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‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
हम लोग महसूस कर चुके हैं कि अभिजात्य वर्ग के पास योजना है हमसे अधिक से अधिक लूटना, हमारे सस्ते श्रम को, हमारे प्राकृतिक संसाधनों को, अपने उत्पादों को हमें उभोक्ता बनाकर। इनकी योजना है हमसे लूटी गई चीजों को लाभ या पैसे में ब दलना। हमें इसे भी महसूस करना चाहिए कि इनके योजना में हमलोग कहीं भी नहीं हैं। दैनिक जागरण द्वारा प्रस्तावित विषय ‘खनन नीति का जनपक्ष’ पर सोचने के दौरान ‘जन’ शब्द पर गम्भीरता से सोचा और विचार किया कि क्या जन के दायरे में आदिवासी व अन्य खनन प्रभावित समुदाय आते हैं या नहीं। इसके बाद मेरे दिमाग में फिल्म की तरह कुछ तस्वीरें उभरने लगीं – हजारों मजदूरों की हड़तालें, छात्रों का जुझारू संघर्ष, नक्सलवादी आन्दोलन व भूमिगत नेटवर्क, वह सब कुछ जो इमरजेंसी के दौरान भारत में घट रहा था। वह इमरजेंसी तो कुछ समय बाद हटा लिया गया, परन्तु मैंने महसूस किया कि उसके पहले भी आदिवासी व अन्य खनन प्रभावित समुदाय पर इमरजेंसी लगी थी, जो अब भी जारी है।
एक कहानी कुंती उरांव की : इमरजेंसी के दौरान 1976 में जाड़े का एक दिन, डंगवापोसी रेलवे स्टेशन पर मैं खड़ा था। यहाँ से चाईबासा जाना था। यह रेलवे स्टेशन झारखंड के प. सिंहभूम के अंतर्गत आता है और टाटा-गुआ रेलवे मार्ग पर स्थित है। टाटा-गुआ रेल लाइन को लौह अयस्क और चूना पत्थर की ढुलाई के लिये बिछाया गया था। पहले इस रेलमार्ग से दुर्गापुर और जमशेदपुर के स्टील प्लांटों तक खनिज पहुँचाया जाना था। लेकिन, अब देश के अन्य स्टील प्लांटों को ही नहीं, चीन और कोरिया को भी यह रेलमार्ग अपनी सेवाएँ प्रदान कर रहा है। उस समय यह रेलमार्ग 75 लाख रुपये प्रतिदिन कमाकर भारतीय रेल सेवा को देता था।
डंगवापोसी रेलवे स्टेशन से मैं पैसेंजर ट्रेन पर चढ़ा और उसने गति पकड़ ली। एकाएक मैंने देखा कि कोयले से भरी टोकरी लादे एक महिला उस पर चढ़ने की कोशिश कर रही है। लेकिन, वह चढ़ नहीं सकी और गिर पड़ी, क्योंकि एक पुलिस का जवान उसे पीछे से खींच रहा था। गिरी, तो फिर वह नहीं उठी। उसे ट्रेन काटते हुए चली गई, उसके साथ एक अजन्मा बच्चा भी दुनिया देखने से पहले ही दम तोड़ गया। पुलिस उसे इसलिये खींच रही थी कि वह उसे घूस में एक आना नहीं दे रही थी। वह चाईबासा की आदिवासी बस्ती मेरी टोला की रहने वाली उराँव महिला थी। उसे हम कुन्ती उराँव कहेंगे। वह अपने साथियों, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, के साथ डंगवापोसी रेलवे स्टेशन पर कोयला चुनती थी और ढोकर कोयला व्यवसायियों तक पहुँचाती थी। डंगवापोसी रेलवे स्टेशन पर भाप इंजन की सर्विसिंग होती थी। इस कारण कोयले का वहाँ डम्प होता था और रेल लाइन के दोनों किनारों पर अधजले कोयले बिखरे होते थे। इसी कोयले को चुनकर या चुराकर कुंती उरांव और उसके साथी कोयला व्यवसायियों तक पहुँचाते थे।
दो नम्बरी मार्केट बनाम कुंती : यह कोयला घरेलू उपयोग के ईंधन का महत्त्वपूर्ण स्रोत था। ऐसे तो केरोसिन और सूखी लकड़ियाँ जलावन के लिये उपलब्ध थी। लेकिन, केरोसिन शहर के बड़े लोगों के काम आता था और सूखी लकड़ियों से गाँव के लोग अपना खाना पकाते थे। केरोसिन के सरकारी डिपो और दुकानों में हमेशा आउट ऑफ स्टॉक का बोर्ड लगा रहता था। इस बोर्ड का अर्थ है, एक ब्लैक मार्केट का होना। इस मार्केट को हम ब्लैक मार्केट न कह कर दो नम्बरी मार्केट कहेंगे।
