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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार
गर्मी की तीव्रता से मनुष्यों और जानवरों का जीना मुहाल हो गया है। कुएं, तालाब और नदियों के जल स्तर में कमी आ रही है। ये संकट मनुष्य ने खुद पैदा किए हैं। बदल चुकी जीवन शैली की वजह से कृत्रिम तौर पर संकट पैदा हुआ है। दिल्ली में कभी 350 से ज्यादा तालाब हुआ करते थे लेकिन आज शायद तीन भी मुश्किल से मिलेंगे।
सच तो यह है कि यह संकट मौसम चक्र में आ रहे बदलावों के नतीजे हैं। गर्मी का मौसम चार महीने का होता था अब आठ महीने या नौ महीने गर्मी पड़ने लगी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ये बदलाव कृत्रिम तौर पर पैदा किए गए संकटों से हुए हैं। अन्यथा मौसम चक्र से चीजें चलती रहती तो संभव है कि कभी कोई बड़ा संकट नहीं पैदा होता।
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में देश में बहुत भयंकर अकाल पड़ा था और नुकसान भी बहुत ज्यादा हुए थे। लेकिन क्या उस नुकसान की तुलना सुनामी या चिरनोबिल की त्रासदी से की जा सकती है? आधुनिक समय में बचाव की सुविधा ज्यादा होते हुए भी पहले की तुलना में ज्यादा बड़े नुकसान हो रहे हैं। या फिर बड़े नुकसान के संकेत मिल रहे हैं। क्या आपने कभी किसी जहर खाकर मरते हुए किसी व्यक्ति को करीब से देखा है? क्या आपने किसी सांप के काट खाए हुए व्यक्ति की पीड़ा महसूस की है?
अगर आपने इन घटनाओं को कभी करीब से देखा हो तो आपको बात बहुत आसानी से समझ में आ जाएगी। दरअसल इन दोनों परिस्थितियों में मरने वाला व्यक्ति बहुत असहज महसूस करता है। उसे बहुत छटपटाहट महसूस होती है। उसकी हलक मरुस्थल की धरती की तरह नहीं सूखती है बल्कि तवे की तरह जल उठती है।
जहर से नीला पड़ता शरीर पानी-पानी की मांग करता हुआ दम तोड़ देता है। लेकिन उसे बचाने की जद्दोजहद में लगे लोग पानी की बजाए पानी में गोबर घोल कर पिलाते हैं ताकि उसे उल्टियां हो और शरीर का जहर बाहर निकल सके। संभव है कि दुनिया में पानी का संकट ऐसी ही मुश्किलें लेकर हमारे सामने लेकर पेश हो। हमें संभल जाना चाहिए क्योंकि इसकी प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।
पानी को अमृत, जीवनदायिनी और पता नहीं क्या-क्या कहा गया है। इसकी महत्ता पर बहुत कहा और लिखा गया है। लेकिन क्या पानी को हमने अमृत और जीवनदायिनी पदार्थों की तरह सहेज कर रखना सीखा है? मनुष्य के शरीर का 70 फीसदी हिस्सा पानी से बना हुआ है। मां के दूध में भी 70 फीसदी जल होता है। शरीर की ज्यादातर गड़बड़ियों में पानी का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर कहीं-न-कहीं योगदान होता है।
बीमार व्यक्ति जब किसी संवेदनशील डॉक्टर के सामने खड़ा होता है तो उसे यही सलाह मिलती है कि खूब पानी पिएं और परहेज करें। दवा देने के साथ ये दो सलाह क्यों दी जाती है? डॉक्टर के मनोविज्ञान को समझना बहुत जरूरी होगा। चूंकि मनुष्य के शरीर के निर्माण में पानी एक निर्णायक कारक की भूमिका का निर्वाह करता है इसलिए इसकी महत्ता को समझाने की कोशिश की जाती है। दूसरी सलाह परहेज की इसलिए दी जाती है क्योंकि आपके शरीर को कायम रखने के लिए जरूरी ऊर्जा संसाधन बहुत ही सीमित मात्रा में हैं।
आपको इस सीमित ऊर्जा को संभल कर खर्च करना जरूरी होता है। यह सहेजकर रखी हुई ऊर्जा आपको जरूरत के दिनों में बहुत काम देती है। मरुस्थल के जहाज ऊंट के बारे में आपने यह सुना ही होगा कि उसके शरीर में एक विशेष प्रकार की थैली बनी होती है, जिसमें वह जल सहेजकर रखता है। लंबी यात्रा के दौरान जब उसे पानी नहीं मिलता है तो वह उस थैली में से पानी निकाल अपनी प्यास बुझा लेता है।
पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर में पानी के संकट पर विचार-विमर्श आयोजित किए जाते रहे हैं। इन आयोजन में तमाम तरह की चिंताएं और चेतावनियां प्रकट की जा रही हैं। आरोप और प्रत्यारोप भी लगाए जा रहे हैं। पर्यावरणविद् और मौसम विशेषज्ञ पानी के संकट की वजहें गिना रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हमारे देश में लोग अपनी मोटर कारें धोने और पश्चिमी देशों की तर्ज पर बने टॉयलेटों में बिना जरूरत के हजारों लीटर पानी बर्बाद कर रहे हैं।
