कबीर भजन
जैसे नटिया नट करत है, लंबी सरद पसारें
कुम्भकरन अधर चलत है, ऐसी सादन सादें।
माटी को वरतन बनो है, पानी मिलकर सानों,
विकसजात दिन एक में भैया, क्या राजा क्या रानी।
जिस तरह से नट एक लंबी रस्सी पर अपने शरीर को संतुलित करके चलता है, यह उसकी साधना होती है। उसमें थोड़ी सी भी चूक हो जाने पर वह गिर सकता है। हमारा शरीर जो कि पाँच तत्वों से मिलकर बना है उसमें पानी भी एक तत्व है। यह शरीर क्षणभंगुर है, एक क्षण मात्र में नष्ट हो जाता है चाहे वह राजा या रानी का शरीर क्यों न हो? उसे तो नष्ट होना ही होता है।
भजन
जैसे पुरहन जल में उपजें भैया, जल में करत पसारा।
ताके पत्ता नीर ने ठैरे, अब ढड़क जात बाघारा।
ढड़क जात बाघारा रे भैया, राम नाम आघारा-
पुरहिन जल में ही उतपन्न होती है और वह जल में ही फैलती है। लेकिन उसका ऐसा प्रभाव होता है कि जल में रहकर भी उसके पत्ते पर जल की बूँद नहीं ठहरती। एक बूँद उस पर पड़े तो वह ढुलक जाती है।
जड़ बिन पेड़-पेड़ बिन पानी, बिन फूलन फल होई।
कैहये कबीर सुनो भैया सादू, सूर ने माला गोई।
सूर ने माला गोई रे रामा तोरो,
मरम ने जाने कोई रे हरी।
जल के बिना कोई पेड़ कैसे हो सकता है, और पेड़ बिना पानी के नहीं होता लेकिन बिना जड़ का पेड़ है, बिना पानी के है उसके फूल भी नहीं हुए औऱ फल लग गये। कबीर दास जी कहते हैं कि ऐसे पेड़ के फलों की माला एक अंधे ने बना ली। यह तो उस परब्रह्म की माया है इसे कोई नहीं समझ सकता।
जो संसार जैसें रिहट की घरिया,
एक रितवंती एक जल में भरिया।
जो जल जम को वास,
जोई अचंभों देखकें संतों ने लये बंदोवास।
यह संसार उस रहट की घरियों के जैसा है जिस तरह से रहट चलता उसकी घरियां जल से भरती और खाली होती रहती हैं। यह संसार तो नाशवान है, जीव आता-जाता रहता है, संसार के इस नाशवान रूप को देखकर साधू-संतों ने वानप्रस्थ का मार्ग अपना लिया।
पकरे मीन बतावै रे ब्याला,
सबरो समद मचावे रे हरी
कमला कहे कबीर की बेटी,
सो इनसे पेश ने पावे रे हरी
इनसें पेश ने पावै सो इनमें
कौन कबीर कहावैरे हरी।
गोरखनाथ और कबीर में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर बात चल रही थी। गोरखनाथ कबीर को समुद्र में ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं। उन्होंने पूरा समुद्र ढूँढ़ लिया उनके हाथ में मछली आई तो उसे वे सर्प बतातें हैं लेकिन कबीर को नहीं ढूँढ़ पाते। कबीर की बेटी कमाली कहती है कि- अरे! गोरखनाथ जी! आप कबीर का रहस्य नहीं जान पायेंगे। क्यों अपने आपको श्रेष्ठ करने का प्रयास करते हैं।
आपन आपमें जगत भुलाना,
पारब्रह्म नहीं पहचाना
वातन में सब जनम सिराना,
गुण और तत्व लिखवा अक्षर सें
अंक सहित होवै गुण दरसें,
रूप दसों दिस जल सम बरसें
कबरी दास बखान-निरगुन पद निखाना।
यह संसार अपने आप में ही भ्रमित है, वह अपने मोह माया में लगा है लेकिन वह उस परब्रह्मा को नहीं पहचानता। इसी क्रम में चलते पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। गुण और तत्व को तुम क्या पहचानोगे। वह तो दसों दिशाओं में जल के समान बसा हुआ है। लेकिन उसे ढूढ़ने का हम प्रयास ही नहीं करते। कबीर कहते हैं कि यह तो निर्गुण है, हमें उसी का आश्रय लेना चाहिए।
पैलेपार इक कंचन कुईया, कुईया में नीर नहीं है रे।
अपने घर सें चली पनहारिया, हांत में डार नहीं है रे।
नदी के उस पार एक पवित्र बावड़ी है, उसमें जल नहीं है। एक पनिहारी अपने घर से पानी भरने जाती है तो उसके हाथ में पानी की डोर नहीं है।
जो मोती जल ओस को बूंदा,
ज्यों काया चली जाती जी
कैरये कबीरा सुनो भैया सादू, पड़ी रहे जा माटी
पड़ी रहे जा माटी दिवाना बंदे, को तेरा साथी।
यह शरीर की ओस की बूंद के समान है जो कि थोड़ी सी हवा लगने पर बिखर जाती है। इसी तरह से मानव शरीर भी क्षणभंगुर है। शरीर से जब जीव निकल जाता है तो फिर शरीर यूँ ही पड़ा रहता है, उसका कोई अस्तित्व नहीं होता। कबीरदास जी कहते हैं कि शरीर जीव के साथ नहीं जा सकता।
