आज हिमालय से लेकर गंगा सागर तक पूरी गंगा बेसिन संकटग्रस्त है। दसियों करोड़ लोगों की जीविका, उनका जीवन तथा जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों तक के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। गंगा की समस्या के समाधान की अब तक की कोशिशें ही उसकी बर्बादी और तबाही का सबब बनती जा रही हैं।
एक समय राजीव गाँधी ने गंगा की सफाई की योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा और उसकी सहायक नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही गया। मनमोहन सिंह के समय तक गंगा सफाई के नाम पर पैंतीस हजार करोड़ रुपए विभिन्न मदों में खर्च हुए ऐसा भी कई लोग बताते हैं। उन्होंने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया था। लेकिन कुछ हुआ नहीं।
केन्द्र की नई सरकार ने भी गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन-तीन मन्त्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। लेकिन गंगा का सवाल जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल और स्वच्छ रखने के लिये देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। अभी जो बाजारवादी और काॅरपोरेटी समाधान सामने लाए जा रहे हैं। उससे पूरी गंगा बेसिन और उसके आस-पास बसे लोगों की जीविका, नदी पर उनके सामुदायिक अधिकार, खेती और उनकी बसाहट भी क्षतिग्रस्त हो जाएगी।
दरअसल, ‘गंगा को साफ करने’ या ‘क्लीन गंगा की अवधारणा ही सही नदी है। सही अवधारणा तो यह होनी चाहिए कि गंगा को या नदियों को गन्दा मत करों’ काफी हद तक शुद्धिकरण तो नदियाँ खुद करती हैं। नदी जल में बड़ी संख्या में एक कोषीय प्लैंक्टन होते हैं जो सूर्य की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं। गन्दी चीजें सोख लेते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यही नदी के स्वयं शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। गंगा में और भी विशेष गुण हैं।
वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को गंगा के स्वच्छ जल में डालकर देखा तो पाया कि चार घण्टे बाद हैजे के जीवाणु नष्ट हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्ला करने से या भैंसों के गोबर करने से गंगा या कोई अन्य नदी प्रदूषित होती है तो यह हँसने की बात ही होगी।
कुछ वर्ष पहले आगरा में यमुना नदी में तैरकर नहा रही 35 भैंस वालों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। भैंस वालों ने कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से भैसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्रियों के मालिक या शहरी मल-जल बहाने वाले म्युनिसिपल काॅरपोरेशन के अधिकारी कभी पुलिस के निशाने पर नहीं रहे। ऐसे तो नदी के प्रदूषण के कई कारक हैं लेकिन पहले हम उनके तीन प्रमुख कारकों की चर्चा करते हैं।
नदियों के प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों एवं रंगीन या काले तरल (एफ्लूएंट) का गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि दलील देते हैं कि गंगा के प्रदूषण के लिये इंडस्ट्रीयल एफ्लूएंट सिर्फ 8 प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आँकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है। लेकिन जितना भी एफ्लूएंट गिरता है वह कम नहीं है। जब कल-कारखानों या थर्मल पावर स्टेशन का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन नदी में गिरता है तो नदी की स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है।
इससे नदी में डेड जोन बन जाते हैं। गंगा नदी में जगह-जगह एक किलोमीटर से बीस किलोमीटर तक के डेड जोन बन गए हैं। इस जोन से गुजरने वाली मछली, डाॅल्फिन या कोई जीव-जन्तु तथा वनस्पति जीवित नहीं बचता। नदी के अन्दर के इन मौत के इलाकों को समाप्त करने के लिये औद्योगिक एफ्लूएंट गिराने पर सख्त पाबन्दी जरूरी है। कानून बनाकर ऐसी फैक्टरियों को सील करना पड़ेगा और उनके मालिकों/प्रबन्धकों को कानून का उल्लंघन करने पर जेल भेजना होगा। जरूरी हो तो ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिये उद्योगों को सब्सिडी दी जा सकती है। अन्यथा निर्मल गंगा की रट लगाना बन्द कर देना चाहिए।
