सर्वप्रथम डॉ होमी भाभा को शतश: नमनजिनकी दूरदृष्टि का प्रभाव यह है कि आज भारत के छ: पावर स्टेशन में 20 परमाणु-बिजली की इकाइयां काम कर रही हैं जिनमें 4780 मेगावॉट की क्षमता है। अन्य 29 इकाइयां निर्माणाधीन हैं या किसी योजना के अंतर्गत हैं। यह जानने के बाद स्वाभाविक प्रश्न उठेगा कि ऑस्ट्रेलिया ने इस दिशा में कितनी प्रगति की है? तो जवाब यह है कि मांग और पूर्ति की समीकरण दोनो देशों में अलग-अलग होने से तुलना करना बेकार है फिर भी आप नहीं मानते तो सुन लीजिये! यहाँ परमाणु-बिजली का एक भी पावर स्टेशन नहीं है और राजनैतिक वास्तविकता यह है कि अगले एक या दो दशकों में कोई रियेक्टर बनने वाला भी नहीं है । यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र (BARC) जैसा विशाल केन्द्र तो नहीं पर ऑस्ट्रेलियन नाभिकीय विज्ञान और तकनीकी संस्था ( ANSTO ) के अंतर्गत चार संस्थान हैं जिसमें ब्रेग संस्थान प्रमुख है जिसका नामकरण ब्रेग पिता-पुत्र को सम्मानित करता है जिन्हें 1915 में भौतिक शास्त्र में नोबल पुरस्कार मिला था। ANSTO के अंतर्गत शोध के लिये दो रियेक्टर हैं जिनमें से पहला 2007 में बन्द कर दिया गया और दूसरा OPAL नवम्बर 2006 से सक्रिय हुआ है। यह 20 मेगावॉट का रियेक्टर न्यूट्रोन के उपयोग से परमाणु-संरचना को समझने के लिये काम आता है। इसकी तुलना में भारत में शोध के लिये BARC में 4 सक्रिय तथा इंदिरा गांधी सेंटर में दो सक्रिय रियेक्टर हैं।
ऑस्ट्रेलिया में 1969 में पहला बिजली उत्पादक रियेक्टर बनने का प्रस्ताव आया था और ठुकरा भी दिया गया किन्तु भारत में बिजली की न्यूनतम आवश्यकता पूरी न हो पाने से इसके पास कोई विकल्प नहीं है । आस्ट्रेलिया में कार्बन-जनित ईंधन कम प्रदूषण वाला बहुतायत में पाया जाता है| यहाँ “साफ कोयला तकनीकी” भी है जब कि भारत में निम्न स्तरीय कोयला प्रयोग में लाया जाता है इन कारणो से परमाणु-बिजली देश की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। अत: आस्ट्रेलिया द्वारा भारत को यूरेनियम न बेचना विश्व में प्रदूषण को बढ़ावा देने के बराबर है।इसके विपरित ऑस्ट्रेलिया के पास विकल्प हैं। वह दोनो प्रकार की बिजली में से कौनसी महँगी पड़ेगी यह सोच सकता है। उसे जनमत और राजनैतिक कारणों की चिंता करना भी आवश्यक है। एक सर्वे के अनुसार 49% जनता ऑस्ट्रेलिया में पावर स्टेशन बनाने के पक्ष में है। 8% लोग तटस्थ है अत: हाँलांकि जनमत में विरोधी कमजोर पड़ जाते हैं पर शायद लिबरल पार्टी इस दिशा में कुछ कर पाये क्योंकि इस दल में से 59% लोग समर्थन करते हैं जबकि लेबर पार्टी में केवल 30% लोग परमाणु-बिजली के पक्ष में हैं। यूरेनियम की पूंजी की बात की जाय तो विश्व के यूरेनियम का 23% भाग ऑस्ट्रेलिया में होते हुये भी यह स्थिति है और इसकी तुलना में भारत में बहुत कम यूरेनियम है। इसका कुल यूरेनियम केवल 10,000 मेगावाट बिजली के लिये पर्याप्त होगा| यह यूरेनियम संवर्धित भी नहीं है।
इन स्थितियों में ऑस्ट्रेलिया ’विश्व में जलवायु परिवर्तन’ की चिंता में और परमाणु विरोधी अभियान की राजनीति में उलझ सकता है और वास्तव में उलझा हुआ है। तो इस परमाणु-समर्थक और परमाणु विरोधी अभियान में सही कौन है? बेरी ब्रूक ने 2010 में “क्यों बनाम क्यों : परमाणु शक्ति” नामक पुस्तक लिखी जिसमें जनमत को छोड़ कर वस्तुस्थिति के हिसाब से विचार किया गया है कि इस शक्ति के समर्थन या विरोध में किन तर्कों को सही माना जाना चाहिये?
