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‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
झारखंड में पानी की मात्रा व गुणवत्ता की स्थिति को जानने के लिये राज्य की सभी 24 जिलों के 212 प्रखंडों के 79 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र के सभी जलस्रोतों पर एक श्वेत पत्र के साथ सामने आना चाहिए। स्वर्णरेखा, दामोदर, बराकर, उत्तरी कोयल, गुमानी और दक्षिणी कोयल नदियों और इनकी बाढ़ के मैदानों के वर्तमान व भविष्य के खतरे को देखते हुए विधानसभा को राज्य के नागरिकों को प्रदूषण, जलस्रोतों तथा उनके आस-पास की भूमि के अदूरदर्शी शोषण के खिलाफ शून्य सहिष्णु नीति अपनाने के लिये सशक्त करना चाहिए। राज्य जल नीति, खनन के लिये खोई कृषि भूमि की मात्रा के वास्तविक आँकड़ों के बिना अधूरी रहेगी। और यह आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। क्या होता है जब शहर पानी से दूर हो जाते हैं? बहुत से प्राचीन शहर पानी की कमी के कारण उजाड़ हो चुके हैं। आधुनिक शहर भी उसी दिशा में अग्रसर है। ऐसा परिदृश्य उत्पन्न होने का कारण है, पानी की अनुपलब्धता, उच्च प्रदूषित पानी व इसकी प्रतिस्पर्धात्मक माँग। ध्यान देने की जरूरत है कि हम गाँवों के जल संसाधन को बचाने के क्या उपाय कर सकते हैं। इतिहास गवाह है, जब भी बड़े शहर नष्ट हुए हैं, लोगों ने गाँवों में ही शरण ली है। पानी की कमी की शुरुआत योजना व नीति निर्माताओं द्वारा जमीन को पानी से जुदा करने से होती है। ऐसी आशा थी कि 2000 के बाद झारखंड में इस समस्या के निदान के लिये एक नई जमीन तैयार होगी। लेकिन, राज्य जल नीति-2011 में कई चीजों को छोड़ दिया गया। पिछली सरकारों की प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिगामी शासन नीति का प्रभाव वर्तमान नीति निर्माताओं में भी दिखाई देता है। इस प्रकार सिर्फ सरकारें बदलती हैं, नीतियाँ वही रह जाती हैं। नीतियाँ चुनौतियों को स्पष्ट नहीं करतीं।
झारखंड की अधिसंख्य बड़ी नदियाँ प्रदूषित हैं। दामोदर नदी का गृह राज्य झारखंड है, जो भारत की नदियों में सबसे अधिक प्रदूषित है। दामोदर नदी आज एक सिकुड़ी मलजल ढोने वाली नहर में तब्दील हो चुकी है। निजी व सार्वजनिक दोनों तरह के प्रदूषणकारी उद्योग बेपरवाह अपने उद्योग का संचालन करते हैं। 130 मिलियन लीटर औद्योगिक अपशिष्ट व 65 मिलियन लीटर अनुपचारित घरेलू जल प्रतिदिन दामोदर में गिरता है। पश्चिमी सिंहभूम की कारो नदी नोवामुंडी, गुआ व चिरिया के लौह अयस्क खानों के लाल ऑक्साइड से प्रदूषित है। स्वर्णरेखा नदी की वर्तमान दुर्दशा इसके आस-पास के खतरनाक उद्योगों के कारण है। राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने माना है कि यूरेनियम मिल व यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, जादूगोड़ा का रेडियोधर्मी कचरा स्वर्णरेखा व इसकी सहायक नदियों में मिलता है।
जल नीति में इस तरह के गम्भीर मुद्दों की अनदेखी की गई है। आर्सेनिक, मरकरी, क्रोमियम, निकेल जैसी विषाक्त धातुओं के दामोदर व इसकी सहायक नदियों में मिलने से इनकी गुणवत्ता में कमी आई है। झारखंड राज्य जलनीति-2011 में माना गया है कि राज्य के कुछ प्रखंडों जैसे चास, रातू, धनबाद, रामगढ़, गोड्डा, जमशेदपुर सदर, झरिया व कांके में भूमिगत जल का अत्यधिक शोषण हुआ है। लगातार हो रहे इस शोषण को बहुत देर होने से पहले बन्द करना आवश्यक है।
