तराखण्ड के दुर्ग में वर्णन किया कि पृथ्वी गुसाई ने (चन्द राजवंश) पिथौरागढ़ का किला बनवाया। दीप चौधरी ने इसे चन्द कालीन किला माना है। राम सिंह कहते हैं कि पिथौरागढ़ में गढ़ का ढाँचा गोरखों ने बनाया है। इससे पहले कोट था। किले की नींव व ढाँचा पूर्व मध्यकालीन रहा है। सोर घाटी में विभिन्न राजवंशों के सैन्य स्थल रहे हैं, जिसमें मुख्यतः कत्यूर,मल्ल, चन्द, बम, पाल, गोरखा एवं अंग्रेजों ने प्रशासन किया। इस घाटी के मध्य में टीले विद्यमान हैं, जिन्हें गढ़ी से बैठे-बैठे देख सकते थे। यह स्थल आत्मरक्षा के अतिरिक्त सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपू्र्ण रहे हैं।
पिथौरागढ़ किला
पिथौरागढ़ में ‘खड़ीकोट’ (वर्तमान राजकीय बालिका इण्टर कालेज के स्थान पर) मेें तिमंजिला किला था, जिसे ‘गढ़ी’ कहते थे। अब भूमिसात इस किले के चारों ओर खाई बनी थी। किला कत्यूरी राजा पिथौरा(प्रीतम देव) ने 1398 ई. के लगभग बनवाया और उसी के नाम पर यह पिथौरागढ़ कहलाया। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि पितरौटा के नाम से ही पिथौरागढ़ पड़ा है। परन्तु यह तर्कसंगत नहीं है। क्योकि यदि पितरौटा के नाम से पिथौरागढ़ पड़ा होता तो पितरौटा का नाम नहीं होता। इस तीन मंजिले किले के तीनों तलों मेें उसी प्रकार के छिद्र बनाए गए थे, जिस प्रकार कत्यूरी राजाओं के अन्य किलों मेें। यह तकनीकी कत्यूरी राजाओं की मानी जा सकती है। यह किला गोलाकार था। किले की माप(ल.x ऊं.x मो.) 60 परिधि x30 x 3 मीटर लगभग बताई जाती है।
गोरखा किला
पिथौरागढ़ का दूसरा किला, जिसमें वर्तमान समय में तहसील स्थित है, गोरखा किला कहा जाता है। समय-समय पर निर्माण किए जाने से किले की मौलिकता कुरुप हो गई है। इसमें सात परकोटे बने हैं। भौगोलिक क्षमता के अनुसार यहाँ अलग-अलग बुर्ज त्रिकोणीय, चतुषकोणीय एवं पंचकोणीय बनाए गए हैं। इस किले की परिधि 270. 24मी. की है। पूर्वी भाग में हल्की ढलका भूमि होने से इसी दिशा में प्रवेश द्वार बनाया गया है। प्रवेश द्वार की ल.1.76 और चौ.0.90 मीटर है। किले के मध्य में कुआँ था, जिसे बाद में बन्द कर दिया गया। वर्तमान समय में यहाँ पर पीपल का विशाल वृक्ष है। प्रवेश द्वार में दरवाजा सादी मोटी लकड़ी का बनाया गया है, जो वर्तमान समय में बन्द है। आपातकाल के समय सैनिकों के बाहर निकलने तथा रसद एवं पानी भरने हेतु उपयोग किया जाता होगा। दो पानी की बावड़ियाँ इस निकास द्वार के निकट लगभग 100-150 मीटर की दूरी पर विद्यमान हैं। प्रवेश द्वार के रक्षा प्राचीर में तीर, भाला व आग्नेय अस्त्र-शस्त्रों को फेंकने हेतु छिद्र बनवाए गए हैं। पूर्वोत्तर, उत्तर एवं दक्षिण में एक-एक बुर्ज में क्रमशः 5,8 एवं 4 छिद्र बने हैं। पश्चिम दिशा में तीन बुर्ज हैं, जिसमें क्रमशः7,7,10 छिद्र हैं। रक्षा प्राचीर में बने सभी छिद्रों में दो अथवा तीन स्थल की क्षमतानुसार छिद्र निर्मित किए गए हैं। किले में 152 छिद्र निर्मित हैं।