मानव जीवन के प्रारम्भ से ही खाद्य सुरक्षा प्रमुख चुनौती रही है। दुनिया के कई देशों में आज भी खाद्य सुरक्षा का संकट है। बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के विश्वव्यापी खतरे के मद्देनजर भारत जैसे बड़े देशों में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हरितक्रांति के बल पर भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनकर चिरकालिक अकाल और भुखमरी की भयंकर त्रासदियों से निजात तो पा ली लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से को मानकों के अनुरूप पोषणयुक्त आहार मुहैया कराना अब भी बड़ी चुनौती है।
भारत सरकार ने संवैधानिक दायित्व और वैश्विक संधियों की प्रतिबद्धता निभाते हुए 10 सितम्बर, 2013 को ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013’ लागू किया। इस अधिनियम के तहत देश की दो तिहाई आबादी को लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस के माध्यम से सस्ती दर पर अनाज पाने का कानूनी हक प्राप्त है। अगर किसी व्यक्ति को निर्धारित अवधि में राशन की दुकान से अनाज नहीं मिलता है तो वह व्यक्ति ‘खाद्य सुरक्षा भत्ता’ का दावा करने का हकदार है। इस कानून में गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को निर्धारित पोषण मानकों के अनुरूप निःशुल्क भोजन के रूप में पौषणिक सहायता मुहैया कराने का भी प्रावधान है। खाद्य सुरक्षा को अग्रसर करने के लिये छोटे और मझोले किसानों की आजीविका सुनिश्चित करने के जरूरी उपायों का खाका भी इसमें उल्लिखित है।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत टीपीडीएस के माध्यम से हर साल लगभग 550 लाख टन खाद्यान्न सस्ती दर पर मुहैया कराने का लक्ष्य है। आम बजट 2016-17 में सरकार ने इसके लिये 1,34,834 करोड़ रुपये बजटीय आवंटन किया है। बजटीय आवंटन की दृष्टि से आज यह भारत सरकार का सबसे बड़ा कार्यक्रम है।
वैसे तो इस कानून को देश में लागू हुए तीन साल हो गए हैं लेकिन कई राज्यों ने इसे वित्त वर्ष 2016-17 से ही लागू किया है। ऐसे में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के अब तक के अनुभव का अवलोकन और मूल्यांकन करने की आवश्यकता है ताकि इसके क्रियान्वयन के तंत्र को और अधिक प्रभावी और सुदृढ़ किया जा सके।
खाद्य सुरक्षा की अवधारणा
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार, “खाद्य सुरक्षा से आशय उस स्थिति से है जब सभी लोगों की भौतिक, सामाजिक और आर्थिक पहुँच हर समय पर्याप्त, सुरक्षित और पोषणिक खाद्य तक हो और जो उन्हें सक्रिय और निरोगी जीवन के लिये उनकी आहार आवश्यकता और खाद्य वरीयता को पूरा करता हो।” असल में खाद्य सुरक्षा के विषय ने नब्बे के दशक में अन्तरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचा। 1996 में विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन (वर्ल्ड फूड समिट) ने सभी देशों में भुखमरी के उन्मूलन का लक्ष्य तय करते हुए 2015 तक कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या तत्कालीन स्तर से घटाकर आधी करने का दृढ़ निश्चय किया। चार साल बाद जब संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2000 में सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) तय किये तो उसमें भी भूखे रहने वाले लोगों की संख्या 2015 तक घटाकर आधी करने का लक्ष्य भी रखा।
संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में सभी देशों ने भुखमरी के खिलाफ सामूहिक अभियान की शुरुआत की। बीते दो दशकों में कई देशों ने इस दिशा में तेजी से प्रगति भी की है। हालाँकि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देशों में इस दिशा में प्रयास अब भी सुस्त ही हैं। यही वजह है कि विश्व बिरादरी ने अब भुखमरी की समस्या को जड़ से मिटाने का आह्वान किया है। संयुक्त राष्ट्र ने 25 सितम्बर, 2015 को सतत विकास का नया एजेंडा तय करते हुए 2030 तक दुनिया से भूख की समस्या समाप्त करने का संकल्प लेकर ‘जीरो हंगर’ को सतत विकास के 17 लक्ष्यों में शामिल किया है।
भारत में खाद्य सुरक्षा
भारत के प्राचीन समाज, लोक जीवन और शासन व्यवस्था में खाद्य सुरक्षा का विचार विभिन्न रूपों में विद्यमान था, शास्त्रों में इसके कई उदाहरण मिलते हैं। मसलन, तैत्तिरीयोपनिषद में ‘अन्नम ब्रह्मा’ अर्थात अन्न ब्रह्मा है और अन्निद्वै प्रजारू प्रजायेन्तर… अथो अन्नेनैव जीवन्ति जैसी सूक्तियों के रूप में मानव जीवन के लिये अन्न की महत्ता रेखांकित की गई है। अन्न को भगवान के रूप में निरूपित कर खाद्यान्न के महत्त्व को दर्शाया गया है। इसी तरह महान नीतिज्ञ कौटिल्य ने भी अपनी कालजयी कृति ‘अर्थशास्त्र’ में सशक्त राष्ट्र के लिये ‘जनपदनिवेश’ में प्रजा के लिये खाद्य सुरक्षा और कोषसंचय सुनिश्चित करने वाले उपायों की जरूरत पर बल दिया है।
हालाँकि मध्यकाल के दौरान बाहरी आक्रमण और औपनिवेशक काल में खाद्य सुरक्षा के समुचित तंत्र के अभाव में देश को कई बार अकाल और भुखमरी की भीषण आपदाएँ भी झेलनी पड़ी। पराधीनता में शोषण और व्यापक गरीबी के कारण देश की जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग कुपोषण से पीड़ित रहा। यही वजह है कि 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रत्येक नागरिक के लिये जीवन के मौलिक अधिकार का प्रावधान किया। वहीं नीति निदेशक सिद्धान्तों के तहत अनुच्छेद 47 में लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन-स्तर को ऊँचा करने के लिये राज्य का कर्तव्य तय किया जिस वर्ष देश में संविधान लागू हुआ उसी साल से पंचवर्षीय योजनाओं के रूप में नियोजित विकास की शुरुआत हुई। पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि क्षेत्र पर जोर दिया गया और 60 के दशक में हरितक्रांति का आगाज हुआ जिससे देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। वहीं सत्तर के दशक में इसके समानांतर पोषण-स्तर सुधारने के लिये भी उपाय शुरू हुए। सत्तर के दशक में समन्वित बाल विकास योजना शुरू कर अनुच्छेद 47 के अनुरूप बच्चों को पोषाहार मुहैया कराने की शुरुआत की गई।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की ओर भी सरकार का ध्यान गया और जगह-जगह राशन की दुकानों के माध्यम से लोगों को अनाज उपलब्ध कराने की शुरुआत हुई। हालाँकि वर्ष 1992 तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली किसी विशेष लक्ष्य के बगैर सभी उपभोक्ताओं के लिये एक सामान्य योजना थी। इसे जून, 1997 में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) का रूप दिया गया। उस समय टीपीडीएस के तहत प्रत्येक बीपीएल परिवारों को महीने में सिर्फ 10 किलोग्राम अनाज दिया जाता था जिसे अप्रैल 2000 में बढ़ाकर 20 किलो प्रति परिवार किया गया। सरकार ने एक बार फिर इसे बढ़ाया और जुलाई 2001 से 25 किलो कर दिया। इसी दौरान सरकार ने अंत्योदय अन्न योजना शुरू की और उनको भी प्रतिमाह 25 किलो अनाज का आवंटन किया गया। इसके बाद अप्रैल 2002 में एपीएल, बीपीएल और अंत्योदय अन्न योजना के तहत भी प्रति परिवार 35 किलो अनाज देने का फैसला किया गया। उसी समय एपीएल, बीपीएल और अंत्योदय अन्न योजना के लाभार्थियों की संख्या भी तय की गई। इस तरह उपरोक्त पृष्ठभूमि में टीपीडीएस में समय-समय पर परिवर्तन और कई वर्षों के विचार मंथन के बाद 2013 में संसद ने बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा विधेयक पारित किया और 10 सितम्बर, 2013 को जारी अधिसूचना से ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ पूरे देश में प्रभावी हुआ।