अभी देश की लगभग 40 प्रतिशत कृषि भूमि की सिंचाई का प्रबन्ध है। इसी सिंचित भूमि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों का ज्यादा प्रयोग होता है। खेतों से बहकर ये रसायन नदी में पहुँचते हैं तथा जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थितिकी को बिगाड़ देते हैं। इन रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों से हमारी खेती भी ऊसर होती जा रही है और फलों-सब्जियों एवं अनाजों के माध्यम से लोगों के खून में जहर पहुँच रहा है।
लोग कैंसर, मिस्कैरेज तथा अन्य घातक बीमारी के शिकार हो रहे हैं। गंगा तथा अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिये रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी (जो लगभग एक लाख करोड़ रुपए सालाना के आस-पास होती है) को बन्द करके यह राशि जैविक खेती करने वाले किसानों को दी जानी चाहिए। इसके बिना न तो नदी स्वस्थ और निर्मल रहेगी और न ही मनुष्य स्वस्थ रह सकेगा। जैविक खेती में खेती की लागत भी घटती है और किसानों का मुनाफा भी बढ़ता है।
शहरों के सीवर और नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करने की बातें बहुत हो चुकी है। लेकिन नतीजा अभी तक दिखाई नहीं पड़ा है। शहरी मल-जल ऐसी चीज है जिसे सोना बनाया जा सकता है। कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लाया जाता है।
इस ट्रीटेड पानी को भी नदी में नहीं गिराना चाहिए क्योंकि उसमें इतना कोलीफार्म बैक्टीरिया होता है जो नहानेे के लिये भी उचित नहीं है। इसका उपयोग उद्योगों, सड़कों तथा ट्रेनों आदि के धोने में किया जा सकता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्य नदियों के सभी शहरों-कस्बों में किया जाना चाहिए।
प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा और असि नदी गंगा में मिलती है। ये नदियाँ शहर की सारी गन्दगी गंगा में डालती हैं। अब तो भू-माफिया वरुणा और असि के किनारे मिट्टी भर-भर के उस पर मकान भी बनवाने लगा है। चिराग तले के इस अन्धेरे को दूर करने की शुरूआत हो तो अच्छा रहेगा।
गंगा तथा अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ो लोगों पर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन इनसे जुड़ा है। लगभग नौ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में मिलती है। इन नदियों के प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा में हिमालय क्षेत्र में टिहरी तथा अन्य स्थानों पर बाँध बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आई है।
16 बाँध बँध चुके हैं, 13 बाँधों का निर्माण जारी है और 54 बाँधों के प्रोजेक्ट प्रस्तावित हैं। एक तो पहले ही हिमालय के सघन वनों की कटाई से हिमालय क्षतिग्रस्त था, इन बाँधों के कारण हिमालय क्षेत्र में तबाही मचने का सिलसिला शुरू हो चुका है। बद्रीनाथ धाम में हुआ दिल दहलाने वाला हादसा उसका एक जीता-जागता उदाहरण है। पूरा हिमालय क्षेत्र प्रलय क्षेत्र बनता जा रहा है। नेपाल में भी हाई डैमों के निर्माण की बात चलती रहती है।
ज्यादातर समय तो यह भ्रंश अपनी जगह पर रहता है, किन्तु अक्सर ऐसा भी होता है कि जब इस भ्रंश में इतनी अधिक लचकदार ऊर्जा जमा हो जाय कि अवरोध के कारण रुका महाद्वीप धक्के से आगे बढ़ने लगे तो उस समय एकाएक यह भ्रंश अपनी जगह से खिसककर 30 फीट या उससे भी अधिक नीचे चला जाता है। इससे एक भीषण भूकम्प हुए नहीं रहता।
हिमालय क्षेत्र में हर साल लगभग एक हजार भूकम्प के झटके आते हैं। कभी-कभी भीषण भूकम्प के खतरे को और भी बढ़ा देता है। इसलिये एक नई हिमालय नीति की भी जरूरत है। विनाशकारी बाँधों का निर्माण रोका जाना चाहिए और निर्मित बाँधों की साईटिफिक डीकमीशनिंग होनी चाहिए। क्या सरकार इस दिशा में सोचने की हिम्मत जुटा सकेगी?
