क्या है सिलिकोसिस

Submitted by Hindi on Mon, 05/30/2011 - 11:01
Source
जनसत्ता रविवारी, 29 मई 2011
सिलिका कणों और टूटे पत्थरों की धूल की वजह से सिलिकोसिस होती है। धूल सांस के साथ फेफड़ों तक जाती है और धीरे-धीरे यह बीमारी अपने पांव जमाती है। यह खासकर पत्थर के खनन, रेत-बालू के खनन, पत्थर तोड़ने के क्रेशर, कांच-उद्योग, मिट्टी के बर्तन बनाने के उद्योग, पत्थर को काटने और रगड़ने जैसे उद्योगों के मजदूरों में पाई जाती है। इसके साथ ही स्लेट-पेंसिल बनाने वाले उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों को भी सिलिकोसिस अपनी गिरफ्त में लेती है। जहां इस तरह के काम बड़े पैमाने पर होते हैं वहां काम करने वाले मजदूरों के अलावा आसपास के रहिवासियों के भी सिलिकोसिस से प्रभावित होने का खतरा होता है।

डॉक्टर शैलेंद्र पटने बताते हैं कि यह एक लाइलाज बीमारी है। इसे रोकने का आज तक कोई कारगर तरीका नहीं बनाया जा सका है। कंपनियों में मजदूरों को दिए जाने वाले मास्क के परीक्षण के बाद उनका कहना है कि यह मास्क भी बारीक कणों को सांस के द्वारा अंदर जाने से रोक पाने में सक्षम नहीं है। दरअसल यह सिलिका कण सांस के द्वारा पेफड़ों के अंदर तक तो पहुंच जाते हैं लेकिन बाहर नहीं निकल पाते।

इसका नतीजा यह होता है कि वह फेफड़ों की दीवारों पर धीरे-धीरे जम कर एक मोटी परत बना लेते हैं। इससे फेफड़े ठीक से फैलना और सिकुड़ना बंद कर देते हैं। इससे सांस लेने में काफी तकलीफ होती है। धीरे-धीरे सांस लेने की पूरी प्रक्रिया को यह प्रभावित करता है और आखिरकार आदमी की मौत हो जाती है।

शैलेंद्र कहते हैं कि सिलिकोसिस एक लाइलाज बीमारी है। इसे केवल जागरूकता से रोका जा सकता है। गुजरात के कारखानों में सुरक्षा के लिए दिए जाने वाले मास्क इसे रोक पाने में सक्षम नहीं हैं।

इलाके में सिलिकोसिस को पहचानने वाले चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ जीडी वर्मा का मानना है कि सिलिकोसिस प्रभावित लोगों का पूरा परिवार प्रभावित होता है। इसके प्रति सरकार को संवेदनशीलता के साथ सोचना चाहिए। इसकी जड़ में कहीं न कहीं आजीविका से जुड़े सवाल भी हैं। स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता से पलायन रुकेगा और सिलिकोसिस को भी रोका जा सकेगा।