कोयले के इस दो नम्बरी मार्केट में व्यवसायी वर्ग अपने व्यवसाय के अच्छे अवसर देख रहे थे। कोयले के शॉर्टेज का लाभ उठाकर कुंती उरांव जैसे लोगों से वे कोयला जमा कराते और ऊँचे दामों पर बेचते थे। यह काम पूरी तरह अवैध था। कोयला जमा कराने के एवज में वे लोग जितना कुंती उरांव को देते थे, वह रेल के टिकट के लिये भी नाकाफी होते। इस कारण उसे अपने पैसे को टिकट कलेक्टर और रेलवे पुलिस से बाँटने पड़ते थे। इसीलिये तो पुलिस कुंती उरांव को नीचे खींच रही थी, जिसमें उसकी और उसके अजन्मे बच्चे की जान चली गई।
क्यों चुराती थी कोयला : आखिर दो नम्बरी मार्केट को कहाँ से मिलते हैं कुंती उरांव जैसे लोग? यह उनके लिये कठिन काम नहीं है। इसे हम तब समझेंगे, जब भारतीय अर्थव्यवस्था में इनके स्थान की खोज होगी। आइए इसे खोजते हैं। 1947 में मिली आजादी के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था के तहत राष्ट्रीय विकास का मार्ग चुना गया। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह की कम्पनियाँ मिलकर इस काम में लगी थीं।
सार्वजनिक कम्पनी के जिम्मे उस काम को सौंपा गया, जिसके लिये निजी कम्पनियाँ मोटी रकम लगाने के लिये तैयार नहीं थीं, जैसे कि खदान खोलना, स्टील कारखाना लगाना आदि। इसी योजना के तहत राउरकेला, बोकारो और भिलाई का कारखाना स्थापित हुआ। इन परियोजनाओं के लिये काफी जमीनें, पानी, वन – संसाधन और सस्ते मजदूर जरूरी थे।
झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ में ये सारी चीजें बहुतायत थीं। इस कारण इन्हीं क्षेत्रों में परियोजनाएँ स्थापित हुईं। सार्वजनिक कम्पनियाँ भी इनमें लगने वाली रकम को पूरा नहीं खर्च कर रही थीं। वे परियोजना और उसके लिये आधारभूत संरचना को चोरी के माल पर खड़ा कर रही थी। वह चोरी थी, स्थानीय या आदिवासी समुदायों के संसाधनों की चोरी। इस चोरी को वे बराबर छुपाने की कोशिश करते रहे हैं। इसी का परिणाम है कि इस पर कोई नहीं बोलता है। हमें इसके बारे में पूरी चर्चा करनी है। इस तरह से देखा जाए, इस मिश्रित अर्थव्यवस्था की वास्तविक संरचना बनेगी – पब्लिक सेक्टर – प्राइवेट सेक्टर – आदिवासी सेक्टर। ऐसा इसलिये कह रहा हूँ कि इन आदिवासी या स्थानीय समुदायों, जिन्हें हम खनन या उद्योग प्रभावित समुदाय भी कह सकते हैं, उनकी लाखों-लाख आबादी को उनके घर और गाँव से जबरन भगा दिया गया और रातों-रात शरणार्थी बनकर ये आ गए शहर की गलियों में। यहाँ इनका भरपूर शोषण और दोहन हुआ। उनके सामने विकल्पहीन अवसर पैदा हो गए। यह कहीं और दूसरी जगह नहीं, बल्कि अपने ही दिशुम में उन्हें काम करने के लिये बाध्य किया गया, दास-मजदूरों की तरह। इनमें से अधिकांश या तो किसी इलाज लायक बीमारी से मर जाते हैं या फिर धीरे-धीरे भूख से।
हर दिन इमरजेंसी : कुंती उरांव की मार्मिक घटना इमरजेंसी के दौरान घटी, परन्तु इमरजेंसी के कारण नहीं। इस तरह के शोषण तो बहुत ही सामान्य हैं, दुनिया के उस हिस्से में जिसे हम आज झारखंड के नाम से जानते हैं। क्या यही है लोकतंत्र? अगर लोकतंत्र का दावा है कि उस व्यवस्था में सभी लोग समान हैं, तो क्यों झुठला रही कुंती उरांव उस दावे को? हम पूछते हैं कि क्यों कुंती उरांव और उसके अजन्मे बच्चे की मौत इस हालत में हुई? उसे तो अपने पुरखौती गाँव में बेहतर जीवन गुजारना चाहिए था। या फिर जिस परियोजना के लिये उसकी जमीन गई थी, वहाँ पर उसके परिवारवालों को नौकरी-शुदा सुखी जीवन मिलना चाहिए था। इतना ही नहीं, भारतीय कानून के अनुसार उसके परिवारवालों को उन्हें न्याय दिलाने के लिये थाना या अदालत जाना चाहिए। लेकिन, वे क्यों नहीं गए? इतना तो है, अगर वे वहाँ जाते भी तो न्याय मिलना तो दूर उसके एवज में उन्हें दंडित या खत्म कर दिया जाता।