इस किले के रक्षा प्राचीर की मोटाई 140 मी. ढलवा मो.1.50मी. है। सभी छिद्रों के आन्तरिक भाग की ल.58,चौ.29 सेमी के छिद्रों के मुख भाग को दो भागों में बाँटने वाली दीवार 17 x 25 सेमी है। प्रत्येक छिद्र के वाह्य भाग की ल. x चौ.16 x20सेमी. है। रक्षा प्राचीर की दीवार 140 सेमी. मोटी होने के साथ भौगोलिक क्षमता व आन्तरिक भाग में 60 सेमी. से 2 मी. तक मोटी बनाई गई है। चातुर्मास में इस क्षेत्र में मृदभाण्ड भी मिलते हैं। अंग्रेज शासन काल में इस किले के आन्तरिक भाग को विभाजित कर दिया। एक ओर प्रशासन दूसरी ओर निवास स्थान। किले के मुख्यद्वार में प्रथम विश्व युद्ध के समय यहाँ के 1005 लोगों के भाग लेने और 32 लोगों के जीवन देने का अभिलेख अंकित है।
भाटकोट
पिथौरागढ़ किले के पूर्वी भाग में ऊँचा कोट व उदयपुर कोट की तरह भाट कोट भी विद्यमान है। यहाँ भी दो ऊँचे टीले विद्यमान हैं। वर्तमान में प्रथम टीले का भू-कटाव होने के कारण मात्र प्रकृति प्रदत्त प्रस्तर खण्डों का ढाँचा रह गया है। इस कोट के उत्तरी भाग में लगभग 60 मीटर की गहराई पर वर्तमान बालिका इण्टर कॉलेज के पास एक बहुत बड़ा कुआँ है। इसी कुँए से नीचे लगभग 300 मीटर की दूरी में ‘रै धारा’ में प्रति सेकेण्ड.10 लीटर प्रवाह वाली जलधारा बहती है, जिसे ‘सिरपतया धारा’ कहते हैं। कोट में वर्षा काल में लगभग दूसरी सदी ई. के मृदभाण्ड भी मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इस स्थल से लगभग 8-9वीं सदी ई. के किसी मन्दिर के लाल बालुकाश्म घट पल्लव युक्त प्रस्तर खण्ड भी मिले हैं। वर्तमान समय में यह लाल बालुकाश्म सुमेरु संग्रहालय में रखा गया है।
भाटकोट के पूर्वी भाग में जिलाधिकारी आवास विद्यमान है। यह टीला युक्त कोट है। इसके दो भागों को तराशकर बनाया है तथा दो भाग प्रकृति प्रदत्त हैं। इसमें मोर्चाबन्दी हेतु पूर्वी व पश्चिमी भाग में खाईयाँ बनी थी।
उदयपुर कोट
पिथौरागढ़ एंचोली शिलिंग मार्ग से लगभग 5 किमी. की दूरी में बुंगा गाँव के ऊपर उदयपुर कोट/ बम कोट है। कोट एक ऊँट की पीठ की तरह लम्बी डण्डी युक्त पहाड़ी पर विद्यमान है। इसमें दो-तीन भवनों की नींव अभी भी मौजूद है। कोट से लगभग 25 मीटर की दूरी में एक सुरंग बनी है। कहा जाता है कि यह सुरंग बुंगा गाँव तक है। बीच-बीच में प्रकाश हेतु जाले बने थे। अब यह सुरंग बन्द हो चुकी है। बुंगा गाँव में एक और ग्रामीण टीला युक्त कोट है। इस सुरंग का सम्बन्ध पानी का नौला व बुंगा गाँव से था।
ऊँचा कोट
पौड़गाँव के पूर्व में ऊँचाकोट विद्यमान है। यह कोट एक ओर से तराश कर निर्मित और तीन ओर से प्रकृति प्रदत्त है। आयताकार आकार के इस कोट में एक भवन की नींव और बीच मेें 8 x 5 x 4 फीट की चट्टान को काटकर एक जलाशय बनाया गया है। इस कोट की जड़ में देवी का मन्दिर है और यहीं पर दो तीन रॉक कट स्कल्पचर भी बने हैं।
बुंगा
