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‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
एक समय था, जब तीनों नदियों के स्रोत आपस में एक सुरंग से जुड़े हुए थे। तब बच्चे एक स्रोत में बाँस बाँधकर दूसरे में निकलने का इन्तजार करने वाला खेल भी खेलते थे। यह कितना सच है और कितना मिथ यह कहना तो मुश्किल है, परन्तु यह सच इन सब पर भारी है कि यहाँ के लोगों ने जल का अभाव कभी नहीं झेला। वैसे एक मिथ इस इलाके के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहाँ आकर रहे थे, इसीलिये गाँव का नाम पांडु है। नगड़ी पहुँचने पर हम बेसुध हुए से कोयल नदी के उद्गम स्रोत को ढूँढते फिर रहे थे। यूँ ही हमें भटकते देख वहीं के ग्रामीण रथुआ महतो ने हमसे पूछ ही लिया। क्या खोज रहे हैं बाबू। हमने पूछा दादा यहाँ कोयल नदी का उद्गम स्थल है ना। उन्होंने एक व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ हमें देखा और जो बताया तो हम भी हैरान हुए बिना नहीं रह सके और कहा यही तो है कोयल का उद्गम, जहाँ आप खड़े हैं। यदि उन्होंने हमें न टोका होता या बताया न होता तो न जाने और कितनी देर तक हम उसी परिधि में घूमते रहते, जहाँ हम पिछले 20-25 मिनटों से भटक रहे थे।
यह पलामू की जीवन रेखा समझी जाने वाली कोयल नदी का उद्गम स्थल है। और सबसे मजेदार बात ये कि थक-हार कर हम जिस पत्थर पर बैठे थे, वह कोई साधारण पत्थर नहीं बल्कि कटकन चुआँ का मुख्यद्वार था। आप सोच रहे होंगे कटकन चुआँ का अर्थ क्या है? दरअसल पानी के उद्गम स्थल या स्रोत को यहाँ चुआँ कहते हैं और यह कटकन चुआँ कोयल नदी का उद्गम स्थल है। पहले तो हमें हैरानी हुई लेकिन जब मिट्टी की दरारों के बीच पड़े पत्थर के दो पाट, तालाबनुमा शक्ल में जमीन का एक टुकड़े को हमने देखा तो यह विश्वास हो गया और यह आभास भी कि यहाँ कोई न कोई जलस्रोत या जलाशय तो जरूर रहा होगा। लेकिन, इस उद्गम स्थल पर पानी की एक बूँद तक का नामो-निशान नहीं था। हमारी हैरानी और परेशानी को रथुआ भाँप लेते हैं और भर्राई आवाज में कहते हैं कि अब तो यहाँ कोयल के स्रोत से सिर्फ बरसात में ही पानी निकलता है, जबकि कुछ वर्ष पूर्व यहाँ अविरल जलधारा बहती थी। वो सामने जलाशय देख रहे हैं न, यहाँ पहले हमेशा पानी भरा रहता था और सामने वाला जलाशय भी भरा रहता था। लोग बच्चों को तो पास में फटकने तक नहीं देते थे।
पानी तो इतना रहता था कि सिर्फ हमारा गाँव नहीं बल्कि इससे आस-पास के इलाके के गाँवों का भी पानी का काम यहीं से चलता था। आश्चर्यजनक किन्तु सच यह है कि राँची से सटे नगड़ी के जिस इलाके में हम पहुँचे थे, वहाँ लगभग एक किलोमीटर की परिधि से झारखंड की तीन-तीन प्रमुख नदियाँ निकलती हैं। कोयल, कारो और सबसे अहम स्वर्णरेखा नदी। लेकिन दुखद यह है कि आज इन नदियों के उद्गम स्थल वाले इलाके बिन पानी, पानी की तलाश में पसीने से पानी-पानी हुए जा रहे हैं।
गायब हुए सोने के कण: कोयल नदी के उद्गम स्थल के निकट ही पांडु गाँव है। यहाँ का रानीचुआँ स्वर्णरेखा नदी का उद्गम स्थल है। रानीचुआँ पहुँचते ही पानी की महीन किन्तु अविरल धारा निकलती हुई दिखती है, जिसे कुआँनुमा आकार में घेर दिया गया है। कुएँ के बगल में ही एक छोटे से शिवलिंग की भी स्थापना कर दी गई है, ताकि इसकी अविरल धारा गंगा की तरह ही बनी रहे। यहाँ के टाना भगतों ने जनेऊनुमा धागों के साथ सफेद झंडा चुआँ के किनारे लगा दिया है।