भारत में खाद्य सुरक्षा की वर्तमान स्थिति
भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के वार्षिक ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2016’ पर 118 देशों में भारत का स्थान 97वां है। भारत इस सूचकांक पर अपने पड़ोसी देशों- बांग्लादेश, नेपाल और चीन से भी पीछे है। इससे पता चलता है कि भुखमरी की समस्या भारत में कितनी गम्भीर है। वहीं एफएओ की रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ फूड इंसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2015’ बताती है कि हाल के वर्षों में दुनियाभर में कई देशों ने भूख की समस्या खत्म करने की दिशा में प्रगति की है लेकिन भारत जैसे देशों में इसकी रफ्तार कम है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब भी करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं।
कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या (मिलियन) | ||||||
1990-92 | 2000-02 | 2005-07 | 2010-12 | 2014-16 | परिवर्तन | |
भारत | 210.1 | 185.5 | 233.8 | 189.9 | 194.6 | -7.4 |
चीन | 289 | 211.2 | 207.3 | 163.2 | 133.8 | -53.7 |
विकासशील देश | 990.7 | 908.7 | 926.9 | 805 | 779.9 | -21.3 |
विश्व | 1010.6 | 929.6 | 942.3 | 820.7 | 794.6 | -21.4 |
स्रोत - ‘द स्टेट ऑफ फूड इंसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2015’, एफएओ |
एफएओ की इस रिपोर्ट में दिए आँकड़ों को देखने पर पता चलता है कि नब्बे के दशक की शुरुआत में भारत में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या करीब 21 करोड़ थी जो 2014-16 तक घटकर 19.46 करोड़ रह गई है। इस तरह इसमें मात्र 7.4 प्रतिशत की कमी आई है। दूसरी ओर, समान अवधि में चीन में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या में 53.7 प्रतिशत, विकासशील देशों में कुपोषण की संख्या में 21 प्रतिशत और पूरी दुनिया में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या में 21 प्रतिशत की कमी आई है।
इसी तरह कुल आबादी में कुपोषण के शिकार लोगों का प्रतिशत भी चीन व अन्य विकासशील देशों की अपेक्षा भारत में काफी अधिक है। एफएओ की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2014-16 में भारत में 15 प्रतिशत लोग कुपोषण के शिकार हैं जबकि चीन में यह आँकड़ा 9 प्रतिशत, विकासशील देशों में 12 प्रतिशत और वैश्विक स्तर पर 10.9 प्रतिशत है। ध्यान देने वाली बात यह है कि नब्बे के दशक के शुरू में चीन और भारत में यह आँकड़ा लगभग बराबर था। बीते दो दशकों में चीन ने अपने यहाँ कुपोषण के शिकार लोगों का अनुपात कम करने में काफी प्रगति की लेकिन भारत इस मामले में सुस्त साबित हुआ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, 2013