सातशिलिंग व जाजर देवल के बीच में बुंगा गाँव विद्यमान है। इस गाँव के खेतों के मध्य एक छोटा टीला है, जिसे बुंगा कहते हैं। गाँव के सिरे में कोट है जिसे कोट कहते हैं।
सीराकोट
डीडीहाट से सीराकोट समुद्र तल से लगभग 1800 मी. की ऊँचाई पर है। यहाँ पर मलेनाथ का मन्दिर है। चार-पाँच धर्मशालाएँ हैं। यह कोट तीन ओर से प्रकृति प्रदत्त तथा एक ओर से मानव निर्मित है। यह समतल से लगभग 800 मीटर की ऊँचाई में विद्यमान है। यह स्थान छनपाटा नौली के नाम से जाना जाता है। इस गिरी दुर्ग में पाँच परकोटे बने हैं। इससे लगभग 25 मी. की ऊँचाई में समतल स्थान के साथ-साथ यह मुख्य टीले से लगभग 200 मीटर नीचे है। यही से दूसरी दीवार निर्मित है परन्तु इस परकोटे में सन्तरी हेतु कक्ष नहीं बने हैं। पुराने महल के प्रस्तर खण्ड यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। यहाँ पर दो ओखल हैं। इसके अतिरिक्त तीसरी दीवार भी इसी तरह की बनी है। इस प्रकार प्रत्येक दीवार की माप (मो. x चौ. x ऊँ) .72 x .90 x 6 मी. है। कोट में चढ़ने एवं उतरने केलिए बड़े-बड़े प्रस्तर खण्ड़ों से गेट व सीढ़ियाँ बनाई गई हैं।
वर्तमान समय में मन्दिर जाने के लिए तीन द्वार बनाए गए हैं। भैंरो देवता मन्दिर के पास दूसरा द्वार है। सीराकोट के पूर्वी भाग राजकोट विद्यमान है। यह स्थल पैदल यात्रा पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक 500 मी. की उतार-चढ़ाव परन्तु हवाई दूरी 50 मी. भी नहीं है। भैंरो देवता मन्दिर से जुड़ा स्थल राजकोट के लिये रास्ता है। यहाँ सुरंग भी बनी है। इस सुरंग का सम्बन्ध सीधे छानपाटा नौला से था। सुरंग अब दब चुकी है। राजकोट में मकानों के अनगढ़ प्रस्तर खण्ड यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। चन्द राजा रुद्र चन्द्र के सेनापति पुरुख पन्त तीन बार राजा हरिमल्ल से परास्त हो गया। उसने दृढ़ संकल्प लेकर इसी छानपाटा नौली में साधु वेश धारण कर सीराकोट की पूरी सूचनाएँ एकत्रित कर राजा के सिपाहियों को अपने विश्वास में लेकर सीराकोट में जाने वाला पानी का मूल स्रोत ही खत्म कर दिया। सीराकोट में पानी व राशन न मिलने से हाहाकार मच गया और राजा हरिमल्ल में आत्मसमर्पण कर लिया।
राजकोट
यह खेतार गाँव के पूर्वी भाग में विद्यमान है। तराश कर बनाया गया है। अण्डाकार कोट के उत्तरी भाग में लगभग 200 मीटर की दूरी में एक लम्बी पहाड़ी है। इस कोट अथवा पहाड़ी से रौतिस नदी तक जाने हेतु सुरंग बनी है। सुरंग के वर्तमान समय में दो जाले मौजूद है। आपातकाल के समय इसी सुरंग से आना-जाना बना रहता होगा। यहाँ से सीराकोट सामने दिखाई देता है।
सुवालेख
अर्जुनी नदी के किनारे व सुवालेख गाँव के पश्चिमी भाग में एक छोटा टीला युक्त कोट है। यह कोट तीन ओर से प्रकृति प्रदत्त तथा एक ओर से मानव निर्मित है। अर्जुनी नदी ने इसे अर्द्धगोलाकार में घेरा है।
मुसी कोट
