रसिया
रसिया बिन देखे मोये कल न परत
मैं सरजू जल भरन जात, मृदु मुस्क्या कें अंक भरे।
रसिक को देखे बिना मन में अशांति रहती है। मैं सरजू का जल भरने गयी तो उन्होंने मुस्कुराकर मुझे अपने हृदय से लगा लिया।
ख्याल
रतन कुंआ मुख सांकरे, अलबेली पनहार
अचला छोरें जल भरे, कोऊ हीन पुरस की नार
धीरें चलो पनहारी गगर छलके न तुमारी।
एक रमणीक जल वाला कुआँ है उस पर एक रूपवान पनिहारी पानी भर रही है। उसका आँचल नीचे गिर गया, उसे अपने शरीर की सुधि नहीं है उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वह किसी अवयस्क की पत्नी होगी।
विलवारी
उठी-उठी रे घटा घनघोर तो बदरिया के
पानी तो झिलारे मिल होय रहे।
आसमान में एक बदली छायी औऱ उसने मूसलाधार बारिश की, जिससे पानी ही पानी सर्वत्र दिख रहा है।
मिठौआ है ई कुंआ कौ नीर,
छायरो पीपर को गंभीर।
मिटाले तनिक छाय की पीर,
ओ पानी पीले गैलारे।
अरे ओ पथिक! इस कुएं का मीठा पानी है, पास ही पीपल की घनी छाया है। इसलिए मेरी मानो तो पानी पीकर विश्राम कर लो।
पैले बरसे झला-झींगरा,
फिर लागी झर सावन की सुहानी।
रिमझिम परत फुहार अंग पै,
करत अनंगमन में मनमानी।
पहले तो बूँदा बाँदी में पानी बरसा, फिर सावन की निरंतर झड़ी लग गई। शरीर पर पानी की फुहार के पड़ते ही कामदेव जागृत हो जाते हैं और फिर मन पर उनका ही अधिकार हो जाता है।
ई गांव में ब्याही मोरे गांव की बिटिया रानी।
ईसें मोखां पीने नैयां, ई मेड़े कौ पानी।
बुन्देलखण्ड की ये परम्परा रही है कि जिस गांव में बेटी का विवाह होता है उस गांव में लड़की का पिता पानी नहीं पीता था।टेसू आये परदेसन सें, रोटी खाई बेसन सें।
पानी पियें मटकन सें, हांत पौछें मूंछन सें।
टेसू दूर देश से आये हैं, उन्होंने बेसन के साथ रोटी खायी है तथा मटकों पानी पिया। वे बहुत भूखे प्यासे थे, खाने-पीने के पश्चात् टेसू ने अपनी मूछों से हाथ पोछे।
नरबदा को पानी इमरत रे, पानी इमरत रे
मैं तो तर गई बिना नौका नाव रे
नर्मदा जी का जल अमृत तुल्य है उसके पीने से मेरा उद्धार हो गया, बिना नाव के ही मैं वैतरणी पार हो गई।
आग और पानी वाली, बुन्देलखण्ड की माटी है।
अपने सें दूनें की गरदन, सदा समर में काटी है।
कहते हैं कि मिट्टी और पानी का असर मानव के जीवन और व्यक्तित्व पर पड़ता है। बुन्देली पानी में भी कुछ ऐसा ही है तब तो इसे वीर-प्रसविनी धरा से सम्बोधित किया गया है।
पावस गीत
क्यों बोले कोयलिया बार-बार
श्रवण सुनत डरे नर-नार।
तेरे बोल करेजवा साले,
विरह अग्नि दे जार-जार।
पंख लगे उड़जा बाही दिस,
जहाँ सीतापति यार-यार।
जल-बिन दीन मीन तलफत ज्यों,
दीन वचन कहीं चार-चार।
हे सुख देवन बेग मिलो पिय,
देव दरस सुख सार-सार।
यह कोयल क्यों बार-बार बोलती है? इसकी बोली सुनकर कुछ लोग डर जाते हैं वैसे कोयल की वाणी मीठी होती है। लेकिन विरहीजनों की विरहाग्नि तो इससे औऱ ज्यादा बढ़ जाती है। विरहीन सोचती है कि अगर पंख होते तो मैं उड़कर सीतापति श्रीराम से मिल लेती। जिस तरह से बिना पानी के मछली तड़पती है वही स्थिती मेरी है सो-हे नाथ! आप शीघ्रातिशीघ्र दर्शन दें। इसी में सुख है।
साउनी
लगी सुख सावन की झिरियां
दादुर बोले पपीहा बोले, बोल रहे बगियां
रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे, कीच मची गलियां
गोरी-गोरी बैयां गुदन-गुदाये, हरे कांच चुरियां
माथे बीज खंवारी सोहे, नथ लटके मुतियां
