फाग गणेश वंदना

Submitted by admin on Fri, 03/12/2010 - 08:58
Author
सुरेश मालवीय
डॉ ओमप्रकाश चौबे
अरे हाँ देवा सेवा तुम्हारी ना जानों-
गन्नेसा गरीब निवाज
अरे हाँ काहे के गनपति करो,
कहाँ देऊं पौढ़ाय-
अरे हाँ गोवर के गनपति करों,
पटा देऊ पौढ़ाय-
अरे हाँ देवा काहे के भोजन करों,
कहो देऊ अचवाय
अरे हाँ देवा दूध-भात भोजन करो,
गंगाजल अचवाय

हे गणेश जी! हम अज्ञानी हैं हमसे आपकी सेवा सुश्रूषा नहीं हो सकती। गणेश जी काहे के बनायेंगे, उन्हें कहाँ स्थापित करेंगे? गोबर के गणेश बनाकर उन्हें एक पटा पर स्थापित करायेंगे।

उन्हें क्या भोग देंगे, पीने का क्या देंगे? गणेश जी को दूध-भात का भोग लगायेंगे तथा गंगा जल से आचमन करायेंगे।

फाग

कोऊ ऐसो न जग में होय,
महादे बरदानी
चन्दन चांवर बेला की पाती,
अज्झा धतूरे के फूल
चढ़ावे जल पानी .........
इत गंगा बहें उत बहें जमुना,
गुप्त सरसुती प्रयाग में तिरवेनी
भागीरथ गंगा ले आये,
तरन लगो संसार, जटन में उरझानी
कोऊ ऐसो न जग में होय,
महादे बरदानी

देवाधिदेव महादेव के जैसा कोई वरदान देने वाला नहीं है। उनके पूजन में चन्दन, चावल, बेलपत्र तथा धतूरे के फूल चढ़ायेंगे और फिर जल से आचमन कराया जाएगा।

महादेव के जटों से गंगा निकलती हैं, गंगा-यमुना और सरस्वती मिलकर प्रयाग में संगम स्थल बनाती हैं। भागीरथ तपस्या के फलस्वरूप पृथ्वी पर गंगा ले आये थे, जिससे संसार का उद्धार होने लगा।

चौकड़िया

तन को कौन भरोसो करने,
आखिर इक दिन मरने
जो संसार ओंस को बूंदा,
पवन लगे से ढुरने

इस शरीर का क्या भरोसा करना? अरे! एक न एक दिन तो सभी की मृत्यु आयेगी ही। यह संसार ओस की बूँद के समान है, थोड़ी सी हवा लगने पर ओस की बूँद बिखर जाती है।

गारी

भाग बड़े ऐसो तन पायो, बिगड़ी बात बनाओ
भूखे को भोजन जो पूजे प्यासे नीर पिवाओ।

हमें बड़े सत्कर्मों से यह मानव शरीर मिला है, अतः हमें सबके काम आना चाहिए। हम भूखे को भोजन दें तथा प्यासे को पानी पिलवायें तो बड़ा पुण्य होगा, हमारा मनुष्य होने का उद्देश्य इसी में हैं।

गारी

सरके नहीं बदुवा डोरी बिना
ताती जलेबी ढूदा के लडुवा,
जेबे नहीं राजा गोरी बिना
सोनी की झारी गंगाजल पानी,
पीवे नहीं राजा गोरी बिना।

बटुवे में डोरी नहीं हो तो वह ठीक से नहीं खुलता। इसी तरह से एक पति अपनी पत्नी के न होने से खाना-पीना ही छोड़ बैठे हैं उन्हें गर्म-गर्म जलेबियाँ तथा लड्डू परोसे लेकिन वे अकेले नहीं खा रहे। स्वर्ण के लोटे में गंगाजल भरकर दिया तो वे अपनी पत्नी के न होने से पानी ही नहीं पीते।

करखा

रैन बिहूनी लगे चन्दा बिना, नदिया लगे बिना जल धार
देश बिहूनो बिन बेटा को, तैसई बिना पुरुष की नार

रात्रि में अगर चाँद न हो तो वह सूनी लगती है। नदी में अगर जल न हो तो वह भी अच्छी नहीं लगती। देश में अगर नौजवान न हो तो वह भी खाली-खाली सा लगता है, इसी तरह से विधवा स्त्री का जीवन ही सूना होता है।

काहे सामलिया माने नहीं,
रोके मोरी डगरिया रे।
छिपो रहत कुंजन बिच,
जानत सबरी सखियां रे।
जमुन तीर भरत नीर,
फोरत निज गगरिया रे।