बड़ल और मुसगाँव के मध्य में मुसीकोट विद्यमान है। यह टीला युक्त अण्डाकार कोट दो ओर से प्रकृति प्रदत्त तथा दो ओर से मानव निर्मित है। इस कोट से दो किमी. तक हरनन्दिनी नदी के घटगाड़ (ग्राम-दन्तोली की सीमा)तक बड़े-बड़े शिलाखण्डों से दीवार/खुटकनी का निर्माण किया गया है। इसी तरह की खुटकनी बागेश्वर के मोहाली क्षेत्र में पुंगर नदी से धौभिड़ा बिरखम तक बनी हैं परन्तु वहाँ की लम्बाई लगभग पाँच सौ मीटर के करीब है। हरनन्दिनी से घटगाड़ तक जो सीढ़ियाँ बनी थी इसके लगभग चार सौ मीटर की दूरी में एक बहुत बड़ा चबूतरा है। इस दो किमी. की दूरी के मध्य में एक गाँव के बसने से लगभग डेढ़ किमी. तक की दीवार खत्म हो चुकी है। अब मात्र चार सौ मीटर तक शिनाख्त बची है।
कार्की कोट
रामगंगा के नदी के किनारे कार्की गाँव के पश्चिमी भाग में टीला युक्त कार्की कोट है। वर्तमान समय में चीड़ का घना जंगल विद्यमान है। इस कोट में भी सुरंग व पानी हेतु कुण्ड बना है। सुरंग अब बन्द हो चुका है, लेकिन कुण्ड मौजूद है।
बाँस कोट
रामगंगा नदी के पूर्व में बाँस गाँव में एक ऊँचा टीला विद्यमान है। यह टीला दो ओर से प्रकृति प्रदत्त और दो ओर से मानव निर्मित है। कोट के चारों ओर देखा जा सकता है। गोलाकार कोट के दक्षिण पश्चिमी पार्श्व में मोर्चाबन्दी हेतु खाईयाँ हैं। मध्य भाग में दो भवनों के नींव के अवशेष और एक ओखल मौजूद है। कोट का सम्बन्ध केवल इसी क्षेत्र तक सीमित नहीं था बल्कि इसका राम गंगा नदी के पार बुरसुम कोट, बहिलकोट व अन्य कोटों से सम्बन्ध था।
जतिया कोट
गंगोलीहाट तहसील के अन्तर्गत जतियाकोट दो नदियों के संगम स्थल न बाँस पठान गाँव के उत्तर पूर्वी भाग मेें विद्यमान है। यहाँ देवी मन्दिर स्थापित किया गया है। यह कोट तीन ओर से प्रकृति प्रदत्त तथा एक ओर से मानव द्वारा निर्मित था। कोट में एक लम्बी सुरंग भी है जिसका सम्बन्ध सीधे नदी से था। वर्तमान मेें कुछ वर्ष पूर्व सड़क मार्ग बनने से सुरंग कट गई तथा कुछ बन्द पड़ी है।
मणिकोट
गंगोलीहाट से लगभग दो किमी. की दूरी में मणिकोट, एक ऊँचे टीले में दो गधेरों व एक नदी के शिखर भाग में निर्मित है। कोट तीन ओर प्रकृति प्रदत्त तथा एक ओर मानव निर्मित है। वर्तमान में इस परिसर में एक शिवालय है। जिसके गर्भगृह में प्रस्तर प्रतिमाएँ रखी गई हैं। कोट मेें विद्यमान अलंकृत शिलाखण्ड़ो को लगभग 90 के दशक में ग्रामीण रोजगार योजना के तहत स्थानीय ग्रामीणों ने अपने खड़ंजा मार्ग निर्माण हेतु उपयोग किया गया। कोट में मृदभाण्ड भी मिले हैं।
बनकोट
गंगोलीहाट तहसील के अन्तर्गत वर्तमान बनकोट गाँव के शिखर भाग में टीला युक्त कोट बनकोट विद्यमान है। यह कोट 1990 के दशक में तब चर्चा में आया जब भवन निर्माण हेतु चट्टान से पत्थरों को निकालते समय चट्टान के नीचे सात ताम्रमानवाकृतियाँ प्राप्त हुई, जिनको प्रकाश में लाने का श्रेय प्रो.महेश्वर प्रसाद जोशी को जाता है।
रौता कोट
