1 - इन्दौर शहर में वर्ष 2006 की गर्मियों में पानी की आपूर्ति के लिये किराये पर लिये गये टेंकरों के एवज में 2 करोड़ रूपये की राशि चुकाई गई थी। नगर निगम ने वर्ष 2007 में अपने 37 टैंकरों के अलावा 130 टैंकर किराये पर लिये थे। इस साल इतनी शिकायतें आईं कि नगर निगम प्रशासन दबाव में आ गया। इसके बावजूद जल संकट दूर नहीं हुआ और 14 मई 2007 को इन्दौर में राजनैतिक दलों और आम लोगों ने प्रशासन का उग्र विरोध किया और लोगों को पानी के बजाये लाठियां मिलीं।
2 - 2 मई 2007 को टीकमगढ़ जिले के गोटेरंगा गांव में पानी को लेकर हुये एक सशस्त्र संघर्ष में 10 लोग घायल हो गये। यह संघर्ष बन्नीलाल यादव और मनीराम यादव के बीच कुयें पर शुरू हुआ।
3- मध्यप्रदेश के मुरैना जिले को देश भर में मयूरवन के नाम से जाना जाता है। कारण कि यहां राष्ट्रीय पक्षी मोर खूब पाये जाते हैं। परन्तु पिछले तीन वर्षों में यहां मोरों की अकाल मृत्यु होती रही है। इसी क्रम में 3 से 15 मई 2007 के बीच के दिनों में महाराजपुर गांव में भीषण गर्मी और पानी के अभाव में 100 मोर मर गये। जिला मुख्यालय से मात्र 4 किलोमीटर दूर बसे इस गांव के पास से एक नहर गुजरती है पर सूखी पड़ी है, गांव के तालाब में भी पानी नहीं है। गांव वाले मोरों के लिये पानी उपलब्ध कराने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं।
4 - रायसेन जिले में कुल 8455 हैण्डपम्प हैं। इनके रखरखाव और निराकरण के लिये जिले में कुल छह हैण्डपम्प मैकेनिक हैं। यहां 105 नल-जल-योजनाओं में से 27 योजनायें बिजली, स्रोत के अभाव और अन्य कारणों से बंद पड़ी हुई हैं जबकि 54 सतही जल योजनायें बंद पड़ी हुई हैं। भूजल स्तर इतना गिर चुका है कि 109 हैण्डपम्प इसी कारण बंद हो चुके हैं।
5 - मध्य प्रदेश में पेयजल संकट गंभीर रूप लेता जा रहा है। समस्या इतनी बढ गई है कि लोग एक-दूसरे का खून बहाने से भी नहीं हिचकिचा रहे हैं। प्रदेश के 50 में से 35 जिलों में पिछले वर्ष औसत से काफी कम वर्षा होने का असर अब नजर आने लगा है। प्रदेश के बहुत बडे हिस्से में दो दिन के अंतराल पर पेयजल की आपूर्ति हो रही है। सरकार की ओर से परिवहन के जरिए पेयजल उपलब्ध कराने की कोशिशें भी कारगर सिद्ध नहीं हो पा रही हैं। प्रदेश के प्रमुख शहरों भोपाल, इन्दौर, जबलपुर, ग्वालियर और उज्जैन में पानी को लेकर झगडे आम हो चले हैं। जबलपुर में मंगलवार को गोहलपुर थाना क्षेत्र के पछियाना इलाके में दो परिवार पानी को लेकर भिड गए। लडाई में दोनों पक्षों से चार लोग घायल हुए। गोहलपुर थाने से मिली जानकारी के मुताबिक सार्वजनिक नल से पहले पानी भरने को लेकर झगडा हुआ । इसी तरह सतना में पानी न मिलने पर मंगलवार को ही परेशान लोगों ने लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के कर्मचारी की पिटाई कर दी। इससे पहले इन्दौर में भी बीते रविवार को शबरी नगर में पानी भरने को लेकर विवाद इतना बढ गया कि बात मारपीट तक पहुंच गई। इस दौरान हुई चाकूबाजी में एक महिला भी घायल हुई थी। उौन में भी रविवार को लोगों ने पानी की मांग करते हुए एक टैंकर चालक की पिटाई कर दी थी। इससे पहले वहां ऐसी ही बात पर एक टैंकर चालक को चाकू भी मारा गया था।
मध्यप्रदेश गृह युध्द का कारण बनता पानी
