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‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
राजधानी राँची से 165 किलोमीटर दूर गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का पहाड़ों से घिरा घने जंगलों के बीच एक 400 लोगों का गाँव है-सातो नवाटोली। यहाँ के ग्रामीणों ने यह साबित कर दिखाया कि अगर हौसले बुलन्द हों, दूरदर्शिता हो, सहयोग और श्रम साथ हो तो असम्भव को भी सम्भव बनाया जा सकता है। सातो गाँव आरम्भ से ही पूर्ण रूप से असिन्चित था। यह गाँव जो 100 प्रतिशत कृषक परिवारों का ही निवास था, की कृषि पूर्णरूप से वर्षा पर निर्भर थी। 1947 के बाद से अब तक झारखंड के इलाकों में अरबों रुपये खर्च कर बाँधों वाली बड़ी सिंचाई परियोजनाएँ चलाई गईं। इनसे सिंचाई का क्षेत्र बढ़ने की आशा थी। लेकिन सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत बढ़ने के बजाय घट गया। अंग्रेजी राज में पोखर, आहर, चेक डैम तथा अन्य परम्परागत सिंचाई के साधन तथा जलस्रोत की सालाना साफ-सफाई और मरम्मत का काम स्थानीय जमींदारों तथा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की होती थी। लेकिन आजादी के बाद प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों ने इनकी घोर उपेक्षा की। इनकी साफ-सफाई तथा मरम्मत पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी सिंचाई परियोजनाएँ तो बेकार साबित हुईं ही, परम्परागत जलस्रोतों के समाप्त हो जाने से सिंचाई का क्षेत्र कम होता गया और जल संकट विकराल होता गया। झारखंड सरकार ने हाल के वर्षों में एक लाख तालाब बनाने की योजना चलाई। इसके तहत तलाब तो बने और लोगों को रोजगार भी मिले, लेकिन ज्यादातर तालाब जल संचय और सिंचाई के लिये कारगर साबित नहीं हुए।
सरकारी स्तर पर चलाई गई इस योजना के लिये जिन गाँवों में तालाब बनाए गए, उन गाँवों के स्थानीय निवासियों से न तो विचार-विमर्श किया गया और न उन्हें कोई महत्त्व दिया गया। नतीजा यह हुआ कि इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि निर्माणाधीन तालाब की ओर पहाड़ या जमीन की ढलान से वर्षा का पानी आएगा या नहीं। स्थानीय समुदायों को इन तालाबों के निर्माण की जिम्मेदारी और प्रबंधन का अधिकार दिया गया होता तो ये तालाब बड़े उपयोगी होते। अब इस गलती को सुधार लिया जाना चाहिए।
झारखंड का शाब्दिक अर्थ है पेड़-पौधे और वनों का प्रदेश। विविध प्रकार के पेड़-पौधे और झाड़ियों से युक्त वन वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड सोखकर और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। इससे वातावरण सन्तुलित रहता है और ग्लोबल वार्मिंग के खतरे भी कम होते हैं। इतना ही नहीं, पेड़-पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से भूमि के अन्दर जल का संचय भी करते हैं, जिससे धरती सरस बनी रहती है। लेकिन, हमारे लिये विनाश की शुरुआत अंग्रेजों ने ही कर दी थी। रेल की पटरियों के लिये बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई शुरू हुई थी। वनवासियों और स्थानीय समुदायों के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद वन विनाश का सिलसिला बढ़ता गया।