सरयू नदी के पूर्वी भाग में विद्यमान वर्तमान रौतासेरा के शिखर भाग में रौताकोट एक टीले में स्थित है। इसे चारों ओर से चट्टान को तराश कर बनाया गया है। इस कोट के मध्य में मकानों की नींव व इर्द-गिर्द मृदभाण्ड भी मिलते हैं।
बहिल कोट
गंगोलीहाट व रामगंगा के मध्य में बहिलकोट विद्यमान था। इसी कोट के दक्षिणी पार्श्व में एक ग्रामीण कोट भी विद्यमान था। परन्तु अब दोनों खत्म हो चुके हैं।
अस्कोट
अस्कोट को अस्सी कोटों से जोड़ा जाता है। इस कोट के अन्तर्गत अस्सी कोट आने से इसे अस्कोट कहा गया। यह टीला युक्त व भवनीय कोट है। इसमें राजा रहता था, परन्तु सैनिक चारों ओर से राजा की रक्षा अन्य टीले युक्त कोटों से करते थे। इस कोट के अन्तर्गत अस्सी कोट निम्नवत हैं-बनकोट, बलुवाकोट, मदकोट,ख्वॉकोट,सुनकोट, विजयकोट, ऊँचाकोट,रानीकोट,मासीकोट, हंसिकोट, धारचूला, कोट, तिमिरकोट, बिजुलकोट, छिपुलाकोट, लुरकोट, बाराकोट, तमकोट, धौलकोट, लखनपुरकोट, वर्तियाकोट, रौलकोट, रैकोट, अमकोट, उत्तमकोट, बसकोट, पारकोट, भुरीकोट, पत्थरकोट, भैंसकोट, दमकोट, नानुरकोट, मुनकोट, कैंड़ाकोट, सुंगरकोट, बामकोट, जारकोट, सैकोट, भड़कोट, तड़कोट, जयकोट, पसियाकोट, छैमणकोट, अभयकोट, खीराकोट, मरियाकोट, रणुवाकोट, केसरकोट, सुनकोट, धूमाकोट, लूकोट, कोटाकोट, जुबलीकोट, चौकोट, डूमाकोट, धवॉरियाकोट, शिखरकोट, सीमियाकोट, धौलाकोट, ड्योड़ीकोट,बैड़ाकोट, दम्दाकोट, निसीलकोट, श्रीकोट, दुलकोट, कनियाकोट, दरकोट, कल्लाकोट, ध्वजकोट, साईकोट, डुमरकोट, भंगिरकोट, कैलकोट, लछीकोट, मल्लाकोट, हिलूकोट, पारकोट, रौलकोट, ख्वॉकोट, पीपलकोट, जसकोट आदि हैं। धारचूला तहसील के अन्तिम गाँव कुटी में भी एक किले के खण्डहर हैं।
किलों के प्रबन्धन में मोर्चाबन्दी, जल प्रबन्धन, प्रस्तर हथियार, संचार व्यवस्था, चबूतरा,चौतर, चौड़ आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है पर लेख को संक्षिप्त रूप देने के लिये इस पक्ष को छोड़ा जा रहा है।
2.ग्रामीण कोट
ग्रामीण कोट गाँव के बीच में होते थे। इसका प्रधान गाँव का सयाना, बूढ़ा या थोकदार होता था। कहीं पर इन कोटों को राजखली, देवचौरा, बुंगा एवं कोट भी कहते हैं। वर्तमान में इस स्थल का प्रयोग धार्मिक सामाजिक एवं सामूहिक कार्य सातों-आठों, जन्मोत्सव, बारात, जागर, घटेली, स्थानीय बच्चों के खेलने आदि की व्यवस्था हेतु किया जाता है। परन्तु अतीत में राजा के दीवानों एवं प्रधानों द्वारा राजकर मालगुजारी, जनता सम्बोधन भी इन्हीं स्थानों पर बैठकर किया जाता था। आपातकाल के समय ग्रामीण जन एकत्रित होकर अपने गाँव की सुरक्षा के साथ-साथ लड़ाई की भी तैयारी करते थे। बग्वाल (देवीधूरा) तथा ओढ़ा भैट (चमदेवल, मासी, बग्वाली पोखर, द्वाराहाट व अन्य स्थानों में यह परम्परा जारी है) का सम्बन्ध भी ग्रामीण कोटों से होता था। कुमाऊँ में कुछ ऊँची की हुई भूमि (टीला युक्त) को बुंगा कहा जाता है। जैसे बोरा गाँव का बुंगा,जाजल देवल का बुंगा, कण्डारीछीना का बुंगा, कर्णकरायत का बुंगा आदि दर्शनीय थे। प्राकृतिक प्रकोपों से इन बुंगों के मात्र ध्वंसावशेष ही मिलते हैं। इनकी रचना कोटों की तरह होती थी।
