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डॉ. विजय पंडित
इन्दौर में एक नदी बहती है जिसका नाम कान्ह नदी है। 'खान नदी', 'कान्ह' का अपभ्रन्श है। खान नदी का प्राचीन नाम क्षाता या ख्याता भी है। भारतीय परम्परा में नदी देवियों की अर्चना वैदिककाल में भी प्रचलित थी। वहाँ नदी सूक्त है। भारत की कुछ प्रमुख नदियों को विवाह के अवसर पर साक्षी के लिए याद किया जाता है उनमें शिप्रा के साथ ही यह उसकी सहायक नदी महासुर और क्षाता (खान) नदी भी है। खान इन्दौर से ग्यारह किलोमीटर दक्षिण की उमरिया ग्राम की निकटवर्ती पहाड़ी से प्रकट होकर इन्दौर, साँवेर के निकट से बहती उज्जैन के पास शिप्रा में मिल जाती है। 74 किलोमीटर लम्बी इस नदी के शिप्रा संगम पर त्रिवेणी का महत्वपूर्ण तीर्थ है। यहाँ प्रति शनिचरी अमावस्या को मेला लगता है। इंदौर शहर को जीवन देने वाली खान नदी पानी की कमी से अब एक नाले में बदल चुकी है।
खान नदी.. या खान नाला.. शहर के लोग लंबे समय से इस सवाल से जूझ रहे हैं। यह नदी प्राकृतिक ही नहीं शहर की सांस्कृतिक विरासत है, जिसके घाट कई ऐतिहासिक, सामाजिक और धार्मिक घटनाओं के साक्षी रहे हैं। इसका पानी लोगों के साथ खेतों की भी प्यास बूझाता था। भूजल स्तर को बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन अब नदी अस्तित्व खो चुकी है। 1985 से इसे पुनर्जीवित करने की घोषणाएं हो रही हैं लेकिन ज्यादातर कागजी साबित हुईं। विशेषज्ञ मानते हैं थोड़े से प्रयास किए जाएं तो खान नदी इंदौर की नर्मदा साबित हो सकती है। जेएनएनयूआरएम में इसे शामिल किए जाने से उम्मीद की नई किरण नजर आ रही है।
इंदौर शहर के लोगों को अपना पानी पीलाने वाली खान नदी इतनी गंदी हो गई है कि शिप्रा नदी को गंदगी से बचाने के लिए नदी में मिलने वाली खान नदी को डायवर्ड करने के बारे में सोचा जा रहा है। ताकि खान नदी का गंदा पानी शिप्रा नदी में ना मिले। इसके लिए 15 दिनों में पॉवर पाइंट प्रजेंटेशन बनाकर खान नदी को किस तरह से शिप्रा में मिलने से रोका जाए इसके लिए योजनाएं बनाई जा रहीं हैं। अगर हमें शिप्रा नदी को साफ रखना है तो इसके लिए खान नदी को भी साफ करना चाहिए न कि खान नदी डायवर्ट करके इससे कोई हल नहीं निकलने वाला।
इंदौर के लोगों को खान नदी को मार कर नर्मदा नदी के पानी को लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। यह खान नदी और इंदौर शहर दोनों के लिए खतरनाक है। बिलावली के पीपलियापाला तालाब से निकली खान नदी 50 किमी का सफर तय कर शिप्रा में मिलती है। 25 किमी का हिस्सा शहर के बीच से होकर ही गुजरता है। व्यवस्थित सिवेज प्लान नहीं होने के कारण सालों से शहर भर की गंदगी इसी में डाली जा रही है। नंदलालपुरा निवासी 76 वर्षीय मोहिनीराज जोशी कहते हैं मेरे दादा खान नदी के किनारे रहते थे और आज मेरे पोते भी इसी के साए में बड़े हो रहे हैं। फर्क इतना है कि हम नदी पर गर्व करते थे और उन्हें शर्म आती है।