अरे कान्हा! तुम क्यों नहीं मानते? हर समय रास्ता रोककर खड़े हो जाते हो। तुम कुंज गली में छिपे रहते हो। यह बात मेरी सारी सहेलियाँ जानती हैं। हम अगर यमुना जल भरने जाती हैं तो तुम हमारे सिर की गागरों को फोड़ देते हो।

गारी

सासो पनियां कैसे जाऊं,
रसीले दोई नैना
बहू ओढ़ो चटक चुनरिया,
और सिर पै धरो गगरिया

अरी सासू जी! मैं पानी भरने कैसे जाऊँ, क्योंकि मेरे नयन ही मेरे बैरी हैं। सास बोली कि बहू तुम अपने सिर पर एक चूनर ओढ़ लो और सिर पर गागर रखकर पानी भरने को चली जाओ।

गारी

पनियां भरन खों संग गई ननदी,
कुअला गई थी संग गई ननदी
ढीमर खों देख मचल गई ननदी

मेरी ननद पानी भरने को मेरे साथ गई थी, कुएँ पर भी वह मेरे साथ थी, लेकिन वहाँ पर ढीमर को देखा तो वह उसके साथ जाने की जिद करने लगी।

चौकड़िया

ऊधौ पंक्षी एक पपीरा, नेम प्रेम में मीरा।
सोखो कण्ट जेठ मासन में, सहत प्यास की पीरा।
पानी मांगत पाथर पावत, तऊँन होत अधीरा।
गंगा मानसरोवर हूमें, नई डूलावत जीरा।
दे घनश्याम स्वाति की बूंदे, हरत भक्त की पीरा।

हे ऊदल! पपीहा पक्षी प्रेम का बड़ा सच्चा निर्वाह करता है, जिस तरह से कृष्ण भक्त मीरा ने निर्वाह किया था। ग्रीष्म ऋतु में उसका कंठ सूखने लगता है, वह पीव-पीव की रट लगाकर प्यास को सहन कर लेता है। उसे लोग पानी माँगने पर पत्थर मारते हैं, लेकिन फिर भी वह अपना धैर्य नहीं खोता। उस पक्षी को अगर गंगा या मानसरोवर भी मिल जाये, तो भी वह उनका जल नहीं पीता। उसकी व्याकुलता को देखकर ईश्वर उसे स्वाति नक्षत्र में कुछ बूँदों की वर्षा करके अपने भक्त की पीड़ा दूर करते हैं।

चौकड़िया

हमने मुरली अधर बजाई, कननन कान चवाई।
चललल चल पनियों खाँ चलिए, गननन गोपी धाई
अररर इतनो दिन चढ़ आयो, पररर पहन अढ़ाई
नननन नई फाग जा हर की, भररर भऱतू गाई।

कृष्ण ने मुरलीवादन किया, उसकी ध्वनि सुनकर गोपियाँ पानी भरने को जाती हैं। इतना दिन चढ़ आया है कि दिन का ढाई पहर बीत गया। भरतू ने कृष्ण गोपी से संबंधित यह फाग गाई है।

काऊ की होत न पीत पुरानी, जिनने करके जानीं।
चकमक कबहुं तजै न आगी, रहे जुगन भर पानी।
जे सूजें गड़ जाति अंग में, मिटत न जनम निशानी।
मातादीन यार अपने खां, सौप चुके जिन्दगानी।

किसी का भी प्रेम पुराना नहीं होता, वह सदैव नया रहता है। जिसने भी प्रेम किया है वे इस रहस्य को जानते हैं जिस तरह से चकमक पत्थर भले ही पानी में डूबा रहे लेकिन वह अपनी आग नहीं छोड़ता। जिस तरह से शरीर में अगर कोई घाव लग जाये तो उसका निशान अमिट होता है। मातादीन जी कहते हैं कि वे अपनी प्रीत के लिए पूरी जिन्दगी दे चुके हैं।

चलमन वृन्दावन में रईये, जनम लाभ कछुलईये
जह विहरत नित जुगल माधुरी, तिनके दर्शन पइए।
भूख लगे तब बृजवासिन के, टूक मांग के खईए।
प्यास लगे जमुना जल पीकें, सुधा सुरस सुख पइए।
सूरश्याम बँसीवट बसकें, राधे-राधे कईए।

हे मन! अब तो हमें वृन्दावन में रहना चाहिए, क्योंकि हमारे जन्म का उद्देश्य वहीं रहने में पूरा होगा। वृन्दावन में रहेंगे तो नित्य हमें राधा-कृष्ण के दर्शन होंगे। वहाँ अगर हमें भूख लगी तो बृजवासियों से माँगकर अपनी क्षुधापूर्ति कर लेगें। अगर प्यासे होंगे तो प्यास बुझाने के लिए यमुना का पवित्र नीर पी लिया करेंगे। सूरदास जी कहते हैं कि वृन्दावन के वंसीवट में रहकर हम राधे-राधे का स्मरण किया करेंगे।