एक आंकड़े के अनुसार मुंबई में लगभग दो दर्जन मनोरंजक पार्को में हर रोज 50 अरब लीटर से ज्यादा पानी को इस्तेमाल में लाया जाता है। इतना सारा पानी अमीरों के मनोरंजन पर हर रोज बहाए जा रहे हैं। राजस्थान के कई जिलों में पिछले 7-8 सालों से कई इलाकों में लगातार सूखा की स्थिति बनी हुई है। लेकिन जयपुर और उदयपुर जैसे शहरों में वॉटर पार्क और गोल्फ कोर्स बनाए जा रहे हैं। मनोरंजन पार्क बनाए जा रहे हैं। सड़कों के बीचोंबीच पानी के बड़े-बड़े फव्वारे लगाए जा रहे हैं। इन जरूरतों को पूरा करने के लिए 18-20 लाख लीटर तक पानी हर रोज चाहिए होता है।
पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर में पानी के संकट पर विचार-विमर्श आयोजित किए जाते रहे हैं। इन आयोजन में तमाम तरह की चिंताएं और चेतावनियां प्रकट की जा रही हैं। आरोप और प्रत्यारोप भी लगाए जा रहे हैं। पर्यावरणविद् और मौसम विशेषज्ञ पानी के संकट की वजहें गिना रहे हैं। वे कह रहे हैं कि हमारे देश में लोग अपनी मोटर कारें धोने और पश्चिमी देशों की तर्ज पर बने टॉयलेटों में बिना जरूरत के हजारों लीटर पानी बर्बाद कर रहे हैं। क्या मनुष्य की बढ़ती आर्थिक क्षमता ने उसके मानस में अकाल का संकट तो पैदा नहीं कर दिया है? क्या उसे यह लगता है कि इस संसार में वह सीमित संसाधनों को लुटाकर जिंदा रह पाएगा? निश्चित तौर पर उनकी यह सोच मनुष्य की बहुत बड़ी आबादी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है। खुद उनके लिए भी संकट की स्थिति पैदा हो रही है। आपके लिए यहां एक उदाहरण पेश करना ठीक होगा। दिनचर्या के बतौर फरवरी महीने में किसी रोज मां से मेरी बातचीत हो रही थी। उन्होंने बताया कि यहां नलकूप में पानी बहुत थोड़ा गिर रहा है। कुएं का पानी बहुत नीचे चला गया है। यह बिहार के मुंगेर जिले की एक कहानी है। यह गंगा नदी का क्षेत्र वाला इलाका है। संयोग से मेरे गांव में तीन छोटी-छोटी नदियां भी बहती हैं।
20-25 साल पहले इस गांव की मिट्टी में 8-10 फीट पर ही पानी मिल जाता था। अब यहां 50-60 फीट गहरा खोद कर नलकूप से पानी हासिल किया जा रहा है। ज्यों-ज्यों समय गुजरता जा रहा है त्यों-त्यों पानी हासिल करने के लिए और गहरे उतरना पड़ रहा है। गांव में लोगों के कुएं जब सूख रहे होते हैं तो वह कहते हैं कि पानी पाताल चला गया। मार्च के अंतिम दिनों में वहां सुबह 9-10 बजे तक कोहरा गिर रहा है। यह आपको आश्चर्यजनक घटना लग सकती है। लेकिन यह आपके और हमारे किए हुए का नतीजा है।
मध्य और पूर्व एशियाई देशों खासकर अफगानिस्तान, इराक और अरब के देशों में पानी बहुत कम है। वहां पानी कम खर्च करने की परंपरा और संस्कृति समाज ने विकसित कर ली। वहां का मुस्लिम बहुल समाज एक खास किस्म का लोटा इस्तेमाल में लाते हैं। लोटे में एक टोंटी लगी होती है। हिंदूवादी किस्म के लोग उसे मुसलमानी लोटा भी कह डालते हैं। क्या आपने सोचा कि उनके द्वारा इस्तेमाल में लाए जाना वाला लोटा ऐसा क्यों होता है?
दरअसल इस लोटे से आप जितना पानी गिराना चाहें उतना ही गिरता है। इससे पानी थोड़ा-थोड़ा करके बाहर आता है। यह लोटा जल सहेजने के विचार से अस्तित्व में आया है। हमारे यहां के लोटे का मुंह बड़ा होता है क्योंकि हमारे यहां पानी की दिक्कत नहीं रही है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यहां इत्र और फुलेल की संस्कृति भी विकसित हुई। इसके पीछे भी उस समाज के अपने तर्क हैं।
समाज में ऐसी ज्यादातर चीजें जिसे पूरा समाज प्रचलन और परंपरा के तौर पर स्वीकार लेता है उसके पीछे उनके कुछ-न-कुछ तर्क होते हैं। ये तर्क उनकी भौतिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर तैयार किए जाते हैं। इन इलाकों में पानी की किल्लत है इसलिए हर रोज नहाने के लिए पानी मिल जाए, ऐसा संभव नहीं है। गर्म प्रदेश है। धूल भरी आंधियां चलती हैं। अपने को ताजा महसूस करने के लिए यहां के समाज ने इत्र और सुगंधी की संस्कृति विकसित कर ली।
कहने का तात्पर्य यह है कि आपके संसाधन कम या ज्यादा जो भी हों, अगर आपने उन्हें सहेज कर रखना नहीं सीखा तो फिर खुद के लिए ही परेशानी खड़ी करेंगे। आप चाहकर भी प्यास बुझाने के लिए पानी की जगह पैसा नहीं पी सकते हैं। इसलिए आपको संसाधनों पर कब्जा जमाने की बजाए उसे सहेजने, संवारने और आपसी समझदारी व तालमेल के साथ खर्च करने की कला सीखनी होगी।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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