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‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
आज शहरों में बड़-बड़ी बिल्डिंगे बन रही हैं, उनमें वर्षा जल संरक्षण को लेकर निर्धारित मानकों का भी पालन नहीं हो पाता। थोड़ी भी ऐसी जगह नहीं छोड़ी जाती, जिनसे होकर वर्षा जल धरती में प्रवेश कर सके। पानी को बचाने की मुहिम पूरे देश में चल रही है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी परवाह रहती है। जल संकट झारखंड की ही नहीं पूरे विश्व की समस्या है। पानी की एक-एक बूँद का संरक्षण आवश्यक है। पृथ्वी पर उपलब्ध पानी का 97 फीसदी समुद्री जल है। एक प्रतिशत पानी ग्लेशियर में है। केवल 2 प्रतिशत पानी मनुष्यों के उपयोग के लायक है। झारखंड में तो वैसे ही जलस्रोतों पर संकट है। यह विडम्बना है कि अच्छी बारिश होने के बावजूद अधिकतर समय यहाँ जल संकट बना रहता है। दरअसल, हमारे यहाँ जल संरक्षण के पर्याप्त तरीके होने के बावजूद इसे लेकर सक्रियता का अभाव दिखता है।
खेती की बात करें तो उसके लिये पानी अनिवार्य है, लेकिन सिंचाई के लिये भी हम यहाँ जल का संरक्षण नहीं कर पाते। शहरों का जिस तरह से विस्तार हो रहा है, बड़े-बड़े भवन बन रहे हैं, उनमें रहने वालों की जल सम्बन्धी जरूरतें भी बढ़ रही हैं। इनको पूरा करने के लिये भूजल का दोहन तेजी से हो रहा है। लेकिन भूजल का स्तर कैसे बढ़े, इसे लेकर कोई जागरूक नहीं। जब भी जल की समस्या आती है, हम सरकार व सम्बन्धित विभागों की निष्क्रियता पर सवाल उठाते हैं। पानी असीमित है, यह सोचना उचित नहीं है। पानी के संरक्षण के प्रति सभी को जिम्मेदार होना पड़ेगा।
जिम्मेदारी सबकी: झारखंड में वर्षा लगभग हर वर्ष सामान्य से बेहतर होती है। यहाँ सिर्फ वर्षा में वितरण की समस्या है, कहीं अधिक वर्षा होती है, कहीं कम। अगर हम इस वर्षाजल का संरक्षण करें व इसका उचित तरीके से उपयोग करें तो हमें पानी की समस्या कभी नहीं होगी। झारखंड में वर्षा का अधिकतम (70 फीसदी लगभग) जल यूँ ही बहकर बेकार चला जाता है।
अगर हम 2010 के आँकड़े को देखें तो पाते हैं कि इस वर्ष भी झारखंड में वर्षा सामान्य से बेहतर हुई थी। जहाँ राजस्थान, पंजाब व गुजरात में वर्षा क्रमशः 494 मिमी, 843 मिमी हुई थी, वहीं झारखंड में इससे दोगुनी 1430 मिमी वर्षा हुई। बावजूद इसके, हम इन राज्यों की तुलना में अपनी जरूरतों को पूरा करने में असक्षम महसूस करते हैं। दरअसल, हम आने वाले खतरों को लेकर सचेत नहीं हैं। हमारे यहाँ की भौगोलिक परिस्थिति भिन्न है, लेकिन खुद के प्रयास से हम जल संरक्षण के तरीके तो अपना सकते हैं।
सम्मानित हों जागरूक लोग: देश-दुनिया में कई ऐसे लोग हैं, जो खुद की बदौलत व पारम्परिक तरीके से प्रकृति के संरक्षण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। विभिन्न इलाकों में ऐसे लोग अवश्य मिल जाएँगे, जो खुद की अपनी तकनीक विकसित कर समस्याओं से निजात पाने में सक्षम हुए हैं। वहीं कई संस्थाएँ भी ऐसी हैं, जो लोगों को जागरूक कर उन्हें जल संरक्षण के तरीके बता रही है। ऐसे लोगों व संस्थाओं को सम्मानित करने की जरूरत है। पानी बचाने के लिये एक अभियान चलाना होगा।
व्यवहार में हो चिन्ताएँ: आज शहरों में बड़-बड़ी बिल्डिंगे बन रही हैं, उनमें वर्षा जल संरक्षण को लेकर निर्धारित मानकों का भी पालन नहीं हो पाता। थोड़ी भी ऐसी जगह नहीं छोड़ी जाती, जिनसे होकर वर्षा जल धरती में प्रवेश कर सके। पानी को बचाने की मुहिम पूरे देश में चल रही है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसकी परवाह रहती है। क्या हमें पता है रोजाना हम कितने पानी की खपत करते हैं। प्रति व्यक्ति पानी खपत रोजाना 140 लीटर है। पीने में पाँच लीटर, पकाने में 20 लीटर, नहाने में 50 लीटर बर्तन धोने में, कपड़ा धोने में 35 लीटर व शौच में 15 लीटर पानी की खपत करते हैं। यदि हम चाहें तो नहाने, कपड़ा धोने में कम-से-कम 50 लीटर प्रतिदिन का संरक्षण कर सकते हैं।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
जल, जंगल व जमीन | |
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