पुस्तक परिचय : 'जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण'

Submitted by Editorial Team on Tue, 04/18/2017 - 16:42
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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरणजल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरणस्वतंत्र मिश्र की पुस्तक ‘जल, जंगल और जमीन : उलट पुलट पर्यावरण’ प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन से उत्पन्न आपदाओं और खतरों को समझने और उसका विश्लेषण करने की एक गम्भीर कोशिश है। मनुष्य प्रकृति का अंश है, लेकिन पिछली एक-दो शताब्दी में मनुष्य ने खुद को प्रकृति का जेता समझ लिया। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ एक प्रकार का युद्ध छेड़ दिया गया। जब प्रकृति का पलटवार शुरू हुआ तो पूरी धरती का पर्यावरण संकट में पड़ गया। पूरी मानव-जाति और जीव-जगत के समाप्त हो जाने का खतरा आसन्न है और इस खतरे को टालने के लिये हमारे पास बहुत कम समय बचा है। प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर ही मानव-जाति अपना अस्तित्व कायम रख सकती है।

अमीर देशों ने प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को तीसरी दुनिया के देशों में स्थानान्तरित करना शुरू कर दिया है। बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इसकी अग्रदूत बनी हैं और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर तथा तीव्र विकास के नाम पर अमीर देशों से गरीब देशों की ओर प्रदूषण का निर्यात हो रहा है। विदेशी पूँजी पर आधारित विकास की परियोजनाएँ, उद्योग और व्यापार हमारे परम्परागत रोजगार के साधनों को समाप्त करते जा रहे हैं। जिन जहरीले कीटनाशकों को अमीर देश प्रतिबन्धित कर चुके हैं, उनका हमारे देश में धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। किसानों को कंगाल बनाने और उन्हें खेती से बेदखल करने वाली नीतियाँ चलाई जा रही हैं और जिसके चलते लाखों किसान आत्महत्या कर रहे हैं।

जिस रास्ते पर चलकर अमेरिका तथा अन्य औद्योगिक देश पृथ्वी को प्रलय और विनाश के रास्ते पर ले जा रहे हैं, उसकी नकल करके हम सुख-समृद्धि नहीं ला सकते। पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक प्रगति के बीच तालमेल करके चलने से ही मानव सभ्यता विनाश से बच सकती है। वैभव, विलास और अत्यधिक उपभोग वाली जीवन-पद्धति की नकल करना समझदारी की बात नहीं है। बल्कि उस जीवन पद्धति को बदल कर सादगी का रास्ता अपनाने के लिये हम अमीर देशों पर संगठित दबाव डालें।

स्वतंत्र मिश्र सामाजिक सरोकार वाले संवेदनशील पत्रकार हैं। जमीनी हकीकतों और जन संघर्षों से इनका जीवन्त रिश्ता रहा है। इनकी लेखनी बुनियादी प्रश्नों और नीतियों का परत-दर-परत मूल्यांकन और विवेचन करती है। इस किताब में रोचकता भी है और वैचारिक गहराई भी। मुद्दों की विविधता के साथ इसमें सभी आलेखों के बीच एक आन्तरिक सूत्रबद्धता भी है। मनुष्य और प्रकृति के मधुर सम्बन्धों की बुनियाद पर समतामूलक लोकतांत्रिक समाज रचना का पथ प्रशस्त करना इस पुस्तक का उद्देश्य है।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


 

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