मालिन हादसे का मर्म

Submitted by birendrakrgupta on Mon, 09/01/2014 - 13:04
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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 1 सितंबर 2014
बयान में कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षो में सरकार को इस तरह की आपदा की पर्याप्त चेतावनियां मिल चुकी थीं। इस क्षेत्र में छोटे-छोटे भूस्खलन होते रहे थे और पास में ही स्थित डिंभा बांध के बैक वाटर का प्रवाह इनके पीछे एक बड़ा कारण था। लेकिन, इन तमाम वर्षो में सरकार ने रोकथाम के लिए कोई कदम ही नहीं उठाए। अपेक्षाकृत हाल ही में पहाड़ीवाले बाजू में जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा।पुणे के मालिन गांव 30/31 जुलाई 2014 की रात भारी बारिश से मलवे में दब गया। जिला प्रशासन ने हादसे में 152 लोगों के मरने की आधिकारिक घोषणा की। आरोप है कि यह हादसा कोई प्राकृतिक आपदा न होकर इंसान का किया हुआ महाविनाश है, जिसे खास तौर पर तेज बारिश ने और घातक बना दिया। 12 ज्योतिर्लिगों में एक भीमाशंकर से करीब 10 किमी नीचे बसे 44 घरों की आबादी वाले इस गांव पर पहाड़ी का एक हिस्सा टूटकर गिर पड़ा और पूरा गांव सोते-सोते ही मलबे के नीचे दब गया।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित तीन सदस्यों की एक समिति मालिन में भूस्खलन हादसे की जांच करेगी। इस टीम में मंत्रालय का एक अधिकारी और दो विशेषज्ञ शामिल होंगे। यह समिति हादसे की जांच कर एक महीने में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। तीन सदस्यीय समिति इस बात का पता लगाएगी कि मालिन गांव का यह हादसा मानव सर्जित है या कुदरती। जानकारी के मुताबिक इस पहाड़ी के तलहटी में जो बंजर जमीन थी, उसे समतल बनाने का कार्य चल रहा था।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सoवादी) के पोलित ब्यूरो ने 31 जुलाई को जारी अपने बयान में मांग की है कि महाराष्ट्र के पुणे जिले के मालिन गांव में हुई भयावह त्रासदी के असली कारणों की समयबद्घ की जांच करायी जाए। इस त्रासदी में कम से कम 200 अमूल्य आदिवासी जानें गयी हैं। इस त्रासदी की भीषणता इस आशय की स्तब्ध कर देने वाली खबरों से और बढ़ जाती है कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं हो सकती बल्कि इंसान का किया हुआ महाविनाश है, जिसे खासतौर पर तेज बारिश ने और घातक बना दिया।

बयान में कहा गया है कि पिछले कुछ वर्षो में सरकार को इस तरह की आपदा की पर्याप्त चेतावनियां मिल चुकी थीं। इस क्षेत्र में छोटे-छोटे भूस्खलन होते रहे थे और पास में ही स्थित डिंभा बांध के बैक वाटर का प्रवाह इनके पीछे एक बड़ा कारण था। लेकिन, इन तमाम वर्षो में सरकार ने रोकथाम के लिए कोई कदम ही नहीं उठाए। अपेक्षाकृत हाल ही में पहाड़ीवाले बाजू में जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा। इन मशीनों का इस्तेमाल वैसे तो आदिवासियों की जमीनों के विकास के नाम पर किया जा रहा था, लेकिन वास्तव में इसके पीछे जेसीबी मशीनों के मालिकों, भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं के गठजोड़ के हित साधने की कोशिश की जा रही थी।

