उत्तराखंड प्राकृतिक सौंदर्य और प्राकृतिक संसाधन का खजाना। जहां से कई नदियां निकलकर मैदानी क्षेत्रों में जाती हैं। लेकिन जब उत्तराखंड में ही पानी की किल्लत हो रही हो तो समझा जा सकता है कि जल संकट किस हद तक हावी है। उत्तराखंड में ही कई नदियां और तालाब सूख रहे हैं। नारसन क्षेत्र के खेड़ा जट गांव का सैकड़ों वर्ष पुराना ‘गुहा’ तालाब अब लुप्त होने की कगार पर है। लगातार अतिक्रमण और प्रदूषण की वजह से ये तालाब अपना अस्तित्व खो रहा है। आखिरी बार इस तालाब की सफाई वर्ष 1982 में की गई थी। उसके बाद से इस तालाब को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
उत्तराखंड का सबसे दुखद पहलू यह है कि प्राकृतिक जल स्रोतों से परिपूर्ण है लेकिन कभी भी इन प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण की जहमत नहीं उठाई गई। सरकार हो या सरकार के नुमाइंदे मंचों से प्राकृतिक जल स्रोतों को बचाने के दावे तो हर कोई करता नजर आता है लेकिन जब जामीन पर अमलीजामा पहनाने की बारी आती है तो नतीजा शून्य होता है। राज्य गठन के उपरांत कुछ विभागों ने वर्षा जल संरक्षण की कई योजनाओं पर कार्य किया लेकिन भ्रष्टाचार की धूप ने योजनाओं के साथ ही स्रोतों को भी सुखा दिया।
एक समय पर गुहा तालाब की पूजा की जाती थी, तालाब के आसपास का क्षेत्र साफ-सथुरा भी रहता था। तालाब पर कई सालों से ध्यान नहीं दिया गया है जिसकी वजह से अब यहां पूजा करने कोई नहीं आता है। गंदगी की वजह से तालाब से दुर्गंध आती है जहां खड़ा होना तो दूर पास से गुजरना भी दूभर हो जाता है। प्रशासन इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया थे कि तालाब को 1962 के स्वरूप में लाया जाए, उन पर जो अतिक्रमण हुआ है उसको हटाया जाए। उसके बाद से प्रशासन सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर कार्रवाई कर रहा है, अब क्षेत्र में बड़ी संख्या में तालाब लुप्त हो चुके हैं।
गांव के तालाब की बात की जाए तो मुगलिया सल्तनत में वर्ष 1362 के बंदोबस्त रिकॉर्ड में इस तालाब का जिक्र है। तब यह तालाब 38 बीघा का था और इस तालाब की पूजा होती थी। कपड़े धोने से लेकर सिंचाई और जानवरों के लिए इसी तालाब के पानी का इस्तेमाल किया गया। आजादी के बाद वर्ष 1962 में चकबंदी हुई तो इस तालाब का क्षेत्रफल 28 बीघा रह गया। गांव के नौजवान बताते हैं कि उनके बुजुर्ग बताते हैं कि एक समय में इस तालाब की पूजा होती थी। इस तालाब के पानी से खेतों की सिंचाई होती थी। इसके साथ ही कपड़े धोने से लेकर दूसरे काम इसी तालाब के पानी से होते थे। अब ये तालाब कूड़दान बनता जा रहा है, इसके पानी से दुर्गंध उठ रही है। वर्ष 1982 में इस तालाब की सफाई की गई थी। उसके बाद तालाब उसके हाल पर छोड़ दिया गया, आज गांव का जलस्तर भी तेजी से नीचे गिर रहा है।