सावन में पिया आवन कह गये, कौल करी किरियां
जिय विस्वासी खबर न लीनी, सोच करें सखियां।
इस समय श्रावण की झड़ी लगी है, श्रावण को मनभावन कहते हैं क्योंकि वृष्टि के कारण यह मास सबको शीतलता पहुँचाता है। तभी तो सबका मनभावन है। एक विरहणी ने अपने प्रीतम से मिलने के लिए अपनी बाँहों में गुदने गुदवा लिये। हरे काँच की चूड़ी पहन ली, माथे पर बीच बेंदा पहना, गले में खंगवारी तथा नासिका में नथ। सोलहों श्रृंगार करके अपने प्रिय की प्रतिक्षा करने लगी, लेकिन वह तो आय नहीं, कोई खबर भी नहीं ली इसकी उसे बड़ी चिन्ता लगी है।
सवैया
भादों की रैन घरी सुघरी,
उपजे रघुनंदन गेंद खिलैया
खेलत गेंद गिरी जमना जल,
कूंद परे श्री कृष्ण कनैया
गोकल गांव में टेर सुनी ती, सो दोड़त आवे जसोदा सी मैया
कौने हरो मोरो नंद को लाला
सो कौने हरी मोरी सोन चिरैया।
भाद्रपक्ष की अष्टमी की मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ। बचपन से ही कृष्ण बड़े नटखट थे, इसीलिए उनकी लीलायें विख्यात हुई। उन लीलाओं में से एख गेंद लीला भी है। एक समय कृष्ण अपने ग्वाल बाल सखाओं सहित यमुना किनारे गेंद खेलने जाते हैं। गेंद खेलते में यमुना जल में गिर जाती है, कृष्ण गेंद लेने का बहाना करके उस कालियादह में कूद जाते हैं। उन्हें तो कालिया नाग का मर्दन करना था लेकिन गेंद का बहाना लिया। उधर यशोदा माता को कृष्ण के यमुना में कूदने की खबर मिली तो वे रोती बिलखती वहाँ पहुँच जाती हैं और ग्वाल बालों से पूछती हैं कि मेरा लल्ला कहाँ है।
बीरोठ
नेंची ऊंची घटियां बसे रे कुमार,
बसे रे कुमार कै रंग चंगा
चंगा धड़ेलना बेगड़ बा रे देव रंग चंगा
लैदे मोरी सास धड़ेलना मोल,
धडलेना मोल कै कुड़री तो
कुड़वी तो लैदे जड़ाऊ की रे
छुटक जुंदैया निर्मल रैन निर्मल रैन के श्यामाला
श्यामल पनियां खों नीकरी बा रे देव श्यामाला
श्यामल पनियां खों नीकरीं रे।
नीचे-ऊँचे घाटों पर एक कुम्हार बसता है एक युवती उसके पास घड़ा बनवाने को जाती है। घड़ा और कुंडरी लेकर वह सांवली सलौनी पानी भरने जाती है।
कार्तिक गीत
लै लग चीर मुरारी मोरे हर लै गव चीर मुरारी
लैकें चीर कदम पै बैंठो, हम जल मांझ उघारी
चीर हमारो देव मनमोहन, ना हम देंहे गारी
चीर तुमारो जब हम देंहे, हो जाब जल से न्यारी
जो हम जल से न्यारे हुईये, लोग हँसे दे तारी
कृष्ण की लीलाओं में चीर हरण लीला विख्यात है। जब उन्हें यह जानकारी मिलती है कि ब्रजबालाये यमुना जल में निर्वस्त्र स्नान करती हैं तो उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि जल में वरूण देव का वास होता है। और इस तरह से स्नान करना देवता का अपमान तथा मर्यादा का उल्लंघन है। उसी उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने गोपियों को सबक सिखाने हेतु उनके स्नान करते समय उनके वस्त्र उठाये थे, अर्थात् चीर हरण किये। जब वे जल में स्नान करके बाहर आने लगीं तो उन्हें यह आभास हुआ कि वस्त्र अपने स्थान पर नहीं हैं? चारों तरफ देखने पर पता चला कि वस्त्र तो कृष्ण उठाकर कदंब पर बैठे हैं। उन ब्रजबालाओं को कृष्ण ने यह सबक सिखाया कि वे इस तरह से स्नान न करें और उनके वस्त्र दे दिये।
मत मात पिना रो-रो दृग नीर बहाओ
कैसा आया मम काल हाल बतलाओ।