जग की सन्त करत नहिं आसा,
हिय में प्रेम प्रकासा।
अंजलि-पात्र पियत जल सरिता,
तरन फल खात हुलासा।
बस्ती माह काम कछु नाहीं,
करें विपिन में वासा।
दिसा वसन तन नगन मगन मन,
जग सो राहत उदासा।
खूबचन्द तब काय क्रोध मद,
मोह फांस नहीं फांसा।

इस संसार में संत जन किसी के आसरे नहीं रहते, क्योंकि उनके हृदय में प्रेम रूपी प्रकाश का वास होता है। वे प्यास लगने पर दो अंजुली सरिता का जल पान कर लेते हैं। भूख लगने पर वृक्षों के फल खाकर तृप्त होते हैं। उन्हें इस संसार से कोई लेना देना नहीं होता, इसीलिए साधु संत जंगल में निवास करते हैं। उन्हें वस्त्रों की भी आवश्यकता नहीं होती। निर्वस्त्र रहकर प्रसन्न होते हैं क्योंकि इस संसार में विरक्ति का भाव उनके मन में जागृत रहता है। कवि खूबचंद कहते हैं कि वे काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों में नहीं रमते, इनसे विरक्त रहते हैं।

पीतम बिलम विदेश रहे री,
नैनन नीर बहे री।
मोय अकेली निबल पिय बिन लख,
अंग अनंग दहेरी।
बागन-बागन बंगलन बेलन,
कोयल सबद करे री।
ईसुर ऐसी विकल बाय भई,
सब सुख विसर गये री।

पति प्रवासी हैं, वह दूर-देश में गये हैं। पत्नी को उनकी याद आती है। उन्हें याद करके उसकी आँखों में अश्रुधारा प्रवाहित होती है। मुझे अकेला जानकर मेरे मन में काम जागृत हो रहा है, इस समय बसंत का आगमन होने से प्रकृति में परिवर्तन हर तरफ दिखाई देते हैं, कोयल पीव-पीव की रट लगाती है। ईसुरी कहते हैं कि उसकी व्याकुलता में उसके सारे सुख विस्मृत कर दिये।

पानी को जैहें अब कुइयाँ,
रजऊ जात रई गुइयां।
बोली बहुत पियारी लागे,
जैसे बोलै टुइयां।
वा मुस्क्यान हंसन अरू वा छब,
कबै देखती मुइयां।
मन में बसी मिन्त्र की मूरत,
कबै दिखाय गुसैयां।
गंगाधर अब भेंट करादेव,
परे तुमारी पैयां।

अब पानी भरने कुएँ पर कौन जायेगा, क्योंकि रजऊ तो अब यहाँ से चली गई हैं। उसकी बोली बड़ी मधुर है जब वह बोलती है तो ऐसा लगता है कि जैसे तोता बोल रहा हो। अब उसकी वह मोहक मुस्कान और उसकी सूरत पता नहीं कब देखने को मिलेगी? उसकी छवि मेरे मन में अंकित हो गयी है। अब ईश्वर कब दिखायेगा। गंगाधर कहते हैं कि- हे प्रभु! अब तो उससे मिलवा दो, मै आपके पैरों को पड़ता हूँ।

ईसुर तज दये प्रान, हती न तन में पीरा।
बड़े भोर में प्यास लगीती, पियो गरम कर नीरा।

ईसुरी ने प्राण त्याग दिये हैं। उनके शरीर में कोई पीड़ा भी नहीं थी। उन्हें सुबह प्यास लगी थी तो उन्होंने गर्म पानी पिया था।

बरसौ जामें बृज वै जावै,
मेधन इन्द्र सुनावे।
सात दिना और सात रात लौ,
बूंदे गम ना खावै।
बृजवासिन के घर अंगना में
जल जमना कौ धावै।
लओ उठाय गोबरधन नख पै,
छैल छत्र सो छावै।
कैसे मारे मरत ईसुरी,
जिनखां राम बचावै।

एक समय इन्द्र ने बृजवासियों पर कोप किया। क्रोध की अधिकता में देवराज ने मेघों को आदेशित किया कि तुम इतनी भीषण वर्षा करो जिससे ब्रज बह जाय। उस समय लगातार सात दिन और सात रातों में ब्रज के ऊपर अतिवृष्टि हुई थी। ब्रजवासियों के घरों में यमुना जल भरने लगा। यह देखकर कृष्ण ने सलाह दी कि सब गोबरधन पर्वत पर जायें। सारे ब्रजवासी गोबरधन जा पहुँचे। कृष्ण ने इन्द्र का आशय समझकर गोबरधन पर्वत को अपनी अँगुली में उठा लिया और सारे ब्रजवासी पर्वत के नीचे खड़े हो गए। ईसुरी कहते हैं कि जिसका वह परमेश्वर रक्षक होगा, उसे कौन मार सकता है?