3.भयनीयकोट
प्रत्येक गाँव में जहाँ विशेषकर सयाना, बूढ़ा, चौधरी, थोकदार, अधिकारी एवं नेगी अधिकारी होता था,वहाँ अवश्य ही भवनीय कोट देखने को मिलते हैं। इन भवनीय कोटों में लकड़ी एवं बड़े प्रस्तरों का प्रयोग किया गया है ये कोट भवन एक मंजिले से लेकर तिमंजिले बनाए गए है। इन्हें गाँव के बीच ऊँची जगह या टीलों में स्थान दिया गया है। इन भवनीय कोटों में चाहर दीवारी, प्रवेश एवं निकास द्वार बने है। इन भवनों में 10 व 15 कक्ष से लेकर 55 और 60 कक्ष तक बने है। छत लकड़ी व सलेटों की बनी है। लकड़ी सादी व मोटी है। इसमें कोई भी काष्ठ कला देखने को नहीं मिलती है। दरवाजे भी छोटे होते थे। ढकने के लिए तखत का आन्तरिक भाग बेडौल होता था। इसमें कहीं पर भी लोहे के एगिल/संगला आदि का प्रयोग नहीं हुआ है। तखत के पृष्ठ भाग में छिद्रान्वेष कर उसी की लकड़ी के आगल का प्रयोग किया जाता था। खिड़कियाँ बहुत छोटी है। अन्दर अलमारी की जगह घरुवा बने हैं, जिन्हें खोलने एवं बन्द करने के लिए सटरनुमा लकड़ी के ही तखत बनाए गए हैं। इन भवनों में देवदार, तुन एवं साल की लकड़ी का अधिक प्रयोग किया गया है। चीड़ की लकड़ी का प्रयोग नहीं के बराबर है। ये कोट आपातकाल के समय ग्रामीणों की रक्षा के लिए एवंं सामान्य समय में बड़े अधिकारियों का आवास होते थे।
वर्तमान समय में टकाड़ी, दन्तोली, चैंसर, भद्रिका, कुशैल, गंगोली, डुंगरीपन्त, डुॅगरा, कुमौड़, मरसोली, राजपुरा, मादली, ढकना, लोहाकोट, बहिलकोट, चौडयार, चौड़मन्या, ताक खण्दक आदि मेें ये कोट हैं। जीर्णोंद्वार न होने से लुप्तता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त ऊँचे किले में विद्यमान भवनीय कोटों की लम्बाई व ऊँचाई अधिक नहीं है। यदि इनकी नींव को देखा जाए तो लगभग 3 फीट से अधिक गहराई नहीं है। दीवारों की चौड़ाई लगभग 3 फीट के करीब मेें मिलती जुलती है। खण्डहर हो गए ये कोट अपने सुरक्षा की बाट जोहे खामोश खड़े है।
ताम्र पत्रों मेें कोट एवं गाँव का उल्लेख |
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राज्य का नाम |
ग्राम |
शाके |
सन् |
सम्बन्धित कोट/गाँव |
राजवंश |
ज्ञान चन्द |
सेलौनी गाँव |
1342 |
1420 |
खड़कोट |
चंद |
तिलक पाल |
बचकोट |
1343 |
1421 |
बचकोट |
पाल |
कल्याण मल |
अलगड़ा |
1365 |
1443 |
कालकोट |
मल्ल |
भारती चंद |
बड़ालू |
1359 |
1437 |
बर्तियाकोट |
चंद |
कीर्ति चन्द |
अल्मोड़ा |
1425 |
1513 |
पत्राकोट एवं गगसरा कोट |
चंद |
भीष्म चन्द |
किम्वाड़ी |
1434 |
1512 |
बिग्राकोट |
तदैव |
कल्याण पाल |
बचकोट |
तिथि विहीन |
बचकोट |
पाल |
|
कल्याण पाल |
बचकोट |
1525 |
1603 |
बचकोट सरो कुडो रौेल्योकोट |
पाल |
महेन्द पाल |
ऊँचा कोट |
1545 |
1623 |
बाराकोट |
तदैव |
बाजबहादुर चन्द |
मठ गाँव |
