Source
‘और कितना वक्त चाहिए झारखंड को?’ वार्षिकी, दैनिक जागरण, 2013
औद्योगीकरण और वर्तमान विकास मॉडल ने जिस तेजी से आदिवासी समाज को उजाड़ा है, उसी रफ्तार से देश का पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। जंगल के उजड़ने से पर्यावरण पर काफी बुरा असर पड़ा है। नदी-नाले सूखने के साथ प्रदूषित हो गए हैं। जंगल की हरियाली मुरझाने लगी है। पेड़-पौधे सूख रहे हैं, उनमें फल-फूल नहीं लग रहे हैं। जंगल से पैदावार घट रही है। विश्व में आदिवासियों की पहचान जल-जंगल-जमीन-पर्यावरण के जीवन्त सम्बन्ध से है। जंगल, जमीन, नदी, पहाड़, झरना, माटी आदिवासी समाज के लिये सम्पत्ति नहीं, बल्कि धरोहर है। इतिहास गवाह है, जब तक आदिवासी जल-जंगल-जमीन के साथ जुड़ा हुआ है, तभी तक वह आदिवासी है। एक-दूसरे को अलग कर न आदिवासी समाज की कल्पना की जा सकती है, न ही जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण की। आदिवासी समाज की भाषा, संस्कृति, नदियों में बहते पानी, आकाश में मंडराते बादल, प्रकृति की गोद में उगे घास-फूस, फूल-पत्ता और आकाश में उड़ती चिड़ियों की चहक के साथ विकसित हुई है।
विश्व सभ्यता और संस्कृति के विकास का इतिहास गवाह है- देश के जिस भी हिस्से में आदिवासी बसे, घने जंगल-झाड़ को साँप, बिच्छू, बाघ-भालू से लड़कर आबाद किया। उन्होंने रहने लायक गाँव बसाए, खेती-किसानी को आगे बढ़ाया। छह माह खेतों में अन्न पैदा कर खुद भी खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं। छह माह प्रकृति खुद इन्हें वनोपज से खिलाती है। दोनों के बीच माँ-बेटे का रिश्ता है। यह दशकों से हमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवन देता आया और आगे भी देता रहेगा। आदिवासी समाज जंगल से जितना लेता है, उसका दोगुना उसे देता भी है। आदिवासी दो पेड़ काटता है-तो दस पेड़ लगाता भी है।
आदिवासी समाज के लिये जंगल सिर्फ पेड़-पौधे ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासी समाज के इतिहास, परम्परा, भाषा-संस्कृति, पहचान के साथ आजीविका और स्वस्थ जीवन का मूल आधार भी है। जंगल के जानवर आदिवासी समाज के मित्र हैं। आदिवासी समाज और जंगल देश के पर्यावरण के प्रमुख आधार हैं, क्योंकि जंगल जहाँ है, आदिवासी समाज भी वहीं है। आदिवासी समाज के बिना न हम जंगल की कल्पना कर सकते हैं और न ही पर्यावरण की सरई फूल आदिवासी समाज का सरहुल त्यौहार है तो करम पेड़ आदिवासी समाज का करमा परब है। जहाँ सखुआ का जंगल है, वहीं-घने बादल भी मंडराते हैं और जहाँ बादल मंडराते हैं, वहीं मोर पंख फैलाकर बादल का आनन्द लेते हैं। जंगल और समाज का यह ताना-बाना, हमें लोकगीतों में मिलता है-गाते हैं।
बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे...2, बोने में झाईला मिंजुर सौभाग्य रे...2
प्रकृति और समाज के बीच के रिश्ते और लोगों के आपसी जीवन्त रिश्ते को भी हम गीतों में बयान करते हैं : गीत है-
कहाँ रे कोरोया (संगी-साथी) डेरा तोरा...2, कहाँ रे कोराया बसा तोरा...2, जंगल में डेरा तोरा पहाड़ में बसा तोरा, कहाँ रे कोरोया डेरा तोरा...2, कहाँ रे कोरोया बसा तोरा...2
यही कारण है कि देश के किसी भी हिस्से में इनके हाथ से जंगल-जमीन छीनने की कोशिश की गई-आदिवासियों ने इसका जीजान से विरोध किया। और यह आज भी जारी है। आदिवासियों के संघर्ष को झारखंड से लेकर विश्व स्तर पर दखें। सबका कारण अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा करना ही है। 1800 के दशक का इतिहास बताता है कि जब भारत के झारखंड इलाके में आदिवासियों के हाथ से जंगल-जमीन अंग्रेज द्वारा छीने जाने लगे, तब इसके विरोध में पूरे संताल परगना और छोटानागपुर के आदिवासी 1900 के दशक तक समझौता विहीन शहादती संघर्ष रचते रहे। इसी दौरान अमेरिका के आदिवासियों के हाथों से भी जंगल-जमीन अंग्रेज छीन रहे थे। आदिवासियों को जबरन जंगल-जमीन अपने हाथ सौंपने, बेचने पर मजबूर किया जा रहा था। तब आदिवासी नेता लॉड शियाटेले ने अंग्रेजों से कहा था-हम अपनी माँ का सौदा कैसे कर सकते हैं? हम शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, सूरज की रोशनी, समुद्र की लहरों, नदी-झरनों को कैसे बेच सकते हैं? यह कतई सम्भव नहीं है। झारखंड में शहादती संघर्ष का परचम लहराने वाले कोयल-कारो जनसंगठन के बुजुर्ग अगुवा मंगरा गुड़िया के गीत पूरे झारखंड के जंगलों में गूँज रहे हैं-
अन्न- होले बदालय, धन होले बदालय, धरती माँय के कैसे रे बदलाय...2सोना होले बदलाय, रूपा होले बदलाय, धरती माँय के कैसे रे बदलाय?