इन भारी मशीनों के इस्तेमाल से पहाड़ी सतह को नुकसान पहुंचा था। इन मशीनों के इस्तेमाल का आदिवासियों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था, फिर भी सरकार ने उनके इस्तेमाल पर पाबंदी नहीं लगायी। इतने ही त्रासद तरीके से इस दूरदराज के आदिवासी गांव तक जाने वाली सड़कों की उपेक्षा की जाती रही थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि राहत समय पर नहीं पहुंच पायी। अगर राहत समय पर पहुंच जाती तो शायद कुछ जानें बच सकती थीं।

यह त्रासदी गाढ़े रंग से इस सचाई को रेखांकित करती है कि आदिवासियों के विशाल हिस्से कितनी भयावह स्थितियों में जीते हैं। यह त्रासदी आदिवासिेयां के प्रति सरकारी नीतियों व रूख की घोर उदासीनता को सामने लाती है। माकपा ने त्रासदी में अपने प्राण गंवाने वालों के परिवारों व समुदायों के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए नुकसान का पूरा मुआवजा दिए जाने की मांग की तथा इस महाआपदा के असली कारणों के जांच की मांग की है।

इस क्षेत्र का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों ने इसकी ओर ध्यान भी खींचा था कि बांध से पलटने वाले पानी के प्रवाह से पहाड़ की मिट्टी का भारी कटाव हो रहा था। इस इलाके में हर साल भूस्खलन हो रहे थे, इसके बावजूद सरकार ने उक्त रिपोर्टों को अनदेखा कर दिया। इस बांध से विस्थापित हुए अनेक आदिवासियों का तो अब तक पुनर्वास भी नहीं किया जा सका है।

आदिवासी अधिकार राष्ट्रीय मंच ने कहा है कि आपदा की चोट में आए परिवारों का पूर्ण पुनर्वास हो, उनका पुनर्वसन किया जाए और उन्हें पूरा मुआवजा दिया जाए। सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्राकृतिक संरक्षणवादियों ने राज्य सरकार के विकास समर्थक योजना को यह कहते हुए निशाने पर लिया कि ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के लिए प्रकृति की कीमत पर विकास जिम्मेदार है। मुंबई स्थित गैर सरकारी संगठन कन्जर्वेशन एक्शन ट्रस्ट के कार्यकारी न्यासी देवी गोयनका ने कहा कि इन प्राकृतिक आपदाओं का मुख्य कारण सरकार स्वयं है। मैं इन्हें मनुष्य निमित आपदाएं कहूंगा। सरकार को यह महसूस करना चाहिए कि उसकी विकास नीतियां लोगों को मार रही हैं।

आव्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन मुम्बई के अध्यक्ष सुधीन्द्र कुल्कर्णी का कहना है कि ये (मालिन की तरह के भूस्खलन) मनुष्य निर्मित आपदाएं हैं जो प्राकृतिक आपदाएं लगती हैं। उन्होंने कहा कि पूरे भारत में वनों की तेज गति से कटाई हो रही है और पेड़ नहीं होने से भूस्खलन, मिट्टी का क्षरण और नदी के बहाव में परिवर्तन हो रहे हैं। इसके चलते आम लोगों के लिए भयंकर आपदाएं आ रही हैं।

और अंत में


प्रस्तुत है कवि हरिशचंद्र पांडे की लाश घर में शीर्षक कविता की चंद पंक्तियां :

पहले तो यही सोचेंगे
न हो इनमें से कोई वह
होने को दबाए अपने भीतर कहीं
पहचानेंगे सबसे पहले चेहरा
चेहरा बुरी तरह कुचला हो धड़
धड़ में हाथ-पांव
अगर बची हो तो हाथ की अंगूठी से
पहचान लेगी महतारी
बचपन की चोट या किसी तिल से
बहन कलाई से
कपड़े, जूते, चश्मे से बच्चे
आंख मूंदकर पहचान लेगी अर्द्धांगिनी
ये जरूरी नहीं लाश ही हो क्षत विक्षत
पहचानने वाली आंखें भी हो सकती हैं
जो अपनों की न होते हुए भी कह दे
हां, यह वही है
वही।


निर्विकार