ब्रूक के हिसाब से पक्ष में निम्न तर्क वाजिब हैं :(1) यह सबसे सुरक्षीत विकल्प है (2) परमाणु-शक्ति को असीमित कहा जा सकता है। (3) नवीनीकरण के योग्य स्रोतों से या कार्यक्षमता बढ़ाकर ईंधन की समस्या हल होने वाली नहीं है। (4) नई तकनीकी अपना कर परमाणु-कचरे का प्रबन्धन किया जा सकता है।
विरोधियों के इन तर्कों को दमदार ठहराया गया है। (1) परमाणु उर्जा खर्चीली है। (2) जो तकनीकी काम में लाई जा रही है उसमें परमाणु-कचरे की समस्या का समाधान नहीं है। (3) जलवायु-परिवर्तन की समस्या के लिये यह त्वरित हल नहीं है।
जैसा कि इस पुस्तक में स्पष्ट है कि यह सबसे सुरक्षित विकल्प है किन्तु फुकुशिमा में हाल में हुई दुर्घटना के कारण काफी लोग डर गये हैं, जो लोग अब तक जलवायु-परिवर्तन को रोकने के लिये आवश्यक मानते थे वे भी। परमाणु-लोबी में से ही एक दल का मानना है कि नवीनीकरण के योग्य उर्जा याने सौर, पवन या भूगर्भ उर्जा आदि भी जलवायु-परिवर्तन को रोकने के लिये सक्षम हैं और दीर्घ काल में ये सस्ते भी हो जायेंगे। अब ऐसे लोगों को परमाणु-विरोधी समझा जा रहा है और उन्हे पूर्वाग्रह से ग्रस्त ठहराया जा रहा है। यह दूसरा दल समझाने का प्रयत्न कर रहा हैं कि जापानी प्लांट तो योजना के अनुसार काम कर रहा था। इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। परमाणु-विरोधी-दल भय की राजनीति से लाभ उठाने वाला काम कर रहे हैं। ऐसी दुर्घटना बहुत कम होती है। परमाणु भट्टियां सुरक्षित हैं और उस पर अतिरिक्त खर्च होते हुये भी जलवायु-परिवर्तन की समस्या के समाधान के लिये ये अधिक महत्वपूर्ण है।
ऐसा कहने वाले परमाणु उर्जा के कुछ समर्थक जब कार्बन-जनित उर्जा का विरोध करते हैं तो वे ’कार्बन-टेक्स’ का भी विरोध कर देते हैं। यह टैक्स सभी देशों में चर्चा का विषय है। कार्बन-जनित उर्जा की राख व गैस वायुमंडल में मिल जाती है इसके एवज में सरकार सम्बन्धित कम्पनियों को हतोत्साहित करने के लिये यह टैक्स लगाती है क्योंकि इस प्रदूषण का कोई हल नहीं है। जब कि परमाणु-बिजली के मामले में प्रारूप (design) द्वारा जिस हद तक चाहें सुरक्षित व प्रदूषण-मुक्त बनाया जा सकता है अत: खर्च की तुलना करते समय कार्बन-जनित उर्जा में कार्बन-टैक्स तो गिना ही जाना चाहिये। जैसा कि हावर्ड सरकार द्वारा अधिकृत स्वितकोवस्की रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन-टैक्स न गिनने पर परमाणु शक्ति 20 से 50% महँगी पड़ती है पर अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ-कार्यप्रणाली के अनुसार कम या मध्यम मूल्य लगाना चाहिये जो कि कार्बन डाई ऑक्साइड के प्रति टन पर 25 से 40 ओज़ी डॉलर जितना पड़ेगा। सरकार द्वारा 20 डॉलर से शुरू कर क्रमश: 30 डॉलर तक बढ़ाने की योजना है। प्रदूषण से जलवायु-परिवर्तन सम्बन्धी शोध को न मानने वाले कार्बन-जनित उर्जा की हानियों को समझ नहीं पाते और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग ’विज्ञान में फेल बालक’ जैसा व्यवहार करते हैं। वे ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के सिद्धान्त को भी विज्ञान में सम्मिलित करना चाहते हैं। अपने आप को सर्वेसर्वा मान कर वैज्ञानिक शोध से दी गई सभी चेतावनियों को अवैध ठहराना चाहते हैं मानो वे प्रकृति-विज्ञान पर ही युद्ध घोषित कर अवैज्ञानिक और अतिवादी विचारों को ओज़ी चिन्तन की मूलधारा में सम्मिलित कर के ही दम लेंगे।
जलवायु-परिवर्तन के मसले के अलावा परमाणु भट्टी का यह मुद्दा खर्च से ज्यादा पार्टी की पहचान का प्रश्न बन गया है। जैसा कि उपर के आँकड़े स्पष्ट करते हैं, लिबरल दल परमाणु उर्जा के पक्ष में है और लेबर विपक्ष में। परमाणु उर्जा के लिबरल पक्षधरों का कहना है कि जापान में कोई मृत्यु परमाणु-भट्टी के कारण नहीं हुई है जबकि भूचाल और सुनामी के कारण हजारों लोगों की मौत हुई है। अत: साउथ ऑस्ट्रेलिया के एक मन्त्री ने कहा है कि अगले 10 से 30 वर्षों मे उसके राज्य में यूरेनियम को संवर्धित किया जाना चाहिये।
ऑस्ट्रेलिया में क्या, कोई भी देश खर्च के अलावा भी सभी मुद्दों को ख्याल में रख कर परमाणु बिजली पैदा करे तो किसी को कोई आपत्ती नहीं होनी चाहिये। जैसा कि अमेरिका के परमाणु नियामक आयोग के एक भूतपूर्व सदस्य का कहना है कि “ हमें अंतर्राष्ट्रिय सुरक्षा को ध्यान में रख कर अधिक से अधिक परमाणु-शक्ति को प्रोत्साहन देना चाहिये। गड़बड़ तो तब है जब परमाणु-उर्जा को ध्यान में रख कर इसके प्रसार को मान्य हो केवल उतनी सुरक्षा से काम चलाया जाय।“
हरिहर झा, मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया, hariharjha2007@gmail.com
Source
सृजनगाथा, 01 जुलाई 2011