लेखक
वास्को-द-गामा, गोवा
हाल ही अप्रैल 2017 में सामने आए कुछ ताजे वैज्ञानिक आंकड़ों ने एक बार फिर विश्व के बढ़ रहे तापमान के प्रति वैज्ञानिकों के साथ-साथ आम लोगों को भी और अधिक चिन्ता में डाल दिया है। भारत में इन दिनों यूँ भी लोग गर्मियों की शुरुआत से ही गर्मी की जलन और तपन महसूस करने लगे हैं। ऐसे में जब वैज्ञानिकों के आंकड़े भूमण्डलीय तापन के बढ़ने की पुष्टि करने लगते हैं, तो आम से लेकर खास व्यक्तियों तक यह विषय फिर चर्चाओं में सुर्खियाँ बटोरने लगता है।
यह आशंका जताई जा रही है कि तेज़ी से बढ़ रहे कार्बन-डाइऑक्साइड तथा मीथेन उत्सर्जनों के कारण सन 2021 तक विश्व का तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या 18 डिग्री फ़ारेनहाइट तक बढ़ सकता है। पश्चिम-अफ्रीका के गिनी में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि 21 अप्रैल 2017 को वहाँ दोपहर तीन बजे का तापमान 46.6 डिग्री सेल्सियस/115.8 डिग्री फ़ारेनहाइटथा। जबकि उसी दिन उसी समय उस स्थान से थोड़ा सा दक्षिण में सिएरा लियोना में एक स्थान पर कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ) का स्तर 15.28 पीपीएम दर्ज किया गया और वहाँ का तापमान 40.6 डिग्री सेल्सियस या 105.1 डिग्री फ़ारेनहाइट था। वहीं कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड के स्तर भी क्रमशः 569 पीपीएम और 149.97 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज किए गए। (चित्र-1 व 2) इन आंकड़ों को देखते हुए वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि दोनों कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड का इतनी उच्च मात्रा में उत्सर्जन उन क्षेत्रों के जंगलों में लगने वाली आग का कारण भी हो सकता है।
पश्चिम अफ्रीका के उसी स्थान पर लगभग 218 एमबी की ऊँचाई पर 22 अप्रैल, 2017 को आकलित उत्सर्जित मीथेन का स्तर भी 2402 पीपीबी पाया गया। अतः जंगल में लगी आग का संबंध मीथेन उत्सर्जन से भी हो सकता है। उस स्थान विशेष पर किए गए प्रयोगों में पाया गया है कि 2013 से 2017 के दौरान विभिन्न ऊँचाइयों पर मापे गए मीथेन का उत्सर्जन स्तर क्रमशः बढ़ा है। आंकड़ों से स्पष्ट हुआ है कि समुद्र तल के निकटकम ऊँचाई वाले स्थान की तुलना में जहाँ ट्रॉपस्फीयर भूमध्य रेखा पर समाप्त होता है, वहाँ 6 से 17 किमी के बीच उच्च ऊँचाई पर मीथेन का स्तर बढ़ रहा है।
यह बात अब भली भांति स्पष्ट हो चुकी है कि वर्तमान में बढ़ रहे भूमण्डलीय तापन से महासागर भी प्रभावित होते हैं। अप्रैल 2017 को किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में दुनिया के चार अलग-अलग कोनों पर स्थित स्थानों क्रमशः जापान के निकट, बेरिंग स्ट्रेट, अमेरिकी तट के निकट और स्वालबार्ड के निकट समुद्री सतह की तापमान विसंगतियों की तुलना की गई, जो क्रमशः 9 डिग्री सेल्सियस/16.2 डिग्री फ़ारेनहाइट, 3.2 डिग्री सेल्सियस/5.8 डिग्री फ़ारेनहाइट, 7.4 डिग्री सेल्सियस/13.3 डिग्री फ़ारेनहाइट एवम 10 डिग्री सेल्सियस/18 डिग्री फ़ारेनहाइट दर्ज की गईं।
महासागरों में समुद्री बर्फ की कमी के कारण उस पर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश का परावर्तन अपेक्षाकृत कम हो जाता है और समुद्र द्वारा प्रकाश की अधिकांश मात्रा अवशोषित कर लिये जाने के कारण समुद्री सतह के तापमान में तेजी से वृद्धि हो रही है। महासागरों की गहरी परतों तक ऊष्मा की कम मात्रा पहुँच पाती है, क्योंकि ऊष्मा की अधिकांश मात्रा महासागरों की ऊपरी सतहों के ठीक नीचे संचयित हो जाती है। उत्तरी अटलांटिक महासागर के शीर्ष पर शीतल अलवणीय जल धारा के साथ आने वाले शक्तिशाली तूफानों के कारण सम्भवतः अटलांटिक महासागर द्वारा अवशोषित ऊष्मा की अधिकांश मात्रा आर्कटिक महासागर में धकेल दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप समुद्री बर्फ का ह्रास होता है और ऐसा होने से अवशोषित ऊष्मा आर्कटिक महासागर से वायुमंडल में भेजी जाती है, परन्तु आर्कटिक के ऊपर बने बादलों के कारण अपेक्षाकृत निम्न ऊष्मा ही अंतरिक्ष में विकीर्ण हो पाती है।
इस तरह आर्कटिक महासागर और भूमध्य रेखा के तापमान में अंतर होने के कारण उत्तरी ध्रुवीय जेट स्ट्रीम में बदलाव से भी आर्कटिक में तापन बढ़ रहा है। आर्कटिक महासागर में अटलांटिक महासागर से अधिक गर्मी का कारण आर्कटिक महासागर की समुद्री वायु में मीथेन हाइड्रेट्स का पाया जाना भी माना जा रहा है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आर्कटिक महासागर का एक बड़ा हिस्सा बहुत उथला है, जिससे अन्य समुद्रों की ऊष्मा आसानी से यहाँ तक पहुँच जाती है और इस तरह गर्म हुआ आर्कटिक अपने ही समुद्र तल के तलछटों को अस्थिर कर देता है जिससे उनमें बड़ी मात्रा में उपस्थित मीथेन का उत्सर्जन होने लगता है। इस तरह उत्पन्न मीथेन समुद्री जल में सूक्ष्म जीवों द्वारा विघटित किए बिना ही वातावरण में प्रवेश कर जाती है।
लगातार होते जा रहे शोधों से इतनी असमंजस की स्थितियाँ पैदा होती जा रही हैं कि कहा नहीं जा सकता कि विश्व में तापमान और कितनी तेजी से बढ़ सकता है? लेकिन जिस तरह से वैज्ञानिकों ने आने वाले दशकों में तापमान बढ़ने की 10 डिग्री सेल्सियस (18 डिग्री फ़ारेनहाइट) की संभावना जताई है, वह गहरी चिंता का विषय है। क्योंकि विश्व का लगातार बढ़ रहा तापमान मानव सहित कई प्रजातियों का तेजी से विलुप्त होने का कारण बन सकता है। निःसंदेह स्थिति गंभीर है तथा व्यापक और प्रभावी कार्रवाई की मांग करती है।