चौकड़िया

Submitted by admin on Sat, 06/12/2010 - 17:30
Author
सुरेश मालवीय
डॉ ओमप्रकाश चौबे
सावन में मनभावन मोपै एसी विछरन डारी
मोरी जा है बारी बैस, जाये कैसे सहो कलेश
आपुन छाये सौत के देश, न खबर लई।
भादों जल बरसे गंभीर,
मोरे उठे करेजें पीर
थर-थर कांपै मोर शरीर,
सुध बुध भूल गई।

मेरे पति इस सावन मास में मुझे अकेला छोड़कर चले गये। मैं अभी अवयस्क हूँ और मुझसे ये बिछुड़ने का दुःख सहन नहीं होता, वे मुझे छोड़कर मेरी सौत के पास चले गये। मैं विरहाग्नि में रही हूँ उन्होंने मेरी खबर तक नहीं ली? भाद्रपक्ष में तो पानी सबसे ज्यादा बरसता है और इस सुहावने मौसम में मेरा मन उनसे मिलने को आतुर है लेकिन वे नहीं हैं इसलिए पीड़ा और बढ़ गई। मेरा शरीर काँपता रहा, मैं बेसुध पड़ी रही लेकिन नहीं आये।

भोजन करवे पावन बैठे हैं, परसें धनी चौहान
परसें धनी चौहान, भरो है जैसा मेला
चांदी के पटा धरे, जिनपै बैठे वीर।
सोने के गडुवा धरे, पीवैं खें कंचन नीर।

चंदेल नरेश के पुत्र ब्रह्मानंद का विवाह दिल्ली पति पृथ्वीराज चौहान की कन्या बेला से हुआ। महोबे से आयी बारात की ज्यौनार हो रही है। अपने पाहुनों के लिए स्वयं पृथ्वीराज भोजन परोसते हैं। बारातियों को देखने से ऐसा लगता है कि जैसे कोई मेला लगा हो। सबसे पहले अतिथियों के बैठने को चाँदी के पटा बिछाये गये, फिर सोने के लोटों में स्वच्छ जल भरकर सबके पास रख दिये गये।

चौकड़िया


जाती भरन नीर जमना के, दैकें कजरा बांके।
पैजनियां अरू पायजेब के, पारें जात छमाके।
आगें जोंन गली हां कढ़ गई, तहुं खिंच रहे सनाके।
शिवदयाल मोहन राधा को, बैठें बांधे नाके।

राधा जी यमुना का जल भरने जाती हैं। उन्होंने काजल लगाया, पाँव में पायजेब पहना, घुँघरू, बाली पैजनियाँ पहनी और पानी भरने को जा रही हैं। जहाँ से वे जाती हैं वहाँ सन्नाटा छा जाता है। कवि शिवदयाल जी कहते हैं कि कृष्ण तो उनकी प्रतीक्षा में थे ही, वे एक स्थान पर उनका रास्ता रोकने को खड़े हो जाते हैं।

बैरायठा


तीन चुरू अरजुन पानी या पियो रे,
और भिमला के रहे जाँय रे
पानी तो पीलो तुम भीतर सें रे,
प्यासे बहुत हो आय रे कैं......
बैंठकें पारों पैं भिमला एक चुरू भर लयो रे
और अदया गयो तला रे जाय,
चुरू में पानी तनक गयो रे।

अज्ञातवास की अवधि में एक समय भीम, अर्जुन जंगल की तरफ जा रहे थे, रास्ते में प्यास लगी तो एक जलाशय में पानी पीने को गये। पहले अर्जुन ने तीन अंजुली पानी पिया, फिर भीम पानी पीने लगे। भीम ने एक अंजुली में पानी भरा तो वह तालाब आधा हो गया।

मथुरावली


जारे मुगला पानी भर ल्या प्यासी मरें मथुरावली
जोनों मुगल पानी गओ बंगले में दै लई आग
ठांडी जरै मथुरावली।

मथुरावली एक मुगल के हाथ में पड़ जाती है, मथुरावली ने सोचा कि अपनी अस्मत बचानी है, इससे उसने मुगल से कहा कि मुझे बड़े जोर की प्यास लगी है, मेरे तंबू में पानी नहीं है इसलिए कहीं से पानी लेकर आओ। मुगल जब पानी लेने जाता है तो उस समय मथुरावली अपने तंबू में आग लगाकर जल जाती है।

हरदौल
विष भोजन को थार परस दओ,
दोऊ दृगन सों जल ढारों
पूंछत हैं हरदौल रूदन कौ,
कारन भौजी उच्चारो।


अपने प्रिय देवर हरदौल को रानी चम्पावती ने विष मिश्रित भोजन परोसा। भोजन परोसते समय उनकी आँखों से जलधारा प्रवाहित हो रही थी। हरदौल ने उन्हें रोते देखा तो वे पूछते हैं कि भाभी आप क्यों रोती हैं? इसका कारण तो बतलाइये।

महारानी लक्ष्मीबाई


धन्य-धन्य झांसी की धरती,
धन्य-धन्य वह पानी।
धन्य दुर्ग जिसमें दुर्गा सम,
प्रगटी लक्ष्मी रानी।


झाँसी की वह धरती धन्य हैं, तथा वहाँ का पानी भी धन्य है जिसने लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना को जन्म दिया।

