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पश्चिम बंगाल का सुन्दरबन क्षेत्र रिहायश के लिहाज से दुर्गम इलाकों में एक है। यहाँ करीब 40 लाख लोग रहते हैं। पानी से घिरे इस क्षेत्र के लोगों के दरवाजे पर साल भर मुश्किलों का डेरा रहता है। इसके बावजूद मुश्किलों से जूझते हुए जीवन बिताते हैं।
कभी मौसम की मार तो कभी आदमखोर बाघों के हमलों का उन्हें सामना करना पड़ता है।
चूँकि लम्बे समय से ये लोग मुश्किलों से घिरे रहे हैं, इसलिये ये सब उनके लिये सामान्य बात हो गई है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से उन्हें एक अलग तरह की समस्या से जूझना पड़ रहा है। इस समस्या ने खेती को बुरी तरह प्रभावित किया है जिससे किसान परेशान हैं। सरकार की तरफ से इस समस्या का अब तक कोई हल नहीं निकला है।
सुन्दरबन के खेतों में पिछले कुछ वर्षों में क्रोमियम की मात्रा में बेतहाशा इजाफा हुआ है जिससे किसानी में दिक्कतें आ रही हैं। खेतों में उगाई जा रही फसलों खासकर चावल का निर्यात रुक गया है।
सुन्दरबन में गोविंदभोग समेत कई तरह के महंगे चावल की खेती होती है। यहाँ उगने वाले इन उन्नत किस्म के चावलों का निर्यात दूसरे देशों में किया जाता है। यहाँ साल में दो बार धान की खेती होती है। सुन्दरबन में रहने वाले लोगों की रोजी-रोटी मुख्य रूप से खेती पर ही आधारित है। लोग खेती के साथ ही मछलीपालन भी करते हैं, लेकिन उससे कम आय होती है और साथ ही इसमें अनिश्चितता भी है। दूसरी बात यह है कि सुन्दरबन क्षेत्र में बाघों के हमले भी बढ़े हैं, जिससे मछलियाँ पकड़ने में किसान कतराते हैं।
खेत में क्रोमियम की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि चावल में भी क्रोमियम प्रवेश कर जा रहा है। इन्हें जब निर्यात किया जाता है, तो जाँच में क्रोमियम पाये जाने के कारण निर्यात में दिक्कत आ रही है।
सुन्दरबन के किसान अनिल मिस्त्री ने कहा, ‘करीब एक दशक पूर्व सबसे पहले यह समस्या देखी गई थी। खेत की मिट्टी का रंग देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि कोई अलग तत्व मिट्टी में आ गया है, लेकिन यह नहीं पता था कि इसमें क्रोमियम है।’
खेत में उगने वाली फसल खासकर धान में क्रोमियम होने की जानकारी सबसे पहले साल 2009 में सामने आई थी। सुन्दरबन में उत्पादित चावल यूरोपियन यूनियन में भेजा जाता रहा है। सन 2009 में निर्यात से पहले जब इसकी जाँच की गई, तो पता चला कि इसमें भारी मात्रा में क्रोमियम है। यह तथ्य सामने आते ही उक्त चावल का निर्यात रोक दिया गया और उसी समय किसानों को भी पता चला कि फसल में क्रोमियम है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में आइला तूफान ने सुन्दरबन में भारी तबाही मचाई थी। इस तूफान ने भारी जान-माल की क्षति पहुँचाई थी। साथ ही खेतों में नमकीन पानी भी घुस गया था जिससे किसान परेशान थे। आइला के तूफान से लोग सम्भल भी नहीं पाये थे कि चावल के निर्यात पर प्रतिबन्ध ने एक और बड़ा झटका दे दिया था।
यहाँ यह भी बता दें कि क्रोमियम एक रसायन है जिसका इस्तेमाल लेदर फैक्टरियों में किया जाता है। क्रोमियम का इस्तेमाल खासतौर से लेदर को मांस से अलग करने व उसे रंगने में किया जाता है।
क्रोमियम शरीर के लिये बेहद खतरनाक है। इससे साँस की बीमारी, चर्म रोग व प्रजनन से सम्बन्धित रोग भी हो सकते हैं।
