मैं गंगा...

Submitted by admin on Fri, 08/01/2014 - 13:53
विष्णुपद से निकल चली
करती कलकल गान
एक अनूठे तप का फल हूँ
भू पर स्वर्ग सोपान
मेरी लहरों में बसते थे
शुचिता और उल्लास
काल पटल में सिमट रहा हैं
मेरा मधुमय हास
मैं सुर सरि युग युग से
मनुज का करती हूँ उद्धार
कलुष हरण कर होती जाती
मैं कलुषित लाचार
मैं माँ हूँ दुखियारी भी हूँ
किसको अपनी व्यथा सुनाऊँ
घुटती जाती मन ही मन
क्योंकर सुविमल नीर बहाऊँ
मेरे अंतस में पीड़ा है
दुर्दिन आगत के लखती हूँ
दुर्बल तन दुर्गम पथ सम्मुख
श्रांत बाधित बहती जाती हूँ
कहते पुण्य,मोक्ष,सुपथगा मैं
फिर मेरा आँगन सूना क्यूं
संस्कृति की सरस धारा मैं
फिर रहती हूँ अतृप्त क्यूं
सदियाँ बीती क्षीर नीर से
क्षीण धार में परिणत हूँ
मैं हूँ पतित पावनी गंगा
निज संतति से सन्तापित हूँ
अविरल सुधा दान दी मैंने
गरल ताप में बीत रही हूँ
पुनः कोई भागीरथ होगा
इसी आस में रीत रही हूँ!!