ढोला मारन


अपने नाम लिया ढीमर पानी में दें हाथ चलाय।
जितनी मछली थी फन्दा में,
सबरी उनके हाथ में आय।
रानी मछली भूंजन लगी,
राजा करन चले अस्नान।
जितनी मछली रानी भूजें,
सबरी जल में करे पियान।

राजा नल पर जब मुसीबत पड़ी तो वे रानी समेत अपना राज्य छोड़ देते हैं। चलते-चलते उन्हें भूख लगती है तो वे एक जलाशय में रुकते हैं। वहाँ एक ढीमर को मछली पकड़ते देख वे उससे अपने लिए मछली पकड़ने को कहते हैं। ढीमर ने अपना नाम लेकर पानी में जाल फेंका तो सारी मछलियाँ जाल में फँस गई। रानी मछली भूनने लगी और राजा जल में स्नान करने जाते हैं। भूनी हुई मछलियाँ पुनः पानी में चली जाती है।

छिड़िया हले पानी डगे, बैया नै नै दूनर होय

ओड़े फरिया पाट की, रूप दये भगवान।

मारू एक जलाशय की सीढ़ियाँ चढ़ रही है। उसके चलने से सीढ़ियाँ हिलने लगीं। पानी में लहर पड़ने लगी। उसकी नाजुक बाँह चलने से मुड़ जाती है। मारू एक झीनी ओढ़नी ओढ़े हैं। उसे ईश्वर ने अपूर्व रूप दिया है।

सुन आगली सुन पाछली, और मंजिया की पनहार।
तोरे घड़ा के ठंडे पानी, चुरूवा भर देव पियाय।
तन ढोले तम्बू कसो, ढीली करें बाख।
तैं का पानी पियत है, मोरो नीर अकारत जाय।

एक राहगीर को बड़े जोरों की प्यास लगती है, उसे तीन पनिहारिन दिख जाती है। तो वह उन्हें संबोधित करके कहता है कि-ओ! आगे, पीछे, मध्य में चल री पनिहारीं आपके घड़ों में शीतल जल भरा है, मैं प्यासा हूँ सो मुझे थोड़ा सा पानी पिला दो।

पनिहारिन पथिक से कहने लगीं कि तुम्हारा शरीर तो ढुलमुल तम्बू जैसा है, पानी पीते समय तुम अँगुली फैलाये हो, लगता है तुम्हें पानी नहीं पीना, क्योंकि तुम प्यास का बहाना कर रहे हो। हम पानी डालते हैं तो तुम उसे गिरा रहे हो, हमारा तो पानी व्यर्थ ही जा रहा है।

मेलजा नायका मेलजा, इतई डरे मैदान।
कछरन चारे बरदा चरें, पानी पियें समद के घाट।

अरे नायक! तुम तो यहीं रूक जाओ। यहाँ बड़ा विशाल मैदान है, तुम्हारे बैल इस मैदान में चरेंगे और समुद्र में पानी पी लेंगे।

रेंटा कते ने पोनी,
देखत की नोनी।
झिरिया को पानी ओसे भरो ने जावे,
उनखो लगादे बरोनी।

वह देखने में तो सुन्दर है लेकिन उससे घर का कोई काम नहीं होता। न सूत कात सकती है न पौनी बना सकती है। उससे कुँआ का पानी भी नहीं भरा जाता और कहती है कि एक पनिहारिन लगा दो वहीं पानी भरेगी।

रसिया


देखो रसिया छैला होरी को, रसिक संवादी गोरी को।
केसर नीर शीश से डारत, खेल करत बरजोरी को।

यह तो होली का रसिया है जिसका संबंध युवतियों से है। वह जल में केशर मिलाकर हमारे सिरों पर डाल देता है।

फाग


भुनसारें चिरैया काये बोली,
काये बोली कैसे बोली
ठांडे से पानी गरम कर लायीं,
सपरन न पाये पिया काये बोली।

यह सुबह-सुबह चिड़िया क्यों बोल रही है? इसका कोई न कोई कारण जरूर होगा। मैंने ठंडे पानी को गर्म किया और अपने पति को स्नान हेतु दिया, वे स्नान ही नहीं कर पाये कि वह फिर से बोल उठी।

फाग


करकें नेह टोर जिन दईयो, दिन-दिन और बढ़ईयो
जैसे मिले दूद में पानी, ऊंसई मनै मिलैयो।

देखो! मुझसे प्रेम करके उसे तोड़ न देना, वह प्रेम रूपी बेल तो दिन-दिन बढ़ती रहे, ऐसी युक्ति करना। जिस तरह से दूध में पानी मिलाने से एक सा हो जाता है, उसी तरह से हमारे मन हमेशा मिले रहें।

होली की साक


जल में बसे कमोदनी, चन्दा बसे अकास

जे छैला हिरदै बसें खटकें आधीरात
मिलना चाहे यार, दूर के बसैया नीरे राख ले

जल में कमलिनी होती है, चन्दा आकाश में रहता है। लेकिन मेरे यार मेरे हृदय में बसते हैं और आधी रात को उनकी याद आती है। अगर उनसे मिलने की चाह है तो उन्हें पास में ही बुला लो, दूर रहने पर मिलना संभव नहीं।