एक दशक पहले जब चावल में क्रोमियम की मात्रा बढ़ने के कारणों की जाँच शुरू हुई, तो पता चला कि दक्षिण 24 परगना जिले के बानतल्ला में हाल के वर्षों में काफी संख्या में लेदर फैक्टरियाँ खोली गई हैं। इन फैक्टरियों से निकलने वाली गन्दगी (जिसमें क्रोमियम भी होता है) नदी में बहा दी जा रही है, जो सुन्दरबन तक पहुँच रहा है और खेतों में अपना ठिकाना बना रहा है।
जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंटल स्टडीज के प्रोफेसर व माइक्रोबायोलॉजिस्ट जयदीप मुखर्जी ने कहा, ‘इन फैक्टरियों से निकलने वाली गन्दगी में क्रोमियम भी शामिल होता है, जो नदियों के रास्ते सुन्दरबन डेल्टा में जमा हो रहा है और खेतों में पहुँचकर वहाँ की खेती पर असर डाल रहा है।’
आश्चर्य की बात ये है कि लेदर फैक्टरियों से निकलने वाले इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिये कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की गई है। इससे मिट्टी को तो नुकसान हो रहा है, सो हो ही रहा है, साथ ही इससे नदियों की सेहत पर बुरा असर हो रहा है जिसका दूरगामी परिणाम झेलना पड़ सकता है।
पश्चिम बंगाल की नदियाँ वैसे ही कई तरह के प्रदूषण के बोझ से कराह रही हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट में भी इसका खुलासा हुआ है। पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य की दो दर्जन से अधिक नदियाँ गन्दी हैं।
उक्त रिपोर्ट के लिये दो वर्ष पहले नमूने लिये गए थे और उनकी कई स्तरों पर जाँच की गई। रिपोर्ट के अनुसार भागीरथी व हुगली (गंगा नदी को पश्चिम बंगाल में इन्हीं दो नामों से जाना जाता है) बताया जाता है कि नदियों में प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों की लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। रिपोर्ट में वर्ष 2014 में मिले आँकड़ों के साथ ताजा आँकड़ों का मिलान किया गया है जिसमें पाया गया कि नदियों में प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों में बेतहाशा इजाफा हो रहा है।
रिपोर्ट में यह भी पता चला है कि प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह शहरों घरों से निकलने वाले गन्दे पानी को बिना ट्रीट किये नदियों में बहाना है।
बहरहाल, चूँकि यह लेख क्रोमियम के दुष्प्रभाव और उसके समाधान के उपायों से सम्बन्धित है, इसलिये हम नदियों के प्रदूषण पर विस्तार से चर्चा किसी और लेख मे करेंगे। यहाँ हम दोबारा क्रोमियम पर लौटते हैं।
ऊपर बताया जा चुका है कि लेदर फैक्टरियों से निकलने वाली गन्दगी (जिसमें क्रोमियम भी है) सुन्दरबन डेल्टा में डिपोजिट हो रहा है और धीरे-धीरे खेतों में फैल रहा है। यहाँ दिक्कत यह है कि क्रोमियम को मिट्टी से अलग करने की कोई रासायनिक तकनीक नहीं है। खेतों की मिट्टी में समा रहे क्रोमियम को मिट्टी से निकालना करीब-करीब असम्भव है।
लेकिन, जादवपुर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक शोध कर इस समस्या का समाधान निकाल लिया है और अच्छी बात ये है कि इससे खेतों पर या खेत में उगने वाले अनाज के सेवन से लोगों पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ता है।