ग्राम प्रधान पूनम देवी का कहना है कि गांव का यह बड़ा तालाब बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इस तालाब के जीर्णोद्वार के लिए प्रस्ताव भेजा जा चुका है लेकिन अभी तक बजट नहीं मिल पाया है। ग्राम प्रधान पूनम देवी का ये भी कहना है कि तालाब की सफाई के लिए मशीन चाहिए ताकि तालाब के अंदर जमा सिल्ट को निकालकर दूसरी जगह डाला जा सके, इसके लिए बजट चाहिए। यदि बजट नहीं मिलता है तो श्रमदान से ही तालाब को ठीक करने का प्रयास किया जाएगा लेकिन श्रमदान से तालाब के अंदर की सफाई करना मुश्किल है।
जंगल में तालाब
उत्तराखंड का सबसे दुखद पहलू यह है कि प्राकृतिक जल स्रोतों से परिपूर्ण है लेकिन कभी भी इन प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण की जहमत नहीं उठाई गई। सरकार हो या सरकार के नुमाइंदे मंचों से प्राकृतिक जल स्रोतों को बचाने के दावे तो हर कोई करता नजर आता है लेकिन जब जामीन पर अमलीजामा पहनाने की बारी आती है तो नतीजा शून्य होता है। राज्य गठन के उपरांत कुछ विभागों ने वर्षा जल संरक्षण की कई योजनाओं पर कार्य किया लेकिन भ्रष्टाचार की धूप ने योजनाओं के साथ ही स्रोतों को भी सुखा दिया। नतीजा कोटद्वार ही नहीं पूरे पहाड़ में लगातार पेयजल संकट गहरा रहा है और सरकारी तंत्र वैकल्पिक व्यवस्थाओं से पेयजल आपूर्ति में जुटा है।
मानव बस्तियों में भले ही वैकल्पिक व्यवस्था से पानी का प्रबंध हो रहा हो, लेकिन वन क्षेत्रों में रहने वाले बेजुबानों के लिए पानी की यह किल्लत किसी अभिशाप से कम नहीं। हालात यह हैं कि पानी की तलाश में जानवर जंगल छोड़ बस्तियों की ओर आ रहे हैं। कोटद्वार की ‘वाॅल आॅफ काइंडनेस’ संस्था ने इसी को देखते हुए जंगल में तालाब बनाने की मुहिम शुरू की है। पिछले एक वर्ष में इस संस्था ने लैंसडौन वन प्रभाग के कोटद्वार और दुगड्डा रेंज के जंगलों में दस तालाब बना चुकी है, जिनमें जानवर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। पहाड़ की तलहटी पर बसा है गढ़वाल का प्रवेश द्वार ‘कोटद्वार’।
ऐसे हुआ काम
उत्तराखंड राज्य गठन से पूर्व क्षेत्र में बहने वाली खोह, सुखरो, मालन और कोल्हू नदियों से क्षेत्र में पेयजल आपूर्ति होती थी। जब राज्य बना तो पेयजल की नई योजनाओं के रूप में हैंडपंप और नलकूप क्षेत्र की जनता के सामने आए। नतीजा, क्षेत्र में जितने भी प्राकृतिक जल स्रोत थे, वे सूखते चले गए। परिणाम मानव जाति के लिए भले ही पानी की व्यवस्था हो गई, लेकिन वनों में रहने वाले जंगली जानवर पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आने लगे और मानव-वन्यजीव संघर्ष की संभावनाएं भी बढ़ती चली गई। वन महकमे की ओर से क्षेत्रों में छोटे-छोटे तालाब बनाकर इन तालाबों को टैंकरों से भरने की व्यवस्था की गई लेकिन ये व्यवस्था वैकल्पिक ही साबित हुई। गर्मियों का मौसम शुरू होते ही जानवरों ने बस्तियों की ओर आना शुरू कर दिया।
इस संस्था के सदस्य मनोज नेगी बताते हैं कि उनकी टीम ने प्राकृतिक स्रोतों के आसपास साफ-सफाई का स्रोत को पुनर्जीवित किया है। जब स्रोत से पानी निकलने लगा तो समीप ही करीब चार फीट गहरा तालाब खोदा गया। उन्होंने बताया कि प्राकृतिक स्रोत का पानी तालाब में पहुंच रहा है, जिससे तालाब भर रहे हैं और वन्यजीवों को जंगल में ही पानी मिल रहा है।