सच तो ये है कि जहाँ इन आध्यात्मिक व आत्मीय कोशिशों का असर एक हद से ज्यादा भला कैसे हो सकता है। लेकिन आध्यात्मिकता पर वैज्ञानिकता की सोच हावी होती जा रही है और यह सवाल मन में घुमड़ रहा है कि इन जलस्रोतों का अब तक कायदे से वैज्ञानिक अध्ययन क्यों नहीं हो सका है, जिससे जल की सम्भावना को हकीकत में बदला जा सके। हालत इतने बिगड़ चुके हैं कि रानीचुआँ से एक पतली नालीनुमा जलधारा बहती नजर आती है और इससे आस-पास के दो चार खेतों को ही पानी मिल पाता है। हाँ, बस इस बात से मन को तसल्ली दी जा सकती है कि घास चरते मवेशियों की प्यास बुझ जाती है। नगड़ी एक ऐसा स्थान है, जो सब्जियों के बाजार के लिये जाना जाता रहा है। लेकिन इन तीन-तीन नदियों के उद्गम स्थल पर आज खेती भी खून के आँसू रो रही है। रानी चुआँ के पास ही मवेशियों को चराते हुए एतवा मिलते हैं और उन दिनों को याद करते हुए कहीं खो-से जाते हैं, जब बंधेया, पांडु डोकाटोली, साहेर, खूँटा आदि गाँवों में पानी की पूरी जरूरत इसी जलस्रोत से पूरी होती थी। फिर यकायक जैसे अतीत में गोते लगाने लगते हैं और फिर सहसा उनकी आँखों में एक चमक दिखती है। वो बताते हैं कि कैसे साठ-सत्तर के दशक में आए अकाल को इसी जलस्रोत ने मात दी। पांडु गाँव के माताराम भी वहीं मिले और एतवा की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि आपको एक खास बात बताता हूँ शायद यह कम लोग ही जानते होंगे।
एक समय था, जब तीनों नदियों के स्रोत आपस में एक सुरंग से जुड़े हुए थे। तब बच्चे एक स्रोत में बाँस बाँधकर दूसरे में निकलने का इन्तजार करने वाला खेल भी खेलते थे। यह कितना सच है और कितना मिथ यह कहना तो मुश्किल है, परन्तु यह सच इन सब पर भारी है कि यहाँ के लोगों ने जल का अभाव कभी नहीं झेला। वैसे एक मिथ इस इलाके के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहाँ आकर रहे थे, इसीलिये गाँव का नाम पांडु है। और खास बात ये कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआँ इसलिये पड़ा क्योंकि एक बार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी विद्यमान है स्वर्णरेखा के रूप में। पता नहीं इस मिथ में कितनी सच्चाई है। वैसे भी मिथ का अपना आधार होता है। सच या झूठ के दायरे से वह थोड़ा बाहर होता है। यह पता नहीं कि पांडु गाँव, पांडव के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआँ की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथ कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और इसके उद्गम तक पहुँचना रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा रहा। खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिये से सम्भावनाओं से भर इस इलाके में अब मिथ का प्रभाव कम और हकीकत के फसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं। पानी बीच मीन पियासी, वाटर-वाटर एवरीव्हेयर-बट नॉट ए ड्रॉप टू ड्रिंक और मृत्युशैय्या पर पड़े जीवन रेखा के फसाने।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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