1971 में पश्चिम बंगाल में गंगा पर फरक्का बैराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बैराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा की उड़ाई हो जाती थी। जब से फरक्का बैराज सिल्ट के उड़ाई की प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियों की उड़ाई प्रक्रिया भी रुक गई और बाढ़ तथा जल जमाव क्षेत्र हर साल बढ़ने लगा।
जब नदी की गहराई कम हो जाती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ता जाता है। मालदह और मुर्शिदाबाद जिलों में भारी कटाव हुआ है। स्कूल और अस्पताल तथा गाँव बह गए हैं। लाखों लोग तटबन्धों पर झोपड़ी बनाकर रहने को विवश हो गए हैं। इसके साथ ही बिहार में भी बाढ़-कटाव का प्रकोप बहुत बढ़ा है। जल-जमाव बढ़ने के कारण डेढ़ करोड़ एकड़ से ज्यादा भूमि ऊसर हुई है। हर साल लगभग 75 हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि ऊसर होती जा रही है।
फरक्का बैराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवा-जाही रुक गई। फिश लैडर बाल-मिट्टी से भर गया (ऐसा दुनिया ज्यादातर बैराजों में हुआ है)। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है जबकी हिलसा की ब्रीडिंग इलाहाबाद से ऋषिकेश के बीच के मीठे पानी में होती है। इसके रुक जाने के कारण गंगा में 47 किस्म की मछलियाँ समाप्त प्राय हो गईं।
गंगा और उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत से ज्यादा मछलियाँ समाप्त हो गई हैं। इससे भोजन में (खासकर गरीबों के) प्रोटीन की भारी कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के शहरों से लेकर गाँवों तक के लोग आज आन्ध्र प्रदेश से लाई जा रही मछली खाते हैं। मछली से जीविका चलाते हुए भर पेट पौष्टिक भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए।
जब गडकरी साहब ने इलाहाबाद से डायमंड हारबर तक 16 बैराजों के निर्माण की बात शुरू की तो गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी। गंगा में नावों और छोटे जहाजों से नौ परिवहन क्यों नहीं हो सकता? विशाल जहाजों के चलाने के लिये बैराजों के निर्माण से गंगा छोटे-छोटे तालाबों में बदल जाएगी। इस से गंगा जल की गुणवत्ता काफी घट जाएगी। कौन नहीं जानता - ‘बँधा जल गन्दा, बहता निर्मल होए’। गंगा की उड़ाही (डी सिल्टिंग) की बात तो ठीक है, लेकिन बैराजों की शृंखला खड़ी करके गंगा की उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझ-बूझ की बात नही हैं।
अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर इसी तरह के बैराज बने थे, लेकिन उससे फायदा की जगह भारी नुकसान होने लगा। पिछले 15 साल से अमेरिकी सरकार उन बैराजों की डीकमीशनिंग करवा रही है, यानी तुड़वा रही है। ध्यान देने की बात है कि मिसिसिपी घाटी में जितना सिल्ट हर साल आता है उससे दोगुना सिल्ट गंगा घाटी में आता है। गंगा महाराष्ट्र या दक्षिण भारत की नदी नहीं है। यह भारी मात्रा में सिल्ट प्रवाहित करने वाले हिमालय की नदी है। इसके साथ इस प्रकार की छेड़छाड़ तबाही को ही जन्म देगी।