नइयां ठीक जिन्दगानी को, वनों पिण्ड पानी को।
चोला और दूसरो नईया, मानुस की सानी को।
जोगी जती तजी संन्यासी, का राजा रानी को।
जब चायें लै लेव ईसुरी, का बस है प्रानी को।

इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है, पता नहीं कब तक रहे और कब शरीर से जीव निकलकर चला जाये। यह पंचतत्व से निर्मित शरीर पानी के पिण्ड जैसा है, जो जरा सी धूप में पिघल जाता है। हाँ, मानव शरीर श्रेष्ठ है ऐसा किसी दूसरे जीव का नहीं है। वह चोला चाहे योगी-संन्यासी का हो राजा-रानी का या प्रजा-जन का, शरीर बेजोड़ है। ईसुरी जी कहते है कि प्रभु जब चाहें तब जीव को अपने पास बुला लें, यह हमारे बस में नहीं है।

झांकी विशाल श्री नंदलाल,
कहें सब ग्वाल मन मुस्काहीं।
झट देव चीर हम सब अधीर,
कंपत शरीर जल के मांही।

श्री कृष्ण ने एक समय गोपियों के वस्त्र उठाकर कदंब पर चढ़ गये। गोपियाँ यमुना में स्नान कर रही थीं। जब वे स्नान कर चुकीं और अपने वस्त्रों का ध्यान किया तो वहाँ वस्त्र नहीं थे, वह तो कृष्ण ने चुरा लिये थे। वे ब्रजबालायें कृष्ण से अनुरोध करती हैं कि-हे नंदलाल! आप हमारे वस्त्र दे दें क्योंकि हमें नहाते-नहाते ठंड लगने लगी है। यमुना जल में हमारा शरीर काँप रहा है।

अब तो जागो नंद दुलारे, भोर भये भुनसारे।
दीपक जोत मलीन भई है, छिपे गगन के तारे।
पनहारी पानी खाँ निकरीं, चलन लगे गैलारे।
दौआ आस करत दरसन की, हरदम खड़े दुआरे।

हे ब्रजराज! हे नंदबाबा के लाड़ले! अब तो जागो? भोर हो गई है रात्रि में जलाये गये दीपक भी मंद हो गये हैं, तारागण आसमान में छिप गये। पनिहारी पानी भरने को निकल पड़ी हैं। राहगीर रास्ते पर आने-जाने लगे हैं। दौआ कवि को तो कृष्ण के दर्शनों की आस है। इसलिए वह हर समय उनके द्वार पर खड़े रहते हैं।

झूला चलों देखिए आली, डरौ कदम की डाली।
गलबांही हैं राधा प्यारी, झूल रहे बनमाली।
रिमझिम बरस रहे हैं बदरा, उठी घटा है काली।
दौआ छब भर रही दृगन में, झूलन प्रेम बहाली।

सावन का मनभावन महीना आ गया। ब्रज में जहाँ-तहाँ झूले डले हैं। एक झूला कदंब वृक्ष की डाली पर डाला गया है, उस झूले पर राधाकृष्ण झूल रहे हैं। उस समय रिमझिम पानी बरस रहा है। बादल आच्छादित हैं, काली घटा छा गयी। दौआ को उन युगल की छवि आँखों में समायी है।

कैसी छाई हिये नादानी, करत सदा मनमानी।
खीर-खांड़ को पिण्ड बनाकें, देत बनाकर सानी।
ढोर समान मान पितरन कौ, देत तलैया पानी
जिये पिता की बात न पूंछी, मरें भये बरदानी
बलदेव तजो पोप लीला को, तुम सो कहत बखानी

हमारे हृदय में यह में यह बड़ी नादानी है कि हम अपने मन की ही किया करते हैं। पितृपक्ष में पितरों को पिण्डदान किया जाता है। चावल की खीर बनती है, खीर में शक्कर आदि को डालकर पिण्ड तैयार किया जाता है। पिण्ड के पश्चात् पितरों को पानी देते हैं, उन्हीं पितरों के जीते जी हमने उनका मान-सम्मान नहीं किया, औऱ मरने के बाद दिखावा क्यों? बलदेव जी कहते हैं कि हमें सदैव एक-सा व्यवहार करना चाहिए, यह ढोंग हम क्यों करते हैं?