सरकार ने आम लोगों को गरिमामय जीवन निर्वाह करने के लिये सस्ती कीमतों पर पर्याप्त मात्रा में गुणवत्तापूर्ण खाद्यान्न की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 बनाया है। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में 75 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत लोगों को हर माह 5 किलोग्राम व्यक्ति अनाज पाने का अधिकार है। हालाँकि अंत्योदय अन्न योजना के लाभार्थी परिवारों को प्रतिमाह 35 किलोग्राम अनाज मिलता रहेगा।
विशेष बात यह है कि कानून की अनसूची एक में अनाज की कीमतें भी तय की गई हैं। इस कानून के लाभार्थी परिवारों को चावल 3 रुपये प्रति किलो, गेहूँ दो रुपये प्रति किलो और मोटा अनाज एक रुपये प्रति किलो पाने का अधिकार है। वैसे तो 10 सितम्बर, 2013 से यह कानून पूरे देश में लागू हो गया था लेकिन राज्यों ने इसे अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग तारीखों से लागू किया। असल में इस कानून की धारा 10(1) के तहत लाभार्थी परिवारों जिन्हें ‘प्राथमिक श्रेणी के परिवार’ (प्रायोरिटी हाउसहोल्ड) नाम दिया गया है, की पहचान राज्य सरकारों को करनी थी। इसी वजह से राज्यों ने इसे अपनाने में इतनी देर लगाई। केरल और तमिलनाडु सहित कई राज्यों ने तो इसे 2016 में अपनाया। एक अप्रैल 2016 की स्थिति के अनुसार देश में 18.52 करोड़ परिवारों की पहचान ‘प्राथमिक श्रेणी के परिवार’ के तौर पर की जा चुकी है। हालाँकि इसमें तमिलनाडु और केरल के आँकड़े शामिल नहीं हैं क्योंकि इन दोनों राज्यों ने यह कानून इस तारीख के बाद अपनाया। इस तरह आज देश में करीब 21 करोड़ परिवार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून तथा अंत्योदय अन्न योजना के तहत सस्ती दर पर अनाज प्राप्त कर रहे हैं। इस अधिनियम में दुर्गम स्थलों और दूरदराज के क्षेत्रों का भी विशेष ध्यान रखा गया है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम की धारा 30 में स्पष्ट उल्लेख है कि सरकार को दूरदराज, दुर्गम स्थलों, पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में कमजोर वर्गों को इस कानून के तहत प्राप्त सुविधाएँ मुहैया कराने पर विशेष जोर देना होगा।
कुपोषण के शिकार लोगों का प्रतिशत | ||||||
1990-92 | 2000-02 | 2005-07 | 2010-12 | 2014-16 | परिवर्तन | |
भारत | 23.7 | 17.5 | 20.5 | 15.6 | 15.2 | -36.0 |
चीन | 23.9 | 16 | 15.3 | 11.7 | 9.3 | -60.9 |
विकासशील देश | 23.3 | 18.2 | 17.3 | 14.1 | 12.9 | -44.5 |
विश्व | 18.6 | 14.9 | 14.3 | 11.8 | 10.9 | -41.6 |
स्रोत - ‘द स्टेट ऑफ फूड इंसिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड 2015’, एफएओ |
महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 में महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान किए गए हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण प्रावधान यह है कि राशनकार्ड परिवार की सबसे वरिष्ठ महिला के नाम ही बनेगा। इस कानून की धारा 13(1) में इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके अलावा धारा 4 में गर्भवती महिलाओं के लिये पोषणयुक्त आहार के सम्बन्ध में विशेष व्यवस्था की गई है। तत्कालीन सरकार ने धारा 4 के तहत किये गये प्रावधान को अमलीजामा पहनाने के लिये उस समय कोई बजटीय प्रावधान नहीं किया था। इसलिये मौजूदा सरकार ने अब इस उपबंध को लागू करते हुए गर्भवती महिलाओं के लिये छह हजार रुपये की आर्थिक मदद की घोषणा की है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 31 दिसम्बर को राष्ट्र के नाम सम्बोधन में इसका ऐलान किया। देश के सभी जिलों में गर्भवती महिलाओं को अस्पताल में पंजीकरण और डिलीवरी, टीकाकरण और पौष्टिक आहार के लिये छह हजार रुपये की आर्थिक मदद दी जाएगी। यह राशि गर्भवती महिलाओं के बैंक खाते में भेजी जाएगी। फिलहाल यह योजना 4 हजार रुपये की आर्थिक मदद के साथ देश के सिर्फ 53 जिलों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चल रही थी।