विशेष रूप से इन क्षेत्रों व अन्य सभी प्रखंडों में भी भूमि उपयोग के प्रति कोई कदम उठाए बिना पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट होने से नहीं रोका जा सकता, जो वाटर रीचार्ज को बनाए रखता है। राज्य स्तर व नदी बेसिन स्तर पर बनने वाली नई संस्थागत व्यवस्था के उद्देश्य को दर्शाने में ये नीतियाँ सक्षम हैं, लेकिन इन्हें क्रियान्वित करने की आवश्यकता है, जो अब तक नहीं किया गया है। नीति कहती है “किसी भी उपलब्ध संसाधन पर पारिस्थितिकी, मानव तथा जानवरों के पीने के पानी की जरूरत पहली प्राथमिकता होगी।” लेकिन प्राथमिकताएँ बदल सकती हैं। नीति पशुओं के पीने के पानी की जरूरत को स्वीकार करता है। इसे राज्य के सभी शहरों व प्रखंड में लागू किए जाने की जरूरत है। लेकिन, नीति में इस बात का खुलासा नहीं है कि किस प्रकार एसिड जल निकासी, कोयला हैंडलिंग संयंत्र के तरल अपशिष्ट, कोलियरी कार्यशालाओं व खानों से निकलने वाले ठोस अपशिष्ट जो क्षेत्र में गम्भीर जल प्रदूषण के कारक हैं और जिनका प्रतिकूल प्रभाव मछलियों व जलीय जीवन पर पड़ रहा है, उससे कैसे निपटा जाए।
नीति में संयुक्त राष्ट्र की संकल्पना ‘सुरक्षित व साफ पीने का पानी का अधिकार’ को शामिल किए जाने की जरूरत है। अगर राज्य के सभी 81 विधायक व 14 सांसद अपने विधाई क्षेत्र में भूमि व जल पर्यावरण की स्थिति को लेकर चिन्तित हैं, तो प्रथम कदम के रूप में अपने निर्वाचन क्षेत्र में जल संसाधन के स्रोत का सर्वेक्षण व नक्शा तैयार कर भूत, वर्तमान व भविष्य के इस प्राकृतिक सम्पदा की स्थिति का खुलासा कर सकते हैं। फलतः वे पर्यावरण व जलस्रोतों को बचाने व सही उपयोग के लिये सामूहिक प्रयास कर सकते हैं। यह बेहद आवश्यक है, क्योंकि मौजूदा संस्थान चुनौतियों से निपटने में बौना साबित हो रहा है। पानी की गुणवत्ता, मात्रा व भूमि उपयोग का मुद्दा एक-दूसरे से जुड़ा है। किसी एक समस्या का समाधान अलग से नहीं किया जा सकता। एक पहलू जिसे पहचाना नहीं जा सका है, वह है औद्योगीकरण व शहरीकरण की वर्तमान पद्धति जो हमेशा से ही नदियों को प्रदूषित करेगी। इसलिये बड़े पैमाने पर नीतियों में परिवर्तन की आवश्यकता है। वर्तमान व्यवस्था प्रदूषण को बढ़ावा देने वालों को अधिक समर्थन देती है, उनका नहीं जो इन समस्याओं से लड़ना चाहते हैं। वे संस्थाएँ या समुदाय जो प्रदूषण को कम करना व इसका निगरानी करना चाहते हैं, को मजबूत करने की आवश्यकता है। जलस्रोतों को बचाना हमारी नीतियों, कार्यक्रमों व परियोजनाओं का एक अभिन्न अंग हो गया है। नदी घाटियों से नदियों के हो रहे विच्छेदन के प्रतिकूल परिणाम के संदर्भ में वर्तमान नीतियों में परिवर्तन की जरूरत है।
झारखंड में पानी की मात्रा व गुणवत्ता की स्थिति को जानने के लिये राज्य की सभी 24 जिलों के 212 प्रखंडों के 79 लाख हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्र के सभी जलस्रोतों पर एक श्वेत पत्र के साथ सामने आना चाहिए। स्वर्णरेखा, दामोदर, बराकर, उत्तरी कोयल, गुमानी और दक्षिणी कोयल नदियों और इनकी बाढ़ के मैदानों के वर्तमान व भविष्य के खतरे को देखते हुए विधानसभा को राज्य के नागरिकों को प्रदूषण, जलस्रोतों तथा उनके आस-पास की भूमि के अदूरदर्शी शोषण के खिलाफ शून्य सहिष्णु नीति अपनाने के लिये सशक्त करना चाहिए। राज्य जल नीति, खनन के लिये खोई कृषि भूमि की मात्रा के वास्तविक आँकड़ों के बिना अधूरी रहेगी। और यह आँकड़ा उपलब्ध नहीं है।
यह आवश्यक है, क्योंकि भूमि और जल सह-अस्तित्व में होते हैं। राज्य में बोतल बन्द पानी और वाटर प्यूरीफायर की वार्षिक बिक्री का आँकड़ा भी अनुपलब्ध है। इन आँकड़ों से नियामक एजेन्सियों के प्रभाव, क्षमता और चुनौतियाँ स्पष्ट हो सकेंगी। हमें अब और अधिक भ्रम में नहीं जीना चाहिए कि प्रदूषण किसी भी स्तर तक बढ़ जाए, हम अपने जलस्रोतों को बचाने के लिये उपचार संयंत्रों का निर्माण कर लेंगे। हमें वर्तमान व भावी पीढ़ियों के लिये पानी के स्रोतों को बचाने के सुरक्षित कदम उठाने होंगे। अगर हम इसे नहीं सहेज पाते हैं, तो यह हमारे द्वारा किया गया नरभक्षण का कार्य माना जाएगा। पर्यावरणीय सेवाएँ हमारे अस्तित्व से परे नहीं हैं।
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