कहीं और नहीं मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास ही एक बड़ा औद्योगिक क्षेत्र है। मण्डीदीप। उद्योगों से भरपूरा इस क्षेत्र में पूंजीपतियों को पालने-पोसने में सरकार ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी। पर ......... इन्हीं उद्योगों में काम करने वाले और मण्डीदीप के रहवासियों को पीने के पानी उपलब्ध कराने का मसला आया तो सरकार ने नजरें लगभग फेर लीं। जिस इलाके में 10 दिन में एक बार पानी की आपूर्ति की जाती हो वहां लोगों का प्यास बुझाने के लिये भटकना स्वाभाविक है। यहां के 16 टयूबवेल में से चार में पानी का स्तर नीचे जा चुका है और बाकी बिजली की कमी से बेजार है। मण्डीदीप में ही एक ओर खतरनाक संकेत छिपा हुआ है। और वह संकेत है पानी के सामुदायिक हक का। मण्डीदीप के पास से ही बेतवा बैराज से नगरपालिका ने पानी दिये जाने की मांग की थी किन्तु जलसंसाधन विभाग ने यह स्पष्ट कर दिया कि बेतवा बैराज के पानी पर केवल औद्योगिक इकाइयों का हक है। बेतरतीब भूजल दोहन और खराब प्रबंधन के कारण इस इलाके का भूजल स्तर चार मीटर से नीचे जा चुका है पर सरकारी रिकार्ड में यह क्षेत्र जल सुरक्षित क्षेत्र माना जाता है क्योंकि यहां पीने का पानी आम लोगों को भले ही न मिले पर इलाके में पानी का औसतन व्यय 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तो हो ही रहा है फिर भले ही उसमे से 37 लीटर पानी उद्योग ही क्यों न ले रहे हों !!
आश्चर्य की बात है कि पिछली गर्मी का मौसम शुरू होने से पहले मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री ने रतलाम में 24 फरवरी 2007 को यह कहा था कि इस साल चूंकि बारिश अच्छी हुई है इसलिये राज्य में पानी का कोई संकट सामने नहीं आयेगा। इसका मतलब तो यही नजर आता है कि सरकार यही मानती है कि पानी के प्रबंधन की कोई जरूरत नहीं है, ओर पानी का संकट केवल बारिश की मात्रा से जुड़ा हे। परन्तु यह सरकारी सोच समाज के लिये बहुत घातक है क्योंकि जिस तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया गया है और पृथ्वी के गर्म होने के प्रमाण हमारे सामने आये हे। उसे अच्छे मानसूच से सुधारा नहीं जा सकता है। जल संरक्षण के नाम पर राज्य में बेतहाशा स्टपडेम बनाये गये हैं और अभी भी बनाये जा रहे हैं किन्तु हरदा नगरपालिका के अध्यक्ष, पार्षदों और स्थानीय लोगों ने मिलकर चार मई 2007 को अजनाल डेम नहीं पर बने हुये बांध को तोड़ दिया क्योंकि इस नदी की झिरें लगभग मृतप्राय स्थिति में पहुंच जाने के कारण बिरजाखेड़ी पंप हाउस के पास पानी कम हो गया जिससे पीने का पानी लोगों को मिलना बंद हो गया।
जंगलों के विनाश, शहरीकरण और पानी के अनियोजन के कारण मध्यप्रदेश की नदियां भी अब सूखने लगी हैं। जिसके फलस्वरूप पानी के लिये भूजल उपयोग पर निर्भरता खूब बढ़ी है। सरकार भी विरोधाभासी स्थिति में काम कर रही है। एक ओर तो 11वीं पंचवर्षीय योजना में भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए 90 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है किन्तु भूजल के दोहन के लिये सरकार 180 करोड़ रूपये से ज्यादा खर्च करने वाली है। वर्तमान आर्थिक और औद्योगिकीकरण की नीतियों के तहत उद्योगों को उनकी जरूरत के मुताबिक बिजली और पानी (वह भी रियायत के साथ) उपलब्ध कराने की प्रतिबध्दता सरकार ने प्रदर्शित की है। जहां तक आम आदमी के लिये पीने के ानी के अधिकार का सवाल है उन्हें तो टैंकरों से जलापूर्ति के भरोसे ही रहना होगा। इसी साल सरकार लगीाग डेढ़ करोड़ रूपये खर्च करने वाली है जिससे लगभग 30 हजार टैंकर पानी की आपूर्ति होगी परन्तु निजी