छोटानागपुर और संताल परगना इलाके में अंग्रेजों ने आदिवासियों के हाथ से जंगल छीनने के कई हथकंडे अपनाए। सामुदायिक धरोहर को व्यक्तिगत सम्पत्ति बना दी। जंगल पर कब्जा करने के लिये 1800 से लेकर 1947 तक के बीच दर्जनों वन-कानून बनाए गए, कभी रिजर्व वन के नाम पर जंगल पर आदिवासियों के अधिकार को समाप्त किया गया, तो कभी पब्लिक फॉरेस्ट के नाम पर। यही नहीं वन आश्रयणी कानून के तहत भी लाखों आदिवासी गाँवों को जंगल से हटा दिया गया।
आजादी के बाद आदिवासी समुदायों के हाथ से बाकी बचे जंगल को भी लूटने की कोशिश की गई, वह भी कानूनी हथकंडे से। कभी सामुदायिक वन प्रबंधन के नाम पर तो कभी किसी अन्य कानून के नाम पर। वन कानून-2006 भी आदिवासियों को जंगल-जमीन से बेदखल करने की ही साजिश है। आज विश्व के पूँजीपति हमारे पानी, जंगल, गाँव, झरना, खेत-खलिहान, नदियों से मुनाफा के लिये आँखें गड़ाए हुए हैं। सभी अपनी पूँजी हमारी धरोहर के दोहन के लिये निवेश करने की होड़ में हैं।
राज्य के गठन के दस सालों में राज्य और केंद्र सरकार ने 104 से अधिक कम्पनियों के साथ एमओयू किए हैं। इनमें से 98 कम्पनियाँ स्टील उत्पादक हैं। प्रत्येक कम्पनी को अपना उद्योग चलाने के लिये-कारखाना लगाने के लिये जमीन, पावर प्लान्ट के लिये जमीन, आयरन और माइन्स, कोल माइन्स, पानी के लिये डैम, टाउऊनशिप, बाजार, आवागमन-रेल सेवा, सड़क सेवा आदि के लिये जमीन चाहिए। इस तरह से प्रत्येक कम्पनी को विभिन्न स्ट्रक्चर, बुनियादी व्यवस्थाओं के लिये विभन्न इलाकों में 50-60 हजार हेक्टेयर जमीन चाहिए। यदि 104 कम्पनियों को जमीन उपलब्ध कराई जाए, तो झारखंड के किसानों, आदिवासियों, मूलवासियों के हाथ एक इंच भी जमीन-जंगल नहीं बचेगा।
औद्योगीकरण और वर्तमान विकास मॉडल ने जिस तेजी से आदिवासी समाज को उजाड़ा है, उसी रफ्तार से देश का पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। जंगल के उजड़ने से पर्यावरण पर काफी बुरा असर पड़ा है। नदी-नाले सूखने के साथ प्रदूषित हो गए हैं। जंगल की हरियाली मुरझाने लगी है। पेड़-पौधे सूख रहे हैं, उनमें फल-फूल नहीं लग रहे हैं। जंगल से पैदावार घट रही है। लाह, कोकाण आदि की पैदावार प्रभावित हो रही है। मधु का उत्पादन भी घटता जा रहा है। जंगलों में जीवित रहने वाले जीव स्वतः समाप्त होते जा रहे हैं। जंगल में मौजूद हजारों जैविक विविधता-जड़ी-बूटी नष्ट हो रही है। इसका प्रतिकूल प्रभाव पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है।
और कितना वक्त चाहिए झारखंड को (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
जल, जंगल व जमीन | |
1 | |
2 | |
3 | |
4 | |
5 | |
6 | |
7 | |
8 | |
9 | |
10 | |
11 | |
12 | |
13 | |
14 | |
15 | |
16 | |
17 | |
18 | |
19 | |
20 | |
21 | |
22 | |
23 | |
24 | |
25 | |
26 | |
27 | |
28 | |
29 | |
30 | |
31 | |
32 | |
33 | |
खनन : वरदान या अभिशाप | |
34 | |
35 | |
36 | |
37 | |
38 | |
39 | |
40 |