1576 |
1654 |
ईडीआ कोट |
तदैव |
बाज बहादुर चन्द |
बुंगा गाँव |
1596 |
1674 |
कणकोट,थर,कोट,सुआकोट |
तदैव |
उद्योत चन्द |
बड़ालू |
1605 |
1683 |
मूड़ाकोट |
तदैव |
जगत चन्द |
कोटभ्रामरी देवी |
1634 |
1712 |
कोपालकोट |
तदैव |
कल्याण चन्द |
बलेश्वर |
1655 |
1733 |
राजबुंगा |
तदैव |
कल्याण चन्द |
कनलगाँव |
1659 |
1737 |
लखनऊ |
तदैव |
कल्याण चन्द |
कोटे की गाड़ |
1661 |
1739 |
कोट की गाड़ |
तदैव |
कल्याण चन्द |
बनौली |
1669 |
1747 |
कोट गाँव |
तदैव |
कल्याण चन्द |
मढ़गाँव |
1613 |
1691 |
जड़िया कोट |
तदैव |
उक्त ताम्र पत्रों का सन्दर्भ डॉ.मदन चन्द भट्ट, प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी, डॉ. राम सिंह, राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा एवं स्वयं मेरे संकलन से लिया गया है। मैं उक्त सभी का आभारी हूँ।
सन्दर्भ
1-2.डबराल शिव प्रसाद, 1980, उत्तराखण्ड के अभिलेख एवं मुद्रा, वीरगाथा, दोगड्डाः48-49
3. एपिग्राफिका इंडिका, 1972, प्रकाशन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, भाग 1ः151
4.शुक्र निति,1930,(सं.) मिहिर चन्द पण्डित, अध्याय-4,प्रश्न 6, श्लोक 1-5, मुम्बई
5.भट्ट, मदन चन्द्र, 1986, पिथौरागढ़ संस्कृति और पुरातत्व, अंक 1ः33; चौहान, चन्द्र सिंह, ताम्रपत्र एक अध्ययन (संकलन अप्रकाशित) :22
6.चौहान,चन्द्र सिंह,ताम्रपत्र एक अध्ययन (संकलन अप्रकाशित):19
7.लाल श्याम, 1992, पिथौरागढ़ का इतिहास:9 ; चौधरी, दीप चन्द्र, 1985, अस्कोट का पाल राजवंशः एक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनः 7 ; जोशी, आशा,2000, पिथौरागढ़ का इतिहास, नई दिल्लीः68
8.चौहान, चन्द्र सिंह, 2004, पिथौरागढ़ का किला, पर्वत पीयूष, पिथौरागढ़ः20-21
9. एटकिसन, ई.टी.,1973, हिमालियन गजेटियर, दिल्लीः644
10.पाण्डे,बदरी दत्त,1990, कुमाऊँ का इतिहास, अल्मोड़ा बुक डिपोः277
11.सक्सेना, कौशल किशोर,1999, उत्तराखण्ड के दुर्ग, पुरवासीः109
12.चौधरी, दीप चन्द्र, 1992, अस्कोट का पाल राजवंशःएक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनः45-46
13.सिंह राम, 2007, सोर (मध्य हिमालय) का अतीतः 477-478
14.भट्ट, मदनचन्द्र, 2004, गोरखा किला, कत्यूरी प्रकाशन, अल्मोड़ाः5
15.चौहान, चन्द्र सिंह, 2004, पिथौरागढ़ का किला, पर्वत पीयूषः20-21
16.शर्मा, पी.सी., 1992, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की एक रिपोर्ट के अनुसार
17. चौहान, चन्द्र सिंह, सिराकोट का मल्ल राजवंश एक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन,अप्रकाशित शोध ग्रन्थ, कु.वि.वि,; कुमाऊँ में सैन्य परम्परा,2003, आज का पहाड़ः9-10;चौहान, चन्द्र सिंह, 2001, परम्परागत जल व्यवस्था, पर्वत पीयूषः30-31
18.चौधरी, दीप चन्द्र,1985, अस्कोट का पाल राजवंशः एक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक अध्ययनः29-30