गंगा किनारे रिवर फ्रंट बनाने या उसे पिकनिक स्पॉट बनाने तथा मुनाफे के लिये ऐयाशी के अड्डे खड़े करने की कोशिश पूरे गंगा क्षेत्र को सेक्स टूरिज़्म के अड्डों में बदल देगी, जैसा दुनिया के अनेक समुद्रतटीय हिस्सों में हुआ है। अगर ऐसा हुआ तो न केवल हमारी संस्कृति को खतरा होगा, बल्कि धर्म के नाम पर यह घोर अधार्मिक कृत्य भी हो जाएगा। लगता है केन्द्र सरकार ने इन पहलुओं पर विचार नहीं किया है। अन्तरराष्ट्रीय कारपोरेट ठेकेदार तो गंगा का बाज़ारीकरण करके भारी मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं।
भारत की सरकार को इस परियोजना को आगे बढ़ाने से पहले सभी पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ढाई हजार किलोमीटर लम्बी गंगा के दोनों ओर के लाखों लोग उठ खड़े होंगे। इस सवाल पर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के अनेक संगठन, व्यक्ति, वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री तथा जागरूक लोग सक्रिय हो गए हैं।
आज से 33 वर्ष पहले कहलगाँव (भागलपुर बिहार) से गंगा मुक्ति आन्दोलन शुरू हुआ था। उसमें बड़ी-बड़ी सफलताएँ भी मिली थीं। गंगा समेत बिहार की सभी नदियों में मछुआरों को बिना टैक्स मछली पकड़ने का अधिकार मिला था। हिमालय और गंगा के बुनियादी सवालों को तभी से उठाया जा रहा है। लेकिन आज भी ये सवाल अनुत्तरित हैं।
महामना मदन मोहन मालवीय ने अंग्रेजी राज के दौरान सबसे पहले गंगा को बाँधने का सफलतापूर्वक विरोध किया था। बाद में गाँधी जी की शिष्या सरला बहन ने हिमालय की रक्षा का सवाल उठाया था। फिर सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डी प्रसाद भट्ट और गंगा मुक्ति आन्दोलन आगे आया।
निर्मल गंगा, अविरल गंगा का नारा लगाते-लगाते जो लोग गंगा को बाँधने की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं उससे गंगा क्षेत्र के साधु-सन्त, कबीर पंथी, पादरी, मौलवी तथा सभी धर्मों के लोग नाराज़ हैं। वैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका गंगा और हिमालय पर बाँध-बैराज की शृंखला खड़ी करने की अवैज्ञानिक योजना के विरोध में खड़ा है।
एक समय राजीव गाँधी ने गंगा की सफाई की योजना बड़े जोर-शोर से शुरू की थी। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा और उसकी सहायक नदियों का प्रदूषण बढ़ता ही गया। मनमोहन सिंह के समय तक गंगा सफाई के नाम पर पैंतीस हजार करोड़ रुपए विभिन्न मदों में खर्च हुए ऐसा भी कई लोग बताते हैं। उन्होंने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी ही घोषित कर दिया था। लेकिन कुछ हुआ नहीं।
केन्द्र की नई सरकार ने भी गंगा नदी से जुड़ी समस्याओं पर काम करने का फैसला किया है। तीन-तीन मन्त्रालय इस पर सक्रिय हुए हैं। लेकिन गंगा का सवाल जितना आसान दिखता है, वैसा है नहीं। यह बहुत जटिल प्रश्न है। गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि गंगा को निर्मल और स्वच्छ रखने के लिये देश की कृषि, उद्योग, शहरी विकास तथा पर्यावरण सम्बन्धी नीतियों में मूलभूत परिवर्तन लाने की जरूरत पड़ेगी। अभी जो बाजारवादी और काॅरपोरेटी समाधान सामने लाए जा रहे हैं। उससे पूरी गंगा बेसिन और उसके आस-पास बसे लोगों की जीविका, नदी पर उनके सामुदायिक अधिकार, खेती और उनकी बसाहट भी क्षतिग्रस्त हो जाएगी।