अंग्रेजों के जाने के बाद तो उद्योगों, खदानों तथा बाँधों के निर्माण के क्रम में बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई। उस समय बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह का नारा था – जंगलों को काटकर, पत्थरों को तोड़कर हमें आगे बढ़ना है। उस समय झारखंड बिहार का ही हिस्सा था।
झारखंड का निर्माण भी उसी नारे के परिणामों से हुए विस्थापन और पीड़ा से उत्पन्न आन्दोलन के कारण हुआ था। सत्ता में आने के बाद झारखंड आन्दोलन के कर्णधारों ने भी पुरानी नीति जारी रखी। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कारण झारखंड के परम्परागत जलस्रोत-झरने-जोरियो आदि सूखने लगे। गर्मी के मौसम में कुएँ भी सूखने लगे। चापाकल भी सूख जाते हैं। डायमंड रिंग से गहरी बोरिंग कर जब बिजली और डीजल के पम्पों से धरती के अन्दर का पानी बड़े पैमाने पर खींचा जाने लगा और रासायनिक खादों के प्रयोग से खेती में पानी की जरूरत जैविक खेती की तुलना में नौ गुना बढ़ गई तो भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिरने लगा। वनों को पुनर्जीवित करने के नाम पर सोशल फॉरेस्ट्री की शुरुआत की गई और बड़े पैमाने पर यूकेलीपट्स और अकेशिया के पेड़ लगाये गये। इस कार्यक्रम ने जल संकट और भी गहरा बना दिया, क्योंकि ये पेड़ भूमि में वर्षाजल का संचय नहीं करते। उल्टे हर रोज बड़ी मात्रा में धरती के अन्दर का जल सोख लेते हैं। यूकेलिप्टस पानी वाले दलदली इलाकों के लिये उपयोगी है न कि जल के अभाव वाले पठारी इलाकों के लिये। इन पेड़ों के नीचे न झाड़ियाँ लगती हैं और न इन पर कोई चिड़ियाँ बैठती है। इनके पत्तों में अम्लीयता होती है, जो जमीन को बन्जर बना देती है। वर्षाजल को जमीन के अन्दर सन्चित कर सकने वाले सघन वनों को पुनर्जीवित करने के लिये पेड़ लगाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। जिस इलाके में ऐसे वन उगाने हों, उसके चारो ओर से कंटीले तारों की फेंसिंग कर दी जाए या आठ-नौ फीद गहरी और उतनी ही चौड़ी खाई खोद दी जाए, ताकि उस इलाके में कुछ वर्षों तक पशु न जा सकें। दस वर्षों में ही वह इलाका सघन वन में तब्दील हो जाएगा। चिड़िया स्वतः ही पेड़-पौधों के बीज वहाँ गिरा देंगी। देश के अनेक भागों में इस तरीके से सफल वनीकरण हुआ है। इसमें ज्यादा धन की जरूरत नहीं पड़ती।
सातों गाँव की सूखे पर जीत: गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का सातों गाँव, लगातार सूखे से आक्रान्त झारखंड में अपने पैरों पर खड़ा है। यहाँ के एक भी आदमी को काम की खोज में बाहर नहीं जाना पड़ा है। यह गाँव अपनी जरूरत से अधिक उत्पादन करता है, बेचता है, खुशियाँ मनाता है, संक्रान्ति के दिन समवेत उत्सव का आयोजन करता है, किसान मेला लगाता है। कठिन पहुँच के दुर्गम वन प्रान्तर में बसे इस गाँव सातो नवाटोली को 1986 में एक वरदान मिला था। वरदान प्रकृति का, लेकिन इसे उतारा था किसी के मार्गदर्शन, पाथेय और समर्पण ने तथा गाँव के समेकित प्रयास ने। बना था सातो बाँध, सातो पहाड़ी के ऊपर झिरिहिरी नदी में, उसके अविरल प्रवाहित बिखरे जलस्रोतों को सहेजकर। विकास भारती के अशोक भगत ने व्रत लिया था, गाँव में शिव की जटा में उलझी गंगा का अवतरण कराएँगे और बन्जर भूमि से सोना उगाएँगे।
