एक साधारण औसत आकार के परमाणु बिजलीघर को ठिकाने लगाने का औसत खर्च 330 करोड़ डालर के आसपास बैठता है। यह भी पूरा नहीं। मुख्य बिजलीघर के अलावा उसके रेडियोएक्टिव कचरे को, या पूरी राख को आने वाले ढाई लाख बरस तक कहीं सुरक्षित भी रखना पड़ेगा- यह काम तो अभी प्रारंभ ही नहीं हो पाया है। परमाणु उद्योग के विशेषज्ञ भी नहीं जानते कि इसे कहां और कैसे रखा जाएगा।
परमाणु-ऊर्जा सचमुच आदि से अंत तक एकदम जहरीली है। जहरीली भी ऐसी कि जहर की हमारी परिभाषाएं कोई काम न आएं। आदि से अंत तक में अंत ऐसा कि समय की, उमर की, अवधि की हमारी सामान्य परिभाषाओं में वह अंत अनंत को छूने लगे। फिर भी हमारा नेतृत्व जापान की दुर्घटना के बाद भी लाठियां भांजते हुए जैतापुर की तरफ बढ़ रहा है। इस बीच आंध्रप्रदेश के तुम्मलपल्ली क्षेत्र में मिली यूरेनियम खदान में अनुमानित भंडार से कहीं अधिक, लगभग तीन गुना यूरेनियम हाथ लगा है। बताया जा रहा है कि इससे अगले चालीस बरस तक भारत के परमाणु बिजलीघर चलाए जा सकेंगे। यानी अब विनाश के लिए हमें बाहरी देशों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। हम कम से कम इस मामले में तो स्वावलंबी हो जाएंगे!आज पूरी दुनिया में 438 परमाणु बिजलीघर हैं। जब से धरती के गरम होने की चर्चा और चिंता बढ़ चली है, तब से परमाणु बिजली के व्यापार में लगे उद्योग हम आपको यही समझाने में लगे हैं कि पेट्रोल और कोयले के इस्तेमाल को बड़े पैमाने पर रोक कर परमाणु ऊर्जा को अपनाने में ही हम सबका भविष्य सुरक्षित हो पाएगा। इससे सुंदर, सस्ती और साफ सुथरी दूसरी कोई ऊर्जा है नहीं। उनकी माने तो अगले वर्षों में हमें कोई 1000 मेगावॉट के दो-तीन हजार बड़े परमाणु बिजलीघर बनाने होंगे- हर हफ्ते एक बिजलीघर की दर से हमें अगले पचास वर्ष तक इसी काम में लगना होगा- तब कहीं कोयला और पेट्रोल ऊर्जा से छुटकारा मिल पाएगा।
अब जरा यह तथ्य भी देख लें कि सन् 1978 के बाद से अमेरिका में एक भी नया परमाणु बिजलीघर नहीं बनाया गया है। इसका अर्थ तो यही है कि साप्ताहिक निर्माण का यह सुझाव जरा भी व्यावहारिक नहीं है। फिर यदि ऐसा हो भी जाए तो परमाणु ऊर्जा के जानकार ही यह बताते हैं कि धरती पर इतना सारा यूरेनियम ही नहीं है। बहुत हुआ तो अगले आठ-दस बरस तक यह ईंधन चल पाएगा।
परमाणु ऊर्जा के लाभ-हानि का मामला तो दूर, इस ऊर्जा की लागत का पूरा गणित भी हमें समझाया नहीं जाता। बहुत कम लोग जानते हैं कि यूरेनियम ईंधन मिल जाने मात्र से परमाणु चूल्हा जलता नहीं। उसकी सफाई करनी पड़ती है। इसे कठिन शब्दों में ‘शोधन’ कहते हैं। शोधन की प्रक्रिया लंबी और बेहद खर्चीली है और अमेरिकी परमाणु बिजलीघरों में इसका सारा खर्च अमेरिका की सरकार उठाती है या बड़े पैमाने पर इसके लिए अनुदान देती है।
इसी तरह परमाणु बिजलीघर में यदि कोई दुर्घटना हो जाए तो और कहीं नहीं, कम से कम अमेरिका में इसका हर्जाना 6000 करोड़ डालर रखा गया है। रुपयों में बदलने के लिए इसमें और गुणा करना पड़ेगा। लेकिन इस उद्योग को फलने-फूलने देना है तो उस पर इतना बोझा कैसे डाला जाएगा? इसलिए अमेरिकी सरकार इस हर्जाने का 98 प्रतिशत भाग अपने आप ले लेती है। उद्योग को केवल 2 प्रतिशत चुकाना पड़ता है।