मोरे साहिब की अटरियों,
दियता झिलमिल-झिलमिल होय
ऊंची अटरियाँ ताल किवरियां,
ने जागें ने सोय
पोंचत है कोऊ विरलो संतजन,
कुटिल कुमत तज देय
मान कोट में भव उजयारों,
तिमर नदी में भोर
अनहद बाजे वाजन लगो,
सिंद की बूंद समोम
चंद सूरज दोई मारग कईये,
रये गगन मिल दोय।
बैठे तिरकुट जपै सुमरनी,
तत्व पवन रयी सोय।
राम नाम रहनी रहो,
दीनता दिल कर लेय।
कहत कबीर सुनो बैरागी,
राम-राम जुग लेव।
मेरे सतगुरू के निवास पर एक दीपक झिलमिला रहा है। उनके निवास की छत ऊँची है जिसमें लाला किवाड़ लगे हैं, वहाँ न कोई जाता है। न ही सोता है। उस स्थान पर तो बिरले ही पहुँच पाते हैं। जिन्होंने अपनी कुमती कुटिलता का त्याग कर दिया हो। जब हमारे हृदय में जागृति होगी और अंधेरी नदी में भोर हो जायेगी, उस समय हमारे मन में अनहद नाद होगा। तब समुद्र में एक जल की बूँद समाहित होगी, वह ज्ञान होगा जो हमारे मन को प्रकाशित करेगा। यह सब तभी होगा जब हमारे ऊपर श्रीराम की कृपा होगी।
एक समय धरनी सोई जैहे,
रैहे पवन और पानी रे हरी
कैरये कबीर सुनो भाई सादू,
रे जैहे नाव निशानी रे हरी
रै जेहे नाव निशानी जो तन,
जायेगो हम जानी रे हरी।
एक समय ऐसा भी आयेगा जब सब कुछ चला जायेगा, हमारा शरीर, यह संसार, यह पृथ्वी सब को जाना होता है तब केवल पवन और पानी ही शेष रहेगा। कबीर दास जी कहते हैं कि तब केवल नाम ही रह जायेगा।
करो मन वादिन की ततवीर
जमराजा के आये सिपाही, पलक धरे ने धीर
मार-मार छड़ियें प्रान निकारें
नैनों बैरये नीर
संत कबीर कहते हैं कि उस दिन को याद करो जब तुम्हारा अंत होगा। यमराज का बुलावा आयेगा तो वे एक पल की भी देरी नहीं करेंगे। तुम्हारे प्राण हर लेंगे उस समय तुम्हारी आँखों से पानी बहेगा।
नाथ मोरी गरई जिहाज भई
भौसागर पल अगम भरे हैं,
अरे मोय ने सूज परी
धोके-धोके निकर जात है, तुम बिन कौन हरी
हे प्रभु! मेरी कश्ती अब भारी हो गई है। भवसागर में वह पड़ी है, उस सागर में अथाह जल है, कुछ भी नहीं सूझता कि कैसे इसे पार करें। तुम्हारे सहारे के बिना यह कश्ती कैसे पार होगी।
सुमरो राम धनी ऐसो जनम न बारंबार
रहे दूद को दूद, घटें पानी को पानी
अल लोचन हिरदें धरो, सुदबुद को परगास
लीला मोरे साहब की, गुन गावै कबीरदास
हमें यह मानव देह बार-बार नहीं मिलेगी इसलिए इस जन्म में श्रीराम का स्मरण करना चाहिए। ऐसा करने से हमारे साथ वे करुणानिधि सच्चा न्याय करेंगे, वे दूध का दूध पानी का पानी कर देंगे। अतः हृदय में उनका ही स्मरण हो यह संत कबीर कहते हैं।
हरि से ध्यान लगावै ऐसो कोऊ
ज्यौ पनहरिया भरे कुंआ जल, हांत जोर सिर नावै
आप सदे तन अपनो सादे, सुरत घड़ा पै लावे रे हरी
कबीरदास जी कहते हैं कि कोई ऐसा है जो अपने मन में प्रभु का ध्यान करता हो? जिस तरह से एक पनिहारी कुएँ पर पानी भरने जाती है, वह हाथ जोड़कर रस्सी पकड़े रहती है उसका ध्यान घड़े में तो है ही, साथ ही पानी भरने में और घड़े को सिर पर रखे हैं उनमें होता है, इसी प्रकार सबको प्रभु का स्मरण करना चाहिए।
सादू खोज पुरानी बानी-
धरम हते पाताल पठै दये, पाप भये अगमानी
जियत न पूंछे बाप मतारी, मरे में तरपन ठानी
लम्मी कुशा की डार मंगा कें, देत ढ़केला पानी
हे साधूजन! तुम अब पुरानी सीख को याद करो जो हमारे पूर्वज बतला गये हैं। इस समय तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि धर्म पाताल लोक में चला गया और अब पाप उचित हो रहे हैं। हम अपने माता-पिता के जीते जी उनकी कोई पूँछ-परख नहीं करते, उनके मरने पर श्राद्ध पक्ष में उन्हें पानी देते हैं, यह दिखाना क्यों? जीवन में उन्हें हम भुला बैठते हैं और अपने में ही मस्त रहते है।
रेंटला ने चलो मोरों संतो के विश्राम
जल-थल में इस फूल जो उपजो,
उपजो नगर वजार जी
एक अचंभो हमने देखो,
जो बिटिया ने जालओ बाप
बिना संतों के उपदेश के हमारा यह संसार नहीं चल सकता। जल और स्थल के बीच एक पुष्प पल्लवित हुआ, वह बाजार में बिकने गया। हमने एक अनोखा आश्चर्य देखा कि एक पुत्री ने अपने पिता को पैदा किया?