गाँव के लोगों ने अपनी श्रम शक्ति को सही दिशा दी। पहाड़-पाटकोना पर बाँध बना ऊपर की झिरहिरी को नीचे उतार लाए। और सालों भर सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध हो गया। साल भर पानी मिलने से इन्च-इन्च भूमि दो फसली है, हर घर में दुधारू पशु है। गाँव के 70 किसान बीज के लिये धान, मडुआ व मटर बेचते हैं। अगर सड़क होती तो ये साग-सब्जी का अधिक उत्पादन करते। यहाँ स्वयं सहायता समूह की महिलाएँ अचार-जेली बनाती हैं। ग्राहकों का अभाव तो है, पर स्वाद अनोखा है। गाँव के किसी किसान के ऊपर साहूकार या अन्य किसी का कर्ज नहीं है, सरप्लस है पहाड़ियों के आँगन में बसा सातो गाँव। गाँव में किसान क्लब है, उच्च विद्यालय है और है हर चेहरे पर मुस्कान। यह सातो गाँव, सरकार की समस्त योजनाओं, सिंचाई उपक्रमों व ग्रामीण विकास की अवधारणाओं को मुँह चिढ़ाता है। और झकझोरता है कि कब हम वास्तविक मूल्यांकन आधारित योजना बनाएँगे, कार्यान्वित करेंगे और आम आदमी कब इन्हें अपना समझेगा व सहभागी बनेगा।
सुखाड़ में भी बम्पर फसल: राजधानी राँची से 165 किलोमीटर दूर गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का पहाड़ों से घिरा घने जंगलों के बीच एक 400 लोगों का गाँव है-सातो नवाटोली। यहाँ के ग्रामीणों ने यह साबित कर दिखाया कि अगर हौसले बुलन्द हों, दूरदर्शिता हो, सहयोग और श्रम साथ हो तो असम्भव को भी सम्भव बनाया जा सकता है। सातो गाँव आरम्भ से ही पूर्ण रूप से असिन्चित था। यह गाँव जो 100 प्रतिशत कृषक परिवारों का ही निवास था, की कृषि पूर्णरूप से वर्षा पर निर्भर थी।
फलतः यहाँ के लोग हमेशा भुखमरी के शिकार रहते थे। 1964-65 के सूखे ने यहाँ दर्जनों जिंदगियाँ लील ली, जिसने यहाँ के लोगों को अन्दर तक हिला दिया। इस घटना ने इन्हें 1200 फुट ऊँची घाघरी नदी की धारा को नीचे लाने को प्रेरित किया। इसके लिये पहाड़ी पर एक चेक डैम बनाकर बहती धारा के जल को संग्रहित, संरक्षित व फिर इसी जल से सिंचाई की रणनीति बनाई गई। लेकिन साधनों, संसाधनों व धन के अभाव के कारण इसे धरती पर उतार पाना असम्भव था। इसी बीच 1983 में बुलन्द हौसले वाले एक युवक का गोरखपुर से उन ग्रामीणों के बीच आगमन हुआ, जिसका नाम है अशोक भगत। जिसने ग्रामीणों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष आरम्भ किया, निर्माण के सभी संसाधनों की व्यवस्था में लग गया।
ग्रामीणों ने भी इसके प्रति सरकारी पदाधिकारियों, अभियन्ताओं को समझने का प्रयास किया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। सरकारी अभियन्ताओं को बात समझ नहीं आई। ग्रामीणों ने संघर्ष जारी रखा। मेहनत रंग लाई। 1986 में चेक डैम तैयार हो गया। पिछले तीन वर्ष सूखे के बाद भी यहाँ अच्छी फसल हुई और इस वर्ष भी खूब अच्छी फसल काटे जाने का दावा किया गया। जहाँ आस-पास के गाँव के लोग पलायन करते रहे, यहाँ के लोग सर्वाधिक फसलों की खुशियाँ मनाते रहे। सातों गाँव हर साल मकर संक्रान्ति के दिन जतरा आयोजित कर खुशियाँ मनाता है व आस-पास के गाँव वालों को आमन्त्रित कर भोजन भी कराता है।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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