दरअसल, ‘गंगा को साफ करने’ या ‘क्लीन गंगा की अवधारणा ही सही नदी है। सही अवधारणा तो यह होनी चाहिए कि गंगा को या नदियों को गन्दा मत करों’ काफी हद तक शुद्धिकरण तो नदियाँ खुद करती हैं। नदी जल में बड़ी संख्या में एक कोषीय प्लैंक्टन होते हैं जो सूर्य की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं। गन्दी चीजें सोख लेते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यही नदी के स्वयं शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। गंगा में और भी विशेष गुण हैं।
वैज्ञानिकों ने हैजे के जीवाणुओं को गंगा के स्वच्छ जल में डालकर देखा तो पाया कि चार घण्टे बाद हैजे के जीवाणु नष्ट हो गए थे। अब उस गंगा को कोई साफ करने की बात करे तो इसे नासमझी ही माना जाएगा। अगर कोई समझता है कि लोगों के नहाने या कुल्ला करने से या भैंसों के गोबर करने से गंगा या कोई अन्य नदी प्रदूषित होती है तो यह हँसने की बात ही होगी।
कुछ वर्ष पहले आगरा में यमुना नदी में तैरकर नहा रही 35 भैंस वालों को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले आए थे। भैंस वालों ने कई दिनों बाद बड़ी मुश्किल से भैसों को थाने से छुड़ाया था। यमुना में जहरीला कचरा बहाने वाले फैक्ट्रियों के मालिक या शहरी मल-जल बहाने वाले म्युनिसिपल काॅरपोरेशन के अधिकारी कभी पुलिस के निशाने पर नहीं रहे। ऐसे तो नदी के प्रदूषण के कई कारक हैं लेकिन पहले हम उनके तीन प्रमुख कारकों की चर्चा करते हैं।
औद्योगिक प्रदूषण
नदियों के प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों एवं रंगीन या काले तरल (एफ्लूएंट) का गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि दलील देते हैं कि गंगा के प्रदूषण के लिये इंडस्ट्रीयल एफ्लूएंट सिर्फ 8 प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आँकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है। लेकिन जितना भी एफ्लूएंट गिरता है वह कम नहीं है। जब कल-कारखानों या थर्मल पावर स्टेशन का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन नदी में गिरता है तो नदी की स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है।
इससे नदी में डेड जोन बन जाते हैं। गंगा नदी में जगह-जगह एक किलोमीटर से बीस किलोमीटर तक के डेड जोन बन गए हैं। इस जोन से गुजरने वाली मछली, डाॅल्फिन या कोई जीव-जन्तु तथा वनस्पति जीवित नहीं बचता। नदी के अन्दर के इन मौत के इलाकों को समाप्त करने के लिये औद्योगिक एफ्लूएंट गिराने पर सख्त पाबन्दी जरूरी है। कानून बनाकर ऐसी फैक्टरियों को सील करना पड़ेगा और उनके मालिकों/प्रबन्धकों को कानून का उल्लंघन करने पर जेल भेजना होगा। जरूरी हो तो ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिये उद्योगों को सब्सिडी दी जा सकती है। अन्यथा निर्मल गंगा की रट लगाना बन्द कर देना चाहिए।
रासायनिक फर्टिलाइजर, पेस्टीसाइड पर रोक जरूरी
अभी देश की लगभग 40 प्रतिशत कृषि भूमि की सिंचाई का प्रबन्ध है। इसी सिंचित भूमि में रासायनिक खादों तथा कीटनाशकों का ज्यादा प्रयोग होता है। खेतों से बहकर ये रसायन नदी में पहुँचते हैं तथा जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों को नष्ट करके नदी की पारिस्थितिकी को बिगाड़ देते हैं। इन रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों से हमारी खेती भी ऊसर होती जा रही है और फलों-सब्जियों एवं अनाजों के माध्यम से लोगों के खून में जहर पहुँच रहा है।