अब सवाल है कि देश का समृद्ध वर्ग क्यों जनता के एक बड़े हिस्से के नागरीय स्वतंत्रता व अधिकार को नकार रहा है। वह इसलिये नहीं कि उनसे प्रेम नहीं करते, बल्कि उनके हित उनसे टकराते हैं। समृद्ध वर्ग कहीं का भी हो, वह चालाक और धूर्त होता है। वह लेना अधिक से अधिक और देना कम-से-कम चाहता है। खनिज, जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के मालिक हैं आदिवासी समुदाय। साथ ही आदिवासी सस्ते मजदूर के झुंड में भी सबसे अधिक हैं। इसीलिये तो सचेतन ढंग से राजसत्ता उनके संवैधानिक अधिकारों और नागरीय स्वतन्त्रता को नकारता है। संक्षेप में कहा जाए, तो हर दिन इमरजेंसी है कुंती उरांव जैसे लोगों के लिये, इसके कई उदाहरण हैं हमारे पास।
क्या नहीं है इमरजेंसी? : आज डंगवापोसी रेलवे स्टेशन पर कोयला चुराने वाले शायद ही मिलेंगे आपको। वहाँ पर तो दिखेंगे सेलफोन से लैस आदिवासी, नजर आएँगी अत्याधुनिक वस्त्रों से लैस लोग, जो मुम्बई फैशन स्ट्रीट में दिखते हैं। कारें और मोटरबाइक की घड़घराहट भी सुनाई देगी। इस मार्ग पर जनशताब्दी सुपर फास्ट एक्सप्रेस भी प्रतिदिन चलती है। उसके एसी कम्पार्टमेंटों में चीनी, कोरियन और अन्य देशों के लोग भी नजर आते हैं। टाटानगर रेलवे स्टेशन पर गौर करेंगे, तो देखेंगे कि टिपटॉप वेटर विशेष रूप से तैयार चाइनीज और कोरियन फूड सर्व कर रहे हैं।
एक प्रश्न है करोड़पति के लिये : 1976 के जिस दिन कुंती उरांव अपने अजन्मे बच्चे के साथ मरी थी, उस दिन से आदिवासी – दलित जनता में सुधार हुआ है। इस प्रश्न को हम सावधानीपूर्क समझते हैं। अगर हम कहेंगे विकास नहीं हुआ है, तो इसका मतलब है कि आदिवासियों को और अधिक सेलफोन, फास्ट ट्रेन और वॉशिंग मशीनें दे देनी चाहिए।
अगर हमारा जवाब है कि विकास हुआ है, तो इसका मतलब है कि सरकार ने आदिवासी – दलितों पर पहले से जारी इमरजेंस उठा ली है, क्योंकि हमलोगों ने खुद को लुटवाने के लिये दरवाजा खोल दिया है। इस प्रश्न में सबसे महत्त्वपूर्ण है कि यह सवाल किसने बनाया और किसकी डिजाइनिंग की है? क्या यह प्रश्न आदिवासी जनता की आकांक्षा को सही तौर से प्रतिबंधित करती है या नहीं।
क्या करें कुन्ती उरांव के वारिस : हम लोग महसूस कर चुके हैं कि अभिजात्य वर्ग के पास योजना है हमसे अधिक से अधिक लूटना, हमारे सस्ते श्रम को, हमारे प्राकृतिक संसाधनों को, अपने उत्पादों को हमें उभोक्ता बनाकर। इनकी योजना है हमसे लूटी गई चीजों को लाभ या पैसे में ब दलना। हमें इसे भी महसूस करना चाहिए कि इनके योजना में हमलोग कहीं भी नहीं हैं।
हम भी उनके उत्पाद हैं, जिसे वे बेच रहे हैं। सच में वे हम सबको बेच रहे हैं, हमारे सभी चीजों के साथ। ऐसे समय में कुंती उरांव के वारिसों को बहुत ही सतर्कता और सजगता से अपने आस-पास घट रही घटनाओं का मूल्यांकन करना होगा। बढ़ना होगा चिन्तन के साथ सामाजिक आंदोलन की ओर। अन्यथा बदहाली, भूख, बीमारी और अन्ततः मौत तो है ही उनके पास।