पोषण के मानक
सार्वजनिक वितरण प्रणाली तो भारत में बहुत समय से चल रही थी लेकिन खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 में पहली बार खाद्य सुरक्षा के साथ पोषण के भी न्यूनतम मानक तय किए गए। विधेयक में ही अनुसूची के माध्यम से खाद्य सुरक्षा के मानक तय होने से इस सम्बन्ध में अस्पष्टता की गुंजाइश नहीं है। खास बात यह है कि पोषण के मानक तय करते वक्त आयु वर्ग को विशेष ध्यान में रखा गया है।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की मुख्य विशेषताएँ 1. ग्रामीण क्षेत्रों में 75 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत लोगों को हर माह 5 किलोग्राम प्रति व्यक्ति अनाज पाने का अधिकार। 2. इस अधिनियम के तहत लाभार्थियों को खाद्यान्न सस्ती दर पर चावल तीन रुपये प्रति किलो, गेहूँ दो रुपये प्रति किलो और मोटा अनाज एक रुपये प्रति किलो मिलता है। 3. महिलाओं और 14 साल तक के बच्चों के लिये पोषणयुक्त भोजन। 4. मातृत्व सहयोग के रूप में गर्भवती महिलाओं को 6,000 रुपये की आर्थिक मदद। 5. इस अधिनियम के तहत राशनकार्ड परिवार की वयोवृद्ध महिला या 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिला के नाम बनता है। 6. शिकायत निवारण के लिये जिला और राज्य-स्तरीय तंत्र। 7. दोषी कर्मचारियों को 5000 रुपये तक जुर्माने का प्रावधान। 8. अनाज न मिलने पर लाभार्थी को खाद्यान्न भत्ता प्राप्त करने का अधिकार। 9. लाभार्थियों की पहचान की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की। 10. खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने के लिये राज्यों को 549.26 लाख टन खाद्यान्न का आवंटन। |
खाद्य सुरक्षा सुदृढ़ करने की रणनीति
भारत कृषि प्रधान देश है और भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर करती है। यहाँ अधिकांश किसान छोटे और मझोले हैं तथा उनकी आर्थिक स्थिति भी कमजोर है। इसलिये देश में खाद्य सुरक्षा अनवरत रहे और इसमें किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं आए, इस बात को ध्यान रखते हुए इस कानून में दीर्घावधि में देश की खाद्य व पोषण सुरक्षा सुदृढ़ करने की सुनियोजित अवधारणा भी प्रस्तुत की गई है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम की धारा 31 में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय प्राधिकरणों को खाद्य और पोषण सम्बन्धी सुरक्षा सुदढ़ करने के लिये उपाय करने होंगे। अधिनियम की अनुसूची-III में इस सम्बन्ध में तीन सूत्रीय कार्ययोजना सुझाई गई है जो इस प्रकार है-
1. कृषि का पुनरुद्धार;
I. छोटे और मझोले किसानों के हितों को सुरक्षित रखने वाले उपायों के माध्यम से कृषि सुधार;
II. उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने को शोध व अनुसंधान, सूक्ष्म व लघु सिंचाई और विस्तार सेवाओं सहित कृषि में निवेश बढ़ाना;
III. ऋण, सिंचाई, बिजली, फसल बीमा, इनपुट और लाभकारी मूल्य के माध्यम से किसानों की आजीविका सुरक्षित करना;
IV. खाद्यान्न उत्पादन के लिये इस्तेमाल होने वाली जमीन और पानी के अवांछित कार्यों में इस्तेमाल को रोकना;
2. खरीद, भण्डारण और परिवहन के उपाय;
I. मोटे अनाज सहित खाद्यान्न की विकेन्द्रीकृत खरीद को प्रोत्साहित करना;