लोग कैंसर, मिस्कैरेज तथा अन्य घातक बीमारी के शिकार हो रहे हैं। गंगा तथा अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने के लिये रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी (जो लगभग एक लाख करोड़ रुपए सालाना के आस-पास होती है) को बन्द करके यह राशि जैविक खेती करने वाले किसानों को दी जानी चाहिए। इसके बिना न तो नदी स्वस्थ और निर्मल रहेगी और न ही मनुष्य स्वस्थ रह सकेगा। जैविक खेती में खेती की लागत भी घटती है और किसानों का मुनाफा भी बढ़ता है।
शहरों के सीवर और नालों से बहने वाले एफ्लूएंट को ट्रीट करने की बातें बहुत हो चुकी है। लेकिन नतीजा अभी तक दिखाई नहीं पड़ा है। शहरी मल-जल ऐसी चीज है जिसे सोना बनाया जा सकता है। कुछ शहरों में इस कचरे से खाद बनाई जाती है और पानी को साफ करके खेतों की सिंचाई के काम में लाया जाता है।
इस ट्रीटेड पानी को भी नदी में नहीं गिराना चाहिए क्योंकि उसमें इतना कोलीफार्म बैक्टीरिया होता है जो नहानेे के लिये भी उचित नहीं है। इसका उपयोग उद्योगों, सड़कों तथा ट्रेनों आदि के धोने में किया जा सकता है। ऐसा प्रयोग गंगा तथा अन्य नदियों के सभी शहरों-कस्बों में किया जाना चाहिए।
प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में वरुणा और असि नदी गंगा में मिलती है। ये नदियाँ शहर की सारी गन्दगी गंगा में डालती हैं। अब तो भू-माफिया वरुणा और असि के किनारे मिट्टी भर-भर के उस पर मकान भी बनवाने लगा है। चिराग तले के इस अन्धेरे को दूर करने की शुरूआत हो तो अच्छा रहेगा।
बंधा जल गन्दा, बहता निर्मल होए
गंगा तथा अन्य नदियों पर नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन से पहले उन करोड़ो लोगों पर नजर डालना जरूरी है, जिनकी जीविका और जिनका सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन इनसे जुड़ा है। लगभग नौ राज्यों की नदियों का पानी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गंगा में मिलती है। इन नदियों के प्रदूषण का असर भी गंगा पर पड़ता है। गंगा में हिमालय क्षेत्र में टिहरी तथा अन्य स्थानों पर बाँध बना दिए गए। इससे गंगा के जल प्रवाह में भारी कमी आई है।
16 बाँध बँध चुके हैं, 13 बाँधों का निर्माण जारी है और 54 बाँधों के प्रोजेक्ट प्रस्तावित हैं। एक तो पहले ही हिमालय के सघन वनों की कटाई से हिमालय क्षतिग्रस्त था, इन बाँधों के कारण हिमालय क्षेत्र में तबाही मचने का सिलसिला शुरू हो चुका है। बद्रीनाथ धाम में हुआ दिल दहलाने वाला हादसा उसका एक जीता-जागता उदाहरण है। पूरा हिमालय क्षेत्र प्रलय क्षेत्र बनता जा रहा है। नेपाल में भी हाई डैमों के निर्माण की बात चलती रहती है।
नदियों के प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों एवं रंगीन या काले तरल का गिराया जाना। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि दलील देते हैं कि गंगा के प्रदूषण के लिये इंडस्ट्रीयल एफ्लूएंट सिर्फ 8 प्रतिशत जिम्मेदार है। यह आँकड़ा विश्वास करने योग्य नहीं है। लेकिन जितना भी एफ्लूएंट गिरता है वह कम नहीं है। जब कल-कारखानों या थर्मल पावर स्टेशन का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन नदी में गिरता है तो नदी की स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है।
