
इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमशः घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं ऊपजता। वह बंजर हो जाती है। कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गरम होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे।
हाल ही में जब मैं उनके फार्म पर पहुंचा, तब वे मुख्य द्वार पर मेरा इंतजार कर रहे थे। सबसे पहले उन्होंने चाय के बदले प्राकृतिक पेय पिलाया, जिसे गुड़, नीबू और पानी से तैयार किया गया था। खेत के अमरूद खिलाए और फिर खेत दिखाने ले गए।थोड़ी देर में हम खेत पहुंच गए। इस अनूठे प्रयोग में बराबर की हिस्सेदार उनकी पत्नी शालिनी भी साथ थीं। हरे-भरे अमरूद के वृक्ष हवा में लहलहा रहे थे। एक युवा मजदूर हाथ में यंत्र लिए खरपतवार को सुला रहा था। क्रिम्पर रोलर से खरपतवार को सुला दिया जाता है। इस खेत में गेहूं की बोवनी हो चुकी थी। खेत में ग्रीन ग्राउंड कवर कर रखा था। यानी खरपतवार से ढंककर खेत को रखना। यहां खेत को धान के पुआल से ढंक रखा था। इसमें गाजरघास जैसी खरपतवार का इस्तेमाल किया गया था। पूछने पर बताया कि सामान्य सिंचाई के बाद पुआल या खरपतवार ढंक दी जाती है। सूर्य की किरणों से ऊर्जा पाकर सूखे पुआल के बीच से हरे गेहूं के पौधे ऊपर आ जाते हैं। यह देखना सुखद था।
राजू बता रहे थे कि खेत में पुआल ढंकने से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं जिससे फसल अच्छी होती है। उनका कहना है कि रासायनिक खेती में धान के खेत में पानी भरकर उसे मचाया जाता है जिससे पानी नीचे नहीं जा पाता। धरती में नहीं समाता। जबकि कुदरती खेती में पानी खेत में समाता है। भूमिगत जल स्तर बढ़ता है।
खेत का ढकाव एक ओर जहां जमीन में जल संरक्षण करता है। यहां के उथले कुओं का जल स्तर बढ़ता है। वहीं दूसरी ओर फसल को कीट प्रकोप से बचाता है क्योंकि वहां अनेक फसल के कीटों के दुश्मन निवास करते हैं। जिससे रोग लगते ही नहीं हैं।
उनके मुताबिक जब भी खेत में जुताई और बखरनी की जाती है। बारीक मिट्टी को बारिश बहा ले जाती है। साल दर साल खाद-मिट्टी की उपजाऊ परत बारिश में बह जाती है। जिससे खेत भूखे-प्यासे रह जाते हैं और इसलिए इसमें बाहरी निवेश की जरूरत पड़ती है। यानी बाहर से रासायनिक खाद वगैरह डालने की जरूरत पड़ती है।
जमीन के अंदर की जैविक खाद जिसे वैज्ञानिक कार्बन कहते हैं, जुताई से गैस बनकर उड़ जाती है, जो धरती के गरम होने और मौसम परिवर्तन में सहायक होती है। ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा चिंता का सबब बने हुए हैं। लेकिन अगर बिना जुताई (नो टिलिंग) की पद्धति से खेती की जाए तो यह समस्या नहीं होगी और अब तो जिले में जो ट्रैक्टर-हार्वेस्टर की खेती हो रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग के हिसाब से उचित नहीं मानी जा सकती।

राजू भाई बताते हैं कि हम खेती को भोजन की जरूरत के हिसाब से करते हैं, बाजार के हिसाब से नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमें अनाज, फल, दूध और सब्जियां मिलती जाती है, जो हमारे परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े मे गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल ली।
गेहूं का खेत दिखाने के बाद वे जंगल की ओर ले गए। रास्ते में नाले में पानी बह रहा था। इसमें उन्होंने देशज तरीके से लकड़ी का पुल बनाया है। हम उसे पार कर जंगल में पहुंच गए। इसे पार करना तनी रस्सी पर चलने के समान था।
कुदरती खेती को ऋषि खेती भी कहते है। राजू टाईटस इसे कुदरती-जैविक खेती कहते हैं। जिसमें बाहरी निवेश कुछ भी नहीं डाला जाता। न ही खेत की हल से जुताई की जाती है और न बाहर से किसी प्रकार की मानव निर्मित खाद डाली जाती। नो टिलिंग यानी बिना जुताई के खेती। पिछले 25 साल से उन्होंने अपने खेत में हल नहीं चलाया और न ही कीटों को मारने के लिए कीटनाशक व दवा का इस्तेमाल किया जाता है। यह पूरी तरह अहिंसक कुदरती खेती है।
इसकी शुरुआत जापान के मशहूर कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकुओका ने की थी, जो स्वयं यहां आए थे। फुकुओका ने स्वयं बरसों तक अपने खेत में प्रयोग किया और एक किताब लिखी-वन स्ट्रा रेवोल्यूशन यानी एक तिनके से आई क्रांति। अमरीका में भी अब बिना जुताई की खेती का चलन है।
आमतौर खेती में फसल के अलावा किसी भी तरह के खरपतवार, पेड़-पौधों केा दुश्मन माना जाता है। लेकिन कुदरती खेती इन्हीं के सहअस्तित्व से होती है। इन सबसे मित्रवत व्यवहार किया जाता है। पेड़ पौधों को काटा नहीं जाता। जिससे खेत में हरियाली बनी रहती है। यह पूछने पर कि फसल को क्या पेड़ों से नुकसान होता। राजू का जवाब है- बिल्कुल नहीं।

बिना जुताई (नो टिलिंग) के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था तब मुझे भी विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गई। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रमशः घटती जाती है और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं ऊपजता। वह बंजर हो जाती है।
कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। शुद्ध हवा और पानी मिलता है। धरती को गरम होने से बचाने और मौसम को नियंत्रण करने में भी मददगार है। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उसे धरती माता कहते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता हो सकता है। भले ही आज यह व्यावहारिक न लगे लेकिन इसमें वैकल्पिक खेती के सूत्र दिखाई देते हैं।
( इंक्लूसिव मीडिया फैलोशिप 2011 के तहत यह रिपोर्ट लिखी गई है)