वनाग्नि से पर्यावरण व जैव विविधता को बड़े पैमाने पर हो रहे नुकसान को रोकने के लिए कुछ नई संभावनाओं की तलाश चल रही है। इसमें क्लाउड सीडिंग बड़ी संभावनाओं के रूप में दिख रहे है। वनाग्नि प्रभावित क्षेत्रों में बादल ले जाकर कृत्रिम बारिश कराके जंगलों को आग से बचाया जा सकता है। तमिलनाडु व कर्नाटक इसका प्रयोग कर चुके हैं और इस पर तब एक दिन की बारिश का खर्च 18 लाख रूपए आया था।
प्रमुख वन संरक्षक जयराज ने बताया कि सउदी अरब के साथ इसकी बात चल रही है। वहां क्लाउड सीडिंग का प्रयोग सफल रहा है। वन विभाग इस पर बात कर रहा है। इसमें आने वाले खर्च पर बात चल रही है। जयराज ने बताया कि खर्च को लेकर यदि बात बन गई तो अगले फायर सीजन में इसका प्रयोग किया जाएगा। क्लाउडिंग सीडिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बादलों को एक खास इलाके में ले जाया जाता है और उसके बाद केमिकल डालकर बारिश कराई जाती है।
क्या है क्लाउड सीडिंग?
क्लाउड सीडिंग उस प्रक्रिया को कहा जाता है, जिसमें कृत्रिम तरीके से बादलों को बारिशों के अनुकूल बनाया जाता है। क्लाउडिंग सीडिंग के लिए आसमान में बादल होना जरूरी है। इन पर सिल्वर आयोडाइड या ठोस कार्बन डाईआक्साइड को छोड़ा जाता है। इस प्रक्रिया में बादल नमी सोखते हैं और बारिश होने लगती है।
वैज्ञानिकों ने क्लाउड सीडिंग या मेघ बीजन का एक तरीका यह इजाद किया है। जिससे कृत्रिम वर्षा की जा सकती है। कृत्रिम वर्षा ड्रोन तकनीक के माध्यम से कर सकते हैं। यह ड्रोन किसी भी इलाके के उपर सिल्वर आयोडाइड की मदद से आसमान में बर्फ के क्रिस्टल बनाता है जिससे कृत्रिम बारिश होती है। इस तकनीक का उपयोग केवल वर्षा कराने के लिए ही नहीं किया जाता है, बल्कि इसका प्रयोग ओलावृष्टि रोकने और धुुंध हटाने में भी किया जाता है।
ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी यूरोप में यह काफी सफल रहा है। ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी यूरोप में ओलावृष्टि काफी अधिक मात्रा में होती है, इसीलिए वहां इस तकनीक का उपयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है। इससे यहां फसलों व फलों को होने वाले नुकसान को रोकने में काफी हद तक मदद मिली। इस तकनीक से हवाई-अड्डों के आस-पास छाई धुंध को हटाया जा सकता है। वर्तमान में विज्ञान का एक यह अविष्कार अच्छा वदान साबित हो रहा है।
वर्षा कराने के लिए इस तकनीकी से वाष्पीकरण कराया जाता है जो शीघ्रता से वर्षा की बड़ी-बड़ी बूंदों में परिवर्तित हो जाते हैं। इसके लिए बादलों में ठोस कार्बन डाइआक्साइड, सिल्वर आयोडाइड और अमोनियम नाइट्रेट और यूरिया से मुक्त द्रावक प्रयोग में लाये जाते हैं। इसे धरती की सतह या आकाश में बादलों के बीच जाकर भी किया जा सकता है। भारत में इसका प्रयोग 1983 में तमिलनाडु सरकार ने किया था। अनुभव बताते हैं कि किसी क्षेत्र में बारिश करवाने के लिए एक दिन का 18 लाख रुपए का खर्च आता है। तमिलनाडु की तर्ज पर कर्नाटक सरकार ने भी इस विधि से बारिश करवाई थी। कुछ स्थानों पर सिल्वर आयोडाइड की जगह कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग भी इसके लिए किया जाता है।