कुंज कुटीरे यमुना तीरे

Submitted by admin on Mon, 07/22/2013 - 12:14
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काव्य संचय- (कविता नदी)
पगली तेरा ठाट! किया है रतनांबर परिधान,
अपने काबू नहीं, और यह सत्याचरण विधान!

उन्मादक मीठे सपने ये, ये न अधिक अब ठहरें,
साक्षी न हों, न्याय-मंदिर में कालिंदी की लहरें।

डोर खींच, मत शोर मचा, मत बहक, लगा मत जोर,
माँझी, थाह देखकर आ तू मानस तट की ओर।

कौन गा उठा? अरे! करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?
इसी कैद के बंदी हैं वे श्यामल-गौर-शरीर।

पलकों की चिक पर हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,
निःश्वासें पंखे झलती हैं उनसे मत गुंजारे;

यही व्याधि मेरी समाधि है, यही राग है त्याग;
क्रूर तान के तीखे शर, मत छेदे मेरे भाग।

काले अंतस्तल से छूटी कालिंदी की धार
पुतली की नौका पर लाई मैं दिलदार उतार,

बादबान तानी पलकों ने, हा! यह क्या व्यापार?
कैसे ढूँढूँ हृदय – सिंधु में छूट पड़ी पतवार!

भूली जाती हूँ अपने को, प्यारे, मत कर शोर,
भाग नहीं, गह लेने दे, अपने अंबर का छोर।

अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं, हुई बड़ी तकसीर,
धोती हूँ; जो बना चुकी हूँ पुतली में तसवीर;

डरती हूँ, दिखलाई पड़ती तेरी उसमें बंसी,
कुंज कुटीरे, यमुना तीरे तू दिखता जदुबंसी।

अपराधी हूँ, मंजुल मूरत ताकी, हा! क्यों ताकी?
बनमाली हमसे न धुलेगी ऐसी बाँकी झाँकी।

अरी खोदकर मत देखे, वे अभी पनप पाए हैं,
बड़े दिनों में खारे जल से, कुछ अंकुर आए हैं,

पत्ती को मस्ती लाने दे, कलिका कढ़ जाने दे,
अंतरतर को, अंत चीरकर, अपनी पर आने दे,

हीतल बेध, समस्त खेद तज, मैं दौड़ी आऊँगी,
नील सिंधु-जल-धौत चरण पर चढ़कर खो जाऊँगी।

मथुरा से खण्डवा जाते हुए रेल में, ‘हिमकिरीटिनी’ 1934 में संकलित