विश्व की पर्वत शृंखलाओं में हिमालय सबसे नया पहाड़ है। हिमालय का धरती के भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच की टकराहट और लगातार बन रहे दबाव से उत्पन्न उभारों का परिणाम है। आज भी भारतीय प्लेट यूरेशिया की ओर धँसता जा रहा है और हिमालय पर्वत शृंखलाओं की संरचना प्रक्रिया आज भी चल रही है। विच्छेदक भ्रंश (डिटैचमेंट फाॅल्ट), जो सक्रिय अवस्था में है, उत्तर-भारत के मैदानी इलाकों से उत्तर की ओर नीचे चला गया है।ज्यादातर समय तो यह भ्रंश अपनी जगह पर रहता है, किन्तु अक्सर ऐसा भी होता है कि जब इस भ्रंश में इतनी अधिक लचकदार ऊर्जा जमा हो जाय कि अवरोध के कारण रुका महाद्वीप धक्के से आगे बढ़ने लगे तो उस समय एकाएक यह भ्रंश अपनी जगह से खिसककर 30 फीट या उससे भी अधिक नीचे चला जाता है। इससे एक भीषण भूकम्प हुए नहीं रहता।
हिमालय क्षेत्र में हर साल लगभग एक हजार भूकम्प के झटके आते हैं। कभी-कभी भीषण भूकम्प के खतरे को और भी बढ़ा देता है। इसलिये एक नई हिमालय नीति की भी जरूरत है। विनाशकारी बाँधों का निर्माण रोका जाना चाहिए और निर्मित बाँधों की साईटिफिक डीकमीशनिंग होनी चाहिए। क्या सरकार इस दिशा में सोचने की हिम्मत जुटा सकेगी?
फरक्का बैराज से विनाश
1971 में पश्चिम बंगाल में गंगा पर फरक्का बैराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बैराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा की उड़ाई हो जाती थी। जब से फरक्का बैराज सिल्ट के उड़ाई की प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियों की उड़ाई प्रक्रिया भी रुक गई और बाढ़ तथा जल जमाव क्षेत्र हर साल बढ़ने लगा।
जब नदी की गहराई कम हो जाती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ता जाता है। मालदह और मुर्शिदाबाद जिलों में भारी कटाव हुआ है। स्कूल और अस्पताल तथा गाँव बह गए हैं। लाखों लोग तटबन्धों पर झोपड़ी बनाकर रहने को विवश हो गए हैं। इसके साथ ही बिहार में भी बाढ़-कटाव का प्रकोप बहुत बढ़ा है। जल-जमाव बढ़ने के कारण डेढ़ करोड़ एकड़ से ज्यादा भूमि ऊसर हुई है। हर साल लगभग 75 हजार एकड़ अतिरिक्त भूमि ऊसर होती जा रही है।
फरक्का बैराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवा-जाही रुक गई। फिश लैडर बाल-मिट्टी से भर गया (ऐसा दुनिया ज्यादातर बैराजों में हुआ है)। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है जबकी हिलसा की ब्रीडिंग इलाहाबाद से ऋषिकेश के बीच के मीठे पानी में होती है। इसके रुक जाने के कारण गंगा में 47 किस्म की मछलियाँ समाप्त प्राय हो गईं।
गंगा और उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत से ज्यादा मछलियाँ समाप्त हो गई हैं। इससे भोजन में (खासकर गरीबों के) प्रोटीन की भारी कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के शहरों से लेकर गाँवों तक के लोग आज आन्ध्र प्रदेश से लाई जा रही मछली खाते हैं। मछली से जीविका चलाते हुए भर पेट पौष्टिक भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए।
गंगा वाटर-वे और प्रस्तावित 16 बैराज
