भूमि अधिग्रहण कानून

Submitted by Hindi on Tue, 09/06/2011 - 12:36
Source
गांधी-मार्ग, सितंबर-अक्टूबर 2011

देश भर में अब तक 18 कानूनों के जरिए भूमि अधिग्रहण किया जाता रहा है। यह बात भी सामने आई है कि एक बार जमीन ले लेने के बाद उनके बलिदान के बदले उनको एक सम्मानपूर्ण जिंदगी देने में यह कानून विफल रहा है।

आजादी के बाद से देश में अब तक साढ़े तीन हजार परियोजनाओं के नाम पर लगभग दस करोड़ लोगों को विस्थापित किया जा चुका है। लेकिन अब जाकर सरकार को होश आया है कि विस्थापितों की जीविका की क्षति, पुनर्वास-पुनर्स्थापन और ठीक मुआवजा उपलबध कराने के लिए एक राष्ट्रीय कानून का अभाव है। यानी इतने सालों के भ्रष्टाचार, अत्याचार, अन्याय पर सरकार खुद अपनी ही मुहर लगा रही है। अनेक आंदोलन संगठन कई सालों से इस सवाल को उठाते आ रहे थे कि लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने में सरकारें कोई कोताही नहीं बरतती हैं। लेकिन जब बात उनके हकों की, आजीविका की बेहतर पुनर्वास और पुनर्स्थापन की आती है तो सरकारें कन्नी काटती नजर आती हैं। प्रशासनिक तंत्र भी कम नहीं है, जिसने खैरात की मात्रा जैसी बांटी गई सुविधाओं में भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा है।

इसके कई उदाहरण है कि किस तरह मध्य प्रदेश में सैकड़ों-साल पहले बसे बाईस हजार की आबादी वाले एक जीते-जागते हरसूद शहर को उखाड़ कर एक बंजर इलाके में बसाया गया। कैसे तवा बांध के विस्थापितों से उनकी ही जमीन पर बनाए गए बांध से उनका मछली पकड़ने का हक भी छीन लिया गया। एक उदाहरण यह भी है कि बरगी बांध से विस्थापित हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी का भरोसा दिलाया गया। पर आज बांध बनने के तीन दशक बाद भी प्रत्येक विस्थापित परिवार को तो क्या एक परिवार को भी नौकरी नहीं मिल सकी है।

जिस कानून के निर्माण का आधार और मंशा ही संसाधनों को छीनने और उनका अपने हक में दोहन करना हो, उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है। लेकिन दुखद तो यह है कि सन् 1894 में बने ऐसे कानून को आजादी के इतने सालों बाद तक भी ढोया जाता रहा। इस कानून में अधिग्रहण की बात तो थी, लेकिन बेहतर पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अभाव था। यही कारण था कि देश के सभी हिस्सों में भूमि अधिग्रहण अधिनियम विकास का नहीं, बल्कि विनाश का प्रतीक बनकर बार-बार सामने आता रहा है।

सरकार अब एक नया कानून लाना चाहती है। इस संबंध में देश में कोई राष्ट्रीय कानून नहीं होने से तमाम व्यवस्थाओं ने अपने-अपने कारणों से लोगों से उनकी जमीन छीनने का काम किया है। देश भर में अब तक 18 कानूनों के जरिए भूमि अधिग्रहण किया जाता रहा है। यह बात भी सामने आई है कि एक बार जमीन ले लेने के बाद उनके बलिदान के बदले उनको एक सम्मानपूर्ण जिंदगी देने में यह कानून विफल रहा है।

लेकिन नए कानून में जितना जोर जमीन के अधिग्रहण पर है उतना ही जोर प्रभावितों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन पर भी होना चाहिए। लेकिन इस नजरिए से नए कानून में कोई भी ठोस अंतर दिखाई नहीं देता। कानून में मुआवजा, पुनर्वास और पुनर्स्थापन के प्रावधान सैद्धांतिक रूप से तो हैं पर उन्हें जमीन पर उतारने की प्रक्रियाएं स्पष्ट नहीं हैं।

