सर्दियों में ज्यादा बर्फबारी, गर्मियों में भीषण गर्मी और मानसून का देर से आना, यह सारे लक्षण ग्लोबल वार्मिंग के हैं। वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि अगर समय रहते नहीं चेते तो मौसम चक्र तहस-नहस हो सकता है और दुनिया को उसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
उत्तरी और पश्चिमी भारत में कई जगह इस बार गर्मी में रिकॉर्ड तोड़ा है। जनवरी, फरवरी और मार्च में हिमालय श्रंखलाओं के साथ ही मध्य हिमालय में रिकॉर्ड बर्फबारी हुई थी। मानसून इस बार देर से आने की संभावना है।
मौसम चक्र में भारी बदलाव ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही हो रहा है। हर मौसम अपने रिकॉर्ड स्तर को छू रहा है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ ग्लेशियर विशेषज्ञ डॉ. बीपी डोभाल ने बताया कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पहले हिमालय पर इस क्षेत्र में हिमपात नवंबर, दिसंबर और जनवरी में अमूमन ज्यादा होता था। अब जनवरी, फरवरी और मार्च तक इसका दायरा बढ़ गया है। कई वर्षों बाद पिछली सर्दियों में जमकर बर्फबारी हुई थी और उसके बाद अब गर्मी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच रही है। गर्मी के मौसम का दायरा आगे बढ़ रहा है और मौसम का समय भी उसी अनुपात में खिसक रहा है।
इस बार नहीं पिघलेंगे ग्लेशियर
ग्लोबल वार्मिंग का व्यापक असर जहां मैदानी इलाकों में दिख रहा है वहीं सर्दियों में 'थर्ड पोल' यानी हिमालय में पड़ी रिकॉर्ड बर्फ के कारण इस साल गर्मियों में ग्लेशियरों की सेकंड लेयर आइस नहीं पिघलेगी। ग्लेशियरों की आइस के ऊपर इस बार रिकॉर्ड बर्फ पड़ी है। इस कारण अगस्त तक बर्फ की ऊपरी परत ही पिघल पाएगी जब तक ग्लेशियर की दूसरी परत की पिघलने की बारी आएगी तब तक अक्टूबर से फिर हिमपात होने लगेगा। वरिष्ठ ग्लेशियर वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल ने बताया कि अमूमन जून तक ग्लेशियर के ऊपर पड़ी बर्फ पिघल जाती है। उसके बाद ग्लेशियर की दूसरी परत की आइस पिघलने लगती है। इस बार ऐसा नहीं हो रहा है।