जब गडकरी साहब ने इलाहाबाद से डायमंड हारबर तक 16 बैराजों के निर्माण की बात शुरू की तो गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी। गंगा में नावों और छोटे जहाजों से नौ परिवहन क्यों नहीं हो सकता? विशाल जहाजों के चलाने के लिये बैराजों के निर्माण से गंगा छोटे-छोटे तालाबों में बदल जाएगी। इस से गंगा जल की गुणवत्ता काफी घट जाएगी। कौन नहीं जानता - ‘बँधा जल गन्दा, बहता निर्मल होए’। गंगा की उड़ाही (डी सिल्टिंग) की बात तो ठीक है, लेकिन बैराजों की शृंखला खड़ी करके गंगा की उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना सूझ-बूझ की बात नही हैं।
अमेरिका की मिसिसिपी नदी पर इसी तरह के बैराज बने थे, लेकिन उससे फायदा की जगह भारी नुकसान होने लगा। पिछले 15 साल से अमेरिकी सरकार उन बैराजों की डीकमीशनिंग करवा रही है, यानी तुड़वा रही है। ध्यान देने की बात है कि मिसिसिपी घाटी में जितना सिल्ट हर साल आता है उससे दोगुना सिल्ट गंगा घाटी में आता है। गंगा महाराष्ट्र या दक्षिण भारत की नदी नहीं है। यह भारी मात्रा में सिल्ट प्रवाहित करने वाले हिमालय की नदी है। इसके साथ इस प्रकार की छेड़छाड़ तबाही को ही जन्म देगी।
गंगा किनारे रिवर फ्रंट बनाने या उसे पिकनिक स्पॉट बनाने तथा मुनाफे के लिये ऐयाशी के अड्डे खड़े करने की कोशिश पूरे गंगा क्षेत्र को सेक्स टूरिज़्म के अड्डों में बदल देगी, जैसा दुनिया के अनेक समुद्रतटीय हिस्सों में हुआ है। अगर ऐसा हुआ तो न केवल हमारी संस्कृति को खतरा होगा, बल्कि धर्म के नाम पर यह घोर अधार्मिक कृत्य भी हो जाएगा। लगता है केन्द्र सरकार ने इन पहलुओं पर विचार नहीं किया है। अन्तरराष्ट्रीय कारपोरेट ठेकेदार तो गंगा का बाज़ारीकरण करके भारी मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं।
भारत की सरकार को इस परियोजना को आगे बढ़ाने से पहले सभी पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ढाई हजार किलोमीटर लम्बी गंगा के दोनों ओर के लाखों लोग उठ खड़े होंगे। इस सवाल पर उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के अनेक संगठन, व्यक्ति, वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री तथा जागरूक लोग सक्रिय हो गए हैं।
आज से 33 वर्ष पहले कहलगाँव (भागलपुर बिहार) से गंगा मुक्ति आन्दोलन शुरू हुआ था। उसमें बड़ी-बड़ी सफलताएँ भी मिली थीं। गंगा समेत बिहार की सभी नदियों में मछुआरों को बिना टैक्स मछली पकड़ने का अधिकार मिला था। हिमालय और गंगा के बुनियादी सवालों को तभी से उठाया जा रहा है। लेकिन आज भी ये सवाल अनुत्तरित हैं।
महामना मदन मोहन मालवीय ने अंग्रेजी राज के दौरान सबसे पहले गंगा को बाँधने का सफलतापूर्वक विरोध किया था। बाद में गाँधी जी की शिष्या सरला बहन ने हिमालय की रक्षा का सवाल उठाया था। फिर सुन्दरलाल बहुगुणा, चण्डी प्रसाद भट्ट और गंगा मुक्ति आन्दोलन आगे आया।
निर्मल गंगा, अविरल गंगा का नारा लगाते-लगाते जो लोग गंगा को बाँधने की योजना को आगे बढ़ा रहे हैं उससे गंगा क्षेत्र के साधु-सन्त, कबीर पंथी, पादरी, मौलवी तथा सभी धर्मों के लोग नाराज़ हैं। वैज्ञानिकों का एक बड़ा तबका गंगा और हिमालय पर बाँध-बैराज की शृंखला खड़ी करने की अवैज्ञानिक योजना के विरोध में खड़ा है।