शोधकर्ताओं व प्रोफेसरों ने एक ऐसी बैक्टीरिया की खोज कर ली है जो मिट्टी से क्रोमियम को खत्म करने में पूरी तरह सक्षम हैं। अच्छी बात ये है कि यह बैक्टीरिया पहले से ही मौजूद है लेकिन इसके बारे में वैज्ञानिकों व शोधार्थियों को पता नहीं था। इस शोध से यह भी पता चलता है प्रकृति में ऐसे तत्व मौजूद हैं, जो कई समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, लेकिन किसी को इसकी जानकारी नहीं है।
पूरे शोध में बड़ी भूमिका दो छात्रों की रही, जो इसी यूनिवर्सिटी में एमटेक कर रहे थे। इनमें से एक छात्र ने वर्ष 2013 में सुन्दरबन से मिट्टी का नमूना संग्रह किया था। इसके बाद वर्ष 2014 में एक अन्य छात्र ने भी मिट्टी का नमूना लिया। नमूने की जाँच की गई तो पता चला कि इसमें ऐसी बैक्टीरिया मौजूद है, जो क्रोमियम को मिट्टी से खत्म कर सकती है।
जादवपुर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एनवायरन्मेंट स्टडीज के डायरेक्टर तरित रायचौधरी कहते हैं, ‘इस शोध से हमें पता चला है कि यही एक ऐसी बैक्टीरिया मौजूद है, जो खेतों से क्रोमियम निकाल सकती है।’
यह महत्त्वपूर्ण शोध अभिषेक दत्ता, शायंती घोष, जयंत डी. चौधरी, ऋद्धि महानसरिया, मालंच रॉय, आशीष कुमार घोष, तरित रायचौधरी व जयदीप मुखर्जी ने संयुक्त रूप से किया है।
शोध के अनुसार ये बैक्टीरिया 70 प्रतिशत तक क्रोमियम खत्म कर सकती है। शोध में शामिल प्रो जयदीप मुखर्जी ने कहा, ‘सबसे अच्छी बात यह है कि जिस बैक्टीरिया के बारे में पता लगाया गया है, वह एकदम स्वदेशी है और लम्बे समय से यहाँ की मिट्टी में मौजूद है।’
मिट्टी से क्रोमियम हटाने के लिये करना यह होगा कि भारी संख्या में ये बैक्टीरिया तैयार करनी होगी और उन्हें खेतों में छोड़ देना होगा। ये बैक्टीरिया मिट्टी व फसल को नुकसान पहुँचाये बिना क्रोमियम हटा देगी।
जयदीप मुखर्जी कहते हैं, ‘हम दो साल तक लैब में शोध कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि क्रोमियम हटाने की यह विधि किसी भी तरह के साइड इफेक्ट्स से परे है। चूँकि हमने यह प्रयोग बहुत छोटे पैमाने पर किया है, इसलिये इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के लिये बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है।’
इसके लिये अच्छा खासा फंड के ही साथ ही संसाधन की भी दरकार होगी। इसके अलावा इसमें राज्य सरकार के सहयोग की भी आवश्यकता होगी। शोधकर्ताओं ने कहा कि वे इस विधि के जरिए क्रोमियम हटाने को लेकर बेहद गम्भीर हैं और चाहते हैं कि सरकार इसमें उनकी मदद करे।
हालांकि, अभी यह आकलन नहीं किया जा सका है कि कितना खेत में कितनी बैक्टीरिया की जरूरत है। प्रो. चौधरी ने कहा कि अगर सरकार सहयोग देगी तो बड़े पैमाने पर काम किया जाएगा।
उन्होंने कहा, ‘बड़े पैमाने पर प्रायोगिक तौर पर शोध करने के लिये सुन्दरबन में ऐसे प्लॉट का चयन करना होगा, जिसमें क्रोमियम मौजूद हो। इस प्लॉट में हम बैक्टीरिया डालकर धान की खेती कर देखेंगे और अगर प्रयोग सफल रहता है, तो इसका दायरा सुन्दरबन के उन सभी खेतों तक बढ़ाया जा सकता है, जहाँ क्रोमियम है।’
शोधकर्ता जल्द ही इसको लेकर पश्चिम बंगाल सरकार को विस्तृत प्रस्ताव देंगे। प्रो. चौधरी ने कहा कि वह जल्द ही राज्य सरकार को पत्र लिखकर इसके बारे में बताया जाएगा और उनसे सहयोग की अपील की जाएगी।
शोधकर्ताओ व विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इस शोध के तर्ज पर ही और भी कई तरह के शोध कर नई चीजें सामने लाई जा सकती हैं, जो लोगों के लिये मददगार साबित होंगी।