II. खरीद प्रक्रिया का भौगोलिक विविधीकरण;
III. विकेन्द्रीकृत आधुनिक और वैज्ञानिक भंडारण क्षमता सुनिश्चित करना;
IV. खाद्यान्न की अधिकता वाले प्रदेशों से उपभोग वाले क्षेत्रों में ले जाने के लिये रेलवे लाइन में विस्तार सहित पर्याप्त रैंक व्यवस्थित कराना;
खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 की अनुसूची-II के अनुसार पोषण के मानक
क्र.सं. | श्रेणी | भोजन का प्रकार | कैलोरी | प्रोटीन (ग्राम) |
1. | बच्चे (6 माह से 3 साल) | घर के लिये राशन | 500 | 12-15 |
2. | बच्चे (3 से 6 साल) | सुबह का नाश्ता व गर्म पका हुआ भोजन | 500 | 12-15 |
3. | कुपोषित बच्चे (6 माह से 6 साल) | घर के लिये राशन | 800 | 20-25 |
4. | निम्न प्राथमिक कक्षाएँ | गर्म पका हुआ भोजन | 450 | 12 |
5. | उच्च प्राथमिक कक्षाएँ | गर्म पका हुआ भोजन | 700 | 20 |
6. | गर्भवती महिलाएँ व माताएँ | घर के लिये राशन | 600 | 18-20 |
3. अन्य उपाय;
I. स्वच्छ और पर्याप्त पेयजल व स्वच्छता सुविधाएँ;
II. स्वास्थ्य देखभाल;
III. किशोर लड़कियों को पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा सहायता;
IV. वरिष्ठ नागरिकों, दिव्यांगों और अकेली रहने वाली महिलाओं को पर्याप्त पेंशन।
शिकायत निवारण का तंत्र
इस अधिनियम में लाभार्थी परिवारों की शिकायतों के निवारण के लिये एक तंत्र भी बनाया गया है। प्रत्येक के प्रदेश में राज्य खाद्य आयोग के साथ-साथ जिला-स्तरीय शिकायत निवारण अधिकारी भी तैनात करने का प्रावधान इस कानून में किया गया है। अगर कोई सरकारी कर्मचारी इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो उसके लिये दंड का प्रावधान भी इस विधेयक में किया गया है। हालाँकि अधिकांश राज्यों ने अभी तक अपने यहाँ शिकायत निवारण का तंत्र स्थापित नहीं किया है। जिस तरह राज्यों ने लाभार्थियों की पहचान में शिथिलता प्रदर्शित की उसी तरह शिकायत निवारण तंत्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही रवैया देखने को मिला है।
चुनौतियाँ
बहरहाल आजादी के सात दशक बाद आखिरकार देश की जनता को कानूनी रूप से खाद्य सुरक्षा का अधिकार प्राप्त तो हो गया है लेकिन इसे जमीनी-स्तर पर मूर्त रूप देने में कई चुनौतियाँ भी आ रही हैं। इस कानून का क्रियान्वयन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तंत्र के माध्यम से हो रहा है। समय-समय पर कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि पीडीएस में 40 प्रतिशत तक लीकेज है। इसका मतलब यह है कि सरकार जो अनाज गरीबों के लिये सस्ती दर पर उपलब्ध कराती है, उसका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में इस कानून के क्रियान्वयन में पारदर्शिता और निगरानी का ठोस प्रबंध करने की जरूरत है। अब तक राज्यों ने ऐसा कोई प्लेटफॉर्म तैयार नहीं किया है जिस पर कोई भी नागरिक आसानी से यह जानकारी प्राप्त कर सके कि कितने लोग सस्ती दर पर अनाज पाने से वंचित रहे और कितने लोगों ने खाद्य सुरक्षा भत्तों का दावा किया है। साथ ही पीडीएस को प्रभावशाली बनाने के लिये अनाज की सार्वजनिक खरीद, भण्डारण और परिवहन की व्यवस्था को भी उन्नत बनाने की जरूरत है। हाल के वर्षों में पीडीएस के तहत वितरित किये जाने वाले अनाज की आर्थिक लागत जिस कदर तेजी से बढ़ी है, उसे देखते हुए इस पूरे तंत्र को और अधिक सक्षम बनाने की जरूरत है ताकि इस कार्यक्रम के चलते सरकार को राजकोष पर अधिक बोझ न पड़े।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार हैं।), ई-मेल: hari.scribe@gmail.com