मोरध्वज की दानवीरता सारे संसार में विख्यात थी। एक समय उनकी परीक्षा लेने कृष्ण तथा अर्जुन उनके पास जाते हैं तथा दान में उनसे उनके पुत्र का सिर माँगते हैं, यह बात सुनकर राजा-रानी चिन्तित हो जाते हैं। उनके पुत्र ताम्रध्वज ने अपने माता-पिता को इस तरह से शोकमग्न देखा तो वह इसका कारण पूछता है।
नारदी फाग
गंगा रे तोरे निरमल नीर,
तोरे रे पिये से जग तर गये हॉ
गंगा जल को “अमृत तुल्य” माना जाता है। तो दूसरी तरफ गंगा पतित पाविनी भी हैं। गंगा जल के पान करने से लोग भवसागर से मुक्त हो जाते हैं।
बिना पानी के पान, कैसे रहें रे माचला में
पान का पानी के साथ बड़ा गहरा संबंध है, अगर पानी की थोड़ी सी कमी हो जाये तो पान कुम्हलाने लगते हैं।
नीले रे श्यामालिया श्याम, नीले भरे रे जल जमना के हाँ
कृष्ण का वर्ण नीला है, इसी तरह से यमुना जल भी नीले रंग का दिखाई देता है।
पिया आहो कौन से मईना में पिया आहो
चार मईना जड़कारे के लागे,
थर-थर कपों बिछौना में
चार मईना बसकारे के लागे,
पानी चुंअत बिछौना में
चार मईना गरमी के लागे,
चोली भीजे पसीना में
हे प्रिय! आप किस माह में आयेंगे? जब चार महीने शीत ऋतु के आये तो मैं अकेली घर में थर-थर काँपूगी। जब चार मास वर्षा के आयेंगे तो मेरे बिस्तर में पानी रिसा करेगा। गर्मी के चार महीनों में मैं पसीने में तरबतर रहा करूँगी।
कहरवा
ठॉड़े रेयो ये मनमोहन,
भर-भर ल्याहों गागरिया
ये बंशी वारे शामरिया
धीरें चलें घर बालक रोबे,
झपट चलें छलके गागरिया
ठांड़े भरे मोरी कम्मर दुखत है,
नेवरे भरें भींजे चूनरिया
हे मुरली मनोहर श्याम! आप थोड़ी प्रतीक्षा करें, तब तक मैं पानी भरकर ले आऊँगी। उस पनिहारी को पानी से भरी गगरी लेकर धीरे चलने पर अपने घर में छोड़े शिशु के रोने का डर है और अगर वह जल्दबाजी करती है तो गागर से पानी छलकेगा। अगर मैं पानी खड़े-खड़े भरती हूँ तो मेरी कमर दुखेगी और झुककर भरूँगी तो चूनर भीगेगी।
जल में बसे कमोदनी, चन्दा बसे अकास
जै छैला हिरदै बसें, खटकें आदी रात
जल में कमलिनी खिलती है, चंदा आसमान में उगता है। यार हृदय में बसते हैं, वे हमेशा याद आते हैं।
स्वांग
अजय मील कौ बनों चौतरा, तापै जेजम डारी
खेलत-खेलत प्यास लगी है, भिम्मे पठै दव पानी
भिम्मां पानी सें लौट ने पाये, हारे नाम निशानी
कौरव-पांडव की द्यूत क्रीड़ा शुरू हुई। एक चबूतरा पर कालीन बिछवायी गई उस पर पाँच पांडव तथा कौरव, शकुनि, कर्ण, गंगापुत्र-भीष्म, धृतराष्ट्र आदि बैठे हैं। द्यूत क्रीड़ा में पांडवों की तरफ से धर्मराज युधिष्ठिर तथा कौरवों की पाली में शकुनि खेल रहे थे। खेलते-खेलते धर्मराज हारते गये, फिर राजधानी दाँव पर लगाई। इतने में उन्हें प्यास लगी तो भीम पानी भरने गये, भीम लौट न पाये थे कि धर्मराज ने सब कुछ दाँव पर लगा दिया था।
सौरंगा
चलत न देखो पारदी, लगत न देखे वान।
ये सखी मैं तोसें पूंछूं, किस बिद निकरे प्रान
जल थोरे नेहा घने, लगे प्रीत के वान।
तूपी-तूपी कर रहे, इस विद निकरे प्रान।
पनिहारिने पानी भरने गई तो उन्होंने देखा कि रास्ते में दो पशु नर और मादा मृत पड़े हैं, वे आपस में विचार करती हैं कि न तो कोई शिकारी आया, न ही इन दोनों के शरीर पर कोई निशान ही हैं फिर ये कैसे मर गये? एक स्त्री बोली कि ये दोनों प्राणी बड़े प्यासे थे और गड्ढे में पानी थोड़ा था वे एक दूसरे से पीने को कहते रहे, प्रेम की अधिकता में किसी ने पानी नहीं पिया, इससे ये प्यासे ही मर गये।
चम्पति के परताप तें, पानिय गयौ ससाई.