धरती के गरम होने और मौसम के बदल जाने की चिंता में मांट्रियाल शहर में जिस समझौते पर दस्तखत हुए थे, उसके अनुसार सी.एफ.सी गैस छोड़ने पर अब प्रतिबंध लग गया है। धरती के सुरक्षा कवच को, ओजोन आवरण को नष्ट करने में इस गैस की मुख्य भूमिका मानी गई है। यों भी यह कार्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा गरम कर रही है धरती को।
ये तो हुआ परमाणु बिजलीघर को बनाने, चलाने आदि का खर्च। इसे तो आप बंद भी करना चाहे तो यह काफी खर्चीला बैठता है और उद्योगों की तरह ताला ठोंका और चल दिए- ऐसा परमाणु बिजलीघर में नहीं हो सकता। एक साधारण औसत आकार के परमाणु बिजलीघर को ठिकाने लगाने का औसत खर्च 330 करोड़ डालर के आसपास बैठता है। यह भी पूरा नहीं। मुख्य बिजलीघर के अलावा उसके रेडियोएक्टिव कचरे को, या पूरी राख को आने वाले ढाई लाख बरस तक कहीं सुरक्षित भी रखना पड़ेगा- यह काम तो अभी प्रारंभ ही नहीं हो पाया है। परमाणु उद्योग के विशेषज्ञ भी नहीं जानते कि इसे कहां और कैसे रखा जाएगा। इसकी इतनी लंबी अवधि तक की सुरक्षा व्यवस्था, उस पर तैनात सुरक्षाकर्मी, उनका बड़ा संगठन- इसकी भी कोई कल्पना अभी की नहीं गई है। सौ-दो सौ बरस में लुढ़क कर जाने वाले बड़े-बड़े साम्राज्यों के बीच जरा ढाई लाख बरस तक चलने वाली पुख्ता व्यवस्था के बारे में सोच कर तो देखिए।परमाणु ऊर्जा के प्रशंसक इसके साफ सुथरे होने का बहुत नाज करते हैं। कोयले से बनने वाली बिजली तो उन्हें बिल्कुल काली ही दिखती है। चिमनियों का धुंआ अलग पर सच्चाई कुछ और कहती है। अमेरिका के कैंटकी क्षेत्र में यूरेनियम के संशोधन पर कोई 15,000 मेगावाट बिजली खर्च होती है। यह सारी की सारी कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से ही आती है। यानी ‘शुभ्र’ बिजली को बनाने से पहले ही दोनों हाथ काले हो जाते हैं। इसी के साथ पोर्ट्समाउथ नामक स्थान के संशोधन संयंत्र को भी जोड़ लें तो दोनों जगहों से रिसने वाली क्लोरोफ्लोरो-कार्बन गैस (सी.एफ.सी.) की मात्रा इतनी है- कुल अमेरिका का 93 प्रतिशत- कि इसके बाद भला किसे इसके साफ सुथरे होने पर भरोसा होगा। इसी बदनामी के कारण पोर्ट्समाउथ संयंत्र बंद ही करना पड़ा है। हां कैंटकी संयंत्र जैसे-तैसे अभी भी तो चल रहा है।
धरती के गरम होने और मौसम के बदल जाने की चिंता में मांट्रियाल शहर में जिस समझौते पर दस्तखत हुए थे, उसके अनुसार सी.एफ.सी. गैस छोड़ने पर अब प्रतिबंध लग गया है। धरती के सुरक्षा कवच को, ओजोन आवरण को नष्ट करने में इस गैस की मुख्य भूमिका मानी गई है। यों भी यह कार्बन डाइऑक्साइड से भी ज्यादा गरम कर रही है धरती को।
मध्य के उत्पादन के ‘सफेद-उजला’ ‘गुण’ छोड़ दें तो आदि से अंत तक, हर अवसर पर यह ऊर्जा बुरी तरह से मैली है। वैसे तो मध्य के उत्पादन में भी हर ऐसा बिजलीघर पानी और धरती में लाखों रेडियोएक्टिव आईसोटोप्स झोंकता रहता है। आयोडीन 131 रूस में चेर्नोबिल दुर्घटना से बाहर फैला था। इस कारण बेलारूस में सन् 1986 से 2000 के बीच 8000 बच्चे थायराइड के कैंसर से पीड़ित हुए थे। चिकित्सा शास्त्र के पूरे इतिहास में इस रोग के इतने सारे मामले एक छोटी-सी जगह में कभी भी सामने नहीं आ पाए हैं।