आजादी के बाद से अब तक हुए विस्थापन के आंकड़े हमें बताते हैं कि सर्वाधिक विस्थापन आदिवासियों का हुआ है। नर्मदा नदी पर बन रहे सरदार सरोवर बांध से दो लाख लोग प्रभावित हुए। इनमें से 57 प्रतिशत आदिवासी हैं। महेश्वर बांध में भी बीस हजार लोगों की जिंदगी गई, इनमें साठ प्रतिशत आदिवासी हैं। आदिवासी समाज का प्रकृति के साथ एक अटूट नाता है। विस्थापन के बाद उनके सामने पुनर्स्थापित होने की चुनौती सबसे ज्यादा होती है। उपेक्षित और वंचित बना दिए गए आदिवासी समुदाय के लिए इस प्रस्तावित अधिनियम में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। लेकिन इस मसौदे में इसी बिंदु पर सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है।

मसौदे में कहा गया है कि ऐसे सभी जनजातीय क्षेत्रों में जहां कि सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जा रहा हो, वहां एक जनजातीय विकास योजना बनाई जाएगी। देश की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है। मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिए इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं किए जाने पर आगामी विकास योजनाओं के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही। उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन भी नहीं मिल पाएगा।

प्रस्तावित अधिनियम में जमीन के मामले पर भी सिंचित और बहुफसलीय वाली कृषि भूमि के अधिग्रहण नहीं किए जाने की बात कही गई है। जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादातर भूमि वर्षा आधारित है और साल में केवल एक फसल ही ली जाती है। तो क्या इसका आशय यह है कि आदिवासियों की एक फसली और गैरसिंचित भूमि को आसानी से अधिग्रहित किया जा सकेगा?

देश की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है। मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिए इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं किए जाने पर आगामी विकास योजनाओं के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही।

सरकार जिस तरह अब खुद कहने लगी है कि तेल की कीमतें उसके नियंत्रण में नहीं हैं। उसी तरह संभवतः इस तंत्र को सुधार पाना भी उसके बस में नहीं है। भूमि अधिग्रहण का यह प्रस्तावित कानून भी ऐसी ही बात करता है। किसी नागरिक द्वारा दी गई गलत सूचना अथवा भ्रामक दस्तावेज प्रस्तुत करने पर एक लाख रुपए तक अर्थदंड और एक माह की सजा का प्रावधान किया गया है। गलत सूचना देकर पुनर्वास का लाभ प्राप्त करने पर उसकी वसूली की बात भी कही गई है। लेकिन मामला जहां सरकारी कर्मचारियों द्वारा कपटपूर्ण कार्यवाही का आता है तो इस पर कोई स्पष्ट बात नहीं मिलती है। वहां पर केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुशासनात्मक कार्रवाई करने भर का जिक्र आता है।

इस कानून को दूसरी योजनाओं के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए कम दरों पर अनाज की उपलब्धता इस देश के गरीब और वंचित उपेक्षित लोगों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को कई तरह से सीमित करने की नीतिगत कोशिशें दिखाई देती हैं। विस्थापितों के पक्ष में इस योजना के महत्व को सभी मंचों पर स्वीकार किया जाता है। लेकिन भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास का यह प्रस्तावित कानून ठीक इसी तरह पारित हो जाता है तो तमाम विस्थापित लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे।

इस मसौदे में यह कहा गया है कि प्रभावित लोगों को ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्र के मापदंडों के मुताबिक पक्के घर बनाकर दिए जाएंगे। इसका एक पक्ष यह भी होगा कि ये गरीबी की रेखा से अपने आप ही अलग हो जाएंगे, क्योंकि यह आवास गरीबी रेखा में आने वाले मकान के मापदंडों से बड़ा होगा। ऐसे में उन्हें सस्ता चावल, गेहूं और केरोसीन उपलब्ध नहीं हो पाएगा। होना तो यह चाहिए कि ऐसे प्रभावित परिवार जो विस्थापन से पहले गरीबी रेखा की सूची में शामिल हैं, उन्हें पुनर्वास और पुनर्स्थापन के बाद भी गरीबी रेखा की सूची में विशेष संदर्भ मानते हुए यथावत रखा जाए।

कुल मिलाकर भूमि का अधिग्रहण समाज के लिए ग्रहण की तरह ही बना रहने वाला है।