पौसेरी भरि रहि गयौ, नौसेरी उमराइ।।
चम्पतराय के प्रभाव से पानी ही सूख गया। नौ सेर से पाँच सेर ही बचा था।
कर्मन की नदी जामै भर्मन के भौर परें,
लहरै मनोरथ की कोटि निकरत हैं।
काम से कमठ महामोह से मगर जामे।
क्रोध के जहर जासों देव से जरत हैं।
लोभ जल पूरत अनंत सु अनन्य भनै,
नहीं वार पार देखि धीरज दरत हैं।
तहां शिव-शक्ति ध्यान ज्ञान सौ जहाज साजि,
ऐसे भवसागर कौ विरले तरत हैं।
कर्म रूपी नदी है जिसके प्रवाह में भ्रम रूपी भवरें आ जाती है। उस नदी में मनोकामना की अनेकों लहरें निकलती हैं। उस नदी में मगरमच्छ भी रहते हैं, वे महामोह रूपी हैं और वे क्रोध रूपी जहर से जलते हैं। लोभ रूपी जल उस नदीं में प्रवाहित होता है। उसमें शिव और शक्ति ज्ञान रूपी जहाज में सजकर जाते हैं। और उस भवसागर से कुछ लोग ही निकल पाते हैं।
गढ़ और पुर बीच बहै,
सरिता जल हू थल जीवन को सुखदाई।
श्री उदोत के नींद न तो दरसै,
सब दुक्ख नसाई।।
किला और नगर के बीच स्वच्छ जल से भरी नदी जो स्थलवासियों को सुख प्रदान करती है, प्रवाहित है।
गंगा को पतित पावनी कहा गया है एक ओर गंगा उद्धारक है तो दूसरी ओर मोक्षदायनी भी हैं, यहाँ गीतों में गंगा को कुछ इस प्रकार से प्रकट किया गया है-
गढ़ परवत में उतरी गंगा,
टोरत कोट विनासत लंका।
लंका जीत राम घर आये,
घर-घर होत आनंद बधाये।।
दूसरी तरफ कुछ इस तरह से गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई है-
भागीरथ ने करी तपस्या,
गंगा आन बुलाई मोरे लाल।
भागीरथ के पुरखा तर गए,
तर गव सब संसार मोरे लाल।।
गंगा हिमालय से निकलती हैं, वे पहाड़ों को काटती हुई लंका का विनाश करती हुई प्रवाहित है। श्री राम जब लंका विजय के पश्चात अयोध्या आये तो उनके स्वागत में हरेक नगर वासियों ने मंगल वाद्यों का वादन करवाकर अपनी खुशी व्यक्त की। गंगा को भागीरथी भी कहा गया है क्योंकि वे भागीरथ के तप के कारण ही पृथ्वी लोक पर आयी थीं। गंगा के पृथ्वी पर आने से भागीरथ के पूर्वजो का उद्धार तो हुआ ही साथ में समस्त संसार का उद्धार भी हो गया।
जाय लै गये पिरान, काया डरी रूपी अंगना में
माटी कौ इक बनो घड़ेला, पानी मिलकें सानो
बिखर जात एक छिन में, क्या राजा क्या रंक।
यमराज जब किसी के प्राण ले लेते हैं तो उस जीव का स्थूल शरीर वहीं उसके घर में पड़ा रह जाता है। यह शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है जिसमें जल भी है। लेकिन यह काया नाशवान है, एक पल में सब कुछ नष्ट हो जाता है, भले ही वह राजा हो अथवा भिखारी सबको तो जाना ही होता है।
मोहन फेर बजादे बीना
अन्न बिना इक दुनियां तरसे, जल बिन तरसे मीना
पुरुष बिना इक तिरिया तरसे, निशदिन बदन मलीना।
हे कृष्ण! आप फिर से मुरली बजा दें। जिस प्रकार से अन्न के बिना सब भूखे रहेंगे जल के बिन मछली तड़पती है उसी प्रकार से पुरुष के न रहने से स्त्री की स्थिति हो जाती है, उसे हर समय अपने पति की कमी लगती है और वह उदास रहती है।