तो पूरी दुनिया में अंधकार दूर करने के लिए साफ-सुथरी बिजली बना रहे 438 परमाणु ऊर्जा केन्द्र हर क्षण ज्ञात न हो सकने वाला प्रदूषण, जहर फैला रहे हैं, उनकी तो कोई बात ही नहीं करता। न इसका व्यापार करने वाली कंपनियां और न इसे बढ़ावा देने वाले हमारे आपके नेता और उनके राजनैतिक दल। केवल अमेरिका में ही 80,000 टन ऐसी जहरीली ‘राख’ इन केन्द्रों के आसपास इन्हें ठंडा करने के लिए बने हौजों में डूबी पड़ी है। जब यह कचरा पूरी तरह से ‘बुझ’ जाएगा तब इसे कोई ढाई लाख बरस तक संभालकर रखने के लिए एक ऐसी अत्यंत सुरक्षित जगह पर ले जाया जाएगा- जिसकी अभी खोज भी नहीं हो पाई है।
ये अनियंत्रित आईसोटोप्स अकेले नहीं हैं। साथ में इनके हैं क्रिप्टान, एक्सनॉन, एरगॉन नामक जहरीली गैसें जो ऐसे बिजलीघरों के आसपास रहने वाले लोगों के शरीर में सांस के माध्यम से भीतर जाती हैं और उन्हें ऊंचे स्तर के गामा रेडिएशन का शिकार बनाती हैं।ऐसी ही एक अन्य गैस है ट्रिटियम। यह भी एक तरह की रेडियोएक्टिव गैस है जो परमाणु भट्टियों से निकलती रहती है। यह गामा रेडिएशन से भी ज्यादा खतरनाक बताई गई है। यह हमारे शरीर रचना के बुनियादी सूत्र-डी.एन.ए. में प्रवेश कर जाती है और फिर हमारे जीवन के आधार को, हमारी बाद की पीढ़ियों के सूत्रों तक को बर्बाद कर देती है।
तो पूरी दुनिया में अंधकार दूर करने के लिए साफ-सुथरी बिजली बना रहे 438 परमाणु ऊर्जा केन्द्र हर क्षण ज्ञात न हो सकने वाला प्रदूषण, जहर फैला रहे हैं, उनकी तो कोई बात ही नहीं करता। न इसका व्यापार करने वाली कंपनियां और न इसे बढ़ावा देने वाले हमारे आपके नेता और उनके राजनैतिक दल। फिर इनसे हर वर्ष पैदा होने वाला डियोएक्टिव कचरा तो अगल ही है। एक हजार मेगावाट बिजली बनाने वाला हर परमाणु केन्द्र प्रति वर्ष 33 टन बेहद गरम, बेहद जहरीला कचरा भी पैदा करता है। इस समय पूरी दुनिया की बात छोड़ दें- केवल अमेरिका में ही 80,000 टन ऐसी जहरीली ‘राख’ इन केन्द्रों के आसपास इन्हें ठंडा करने के लिए बने हौजों में डूबी पड़ी है। जब यह कचरा पूरी तरह से ‘बुझ’ जाएगा तब इसे कोई ढाई लाख बरस तक संभालकर रखने के लिए एक ऐसी अत्यंत सुरक्षित जगह पर ले जाया जाएगा- जिसकी अभी खोज भी नहीं हो पाई है।
बहुत ही लंबे समय तक, जी हां ढाई लाख बरस तक इसे संभाले रखने की समस्या का सचमुच कोई हल आज तक किसी भी देश के हाथ में लगा नहीं है। सन् 1987 में अमेरिका ने नवादा क्षेत्र के यूका पहाड़ को इस तरह के कचरे को निपटाने के लिए चुना था। इतने लंबे चौड़े देश में बस उसे यही एक सुरक्षित स्थान मिला था पर अब अमेरिका के भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग ने इस पूरे क्षेत्र का विस्तार से अध्ययन कर इसे खारिज कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि अब अमेरिका के परमाणु कचरे को उन्हीं बिजलीघरों के आसपास ढेर लगा कर रखना है, जहां उस ढेर को होना ही नहीं चाहिए।
आज दुनिया यों भी पहले जैसी नहीं बची है। हर रोज, हर कहीं किसी भी देश में कोई भी संगठन अपनी ठीक या गलत बात मनवाने के लिए बम फोड़ने में लगा है। आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ती जा रही हैं। ऐसे वातावरण में इस खतरनाक कचरे को एक जगह जमा कर रखना या सुरक्षित जगह मिल जाने पर उसे वहां उठा कर ले जाना- हर कदम पर खतरे ही खतरे भरे पड़े हैं।
तो अब और क्या करना, लिखना-जानना बाकी है? यह परमाणु ऊर्जा तो आदि से अंत तक, और यह अंत भी बहुत ही लंबा है- एकदम जहरीली है, किसी भी और ऊर्जा से बेहद मंहगी है और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उजाला देने के साथ-साथ यह हमें परमाणु हथियारों की दौड़ में भी उतार देती है।