स्तर पर समुदाय अपनी जरूरत पूरी करने के लिये मध्यप्रदेश में साढ़े तीन करोड़ रूपये खर्च कर चुका है। जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत है पानी, जिसके बिना अस्तित्व बनाये रखना संभव नहीं है। और जीवन की सबसे बड़ी जरूरत होने कारण ही पानी बाजार के लिये एक भारी फायदे की जरूरत बन चुका है। इतना ही नहीं पानी का फायदा उठाने के लिये सरकार ने भी बाजार को खुला छोड़ दिया हैं एक ओर तो औद्योगिक इर्कायाँ बेतरतीब जलदोहन कररही है। तो वहीं दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय और अब तो राष्ट्रीय कम्पनियां भी एक लीटर शीतल पेय बनाने के लिये 41 लीटर पानी का उपयोग कर रही हैं। योग शिक्षा को प्रोत्साहित करने की प्रतिबध्दता दिखाने और बाबा रामदेव का अनुसरण करने का दावा करने वाली मध्यप्रदेश सरकार जल और पर्यावरण संरक्षण में पारम्परिक पध्दतियों में विश्वास नहीं करती है। इसके लिए मंत्री और मुखिया अफसरशाहों के साथ अध्ययन करने के लिये हवाई विदेशी दौरे जरूर करते हैं। जलाभाव के कारण जिन परिस्थितयों का निर्माण्ा राज्य में हो रहा है वह चिंता पैदा करने वाले हैं। यह तो कहा ही जा चुका है कि पानी अगले विश्वयुध्द का कारण बनेगा; परन्तु अब इस वक्तव्य में बदलाव लाने की जरूरत है। पानी विश्वयुध्द का नहीं बल्कि गृहयुध्द का कारण बनेगा। वर्ष 2005 में मध्यप्रदेश में पानी के लिये होने वाले टकराव के 227 मामले दर्ज हुए थे, 2006 के वर्ष में ऐसे 303 मामले हुये और वर्ष 2007 में अब तक 587 मामले दर्ज हो चुके हैं। इस साल तो शिवपुरी, हरदा और इन्दौर में स्थानीय शासन निकायों के जनप्रतिनिधि भी सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आये।
केन्द्रीय भूजल बोर्ड (जल स्थिति आंकलन-विश्लेषण करने वाली सरकारी एजेंसी) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार राज्य के 22 जिलों में भूजल स्तर दो से चार मीटर तक गिर चुका है। जबकि 14 जिलों में यह गिरावट चार मीटर से ज्यादा दर्ज की गई है। परन्तु पानी के लिये हम धरती में और गहरे तक उतरते जा रहे हैं। जिसके परिणाम स्वरूप पानी की गुणवत्ताा का मुद्दा अहम् होता जा रहा है। भोपाल अब देश में बससे ज्यादा गैस्ट्रो एन्टार्टिस से प्रभावित लोगों वाला शहर है। 22 जिलों में पानी में फ्लोरोसिस की मात्रा बढ़ी है। एक अध्ययन के मुताबिक सिवनी में 16 हजार बच्चे और गुना में 120 गांव फ्लोरोसिस की अधिकता से प्रभावित हैं। राज्य के 30118 स्कूलों में आज भी पीने का साफ पानी बच्चों को उपलब्ध नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के अनुसार प्रदेश की 8192 नल और सतही जल प्रदान करने वाली योजनाओं में से 1507 योजनायें बंद हैं जबकि 9988 हैण्डपम्प जल स्तर कम होते जाने के कारण बंद हो चुके हैं। राज्य से अब और क्या अपेक्षायें की जा सकती हैं जबकि मध्यप्रदेश में 24517 बसाहटें ऐसी हैं जहां सरकार पानी की न्यूनतम जरूरत को भी पूरा नहीं कर पाई है। इनमें से ज्यादातर बसाहटें जलस्रोतों से 3 से 5 किलोमीटर दूर हैं। वास्तव में आजीविका और रोजगार का संकट वैसे ही राज्य के तीन करोड़ लोगों को परेशान किये हुये है, अब तो पानी भी उन्हें नसीब नहीं हो रहा है। ऐसे में राज्य को यह जरूरत याद करना होगा कि जीवन की बुनियादी जरूरत और बुनियादी अधिकार के दायरे इतने सीमित न होने दिये जायें कि आम आदमी का दम घुटने लगे। पानी की कमी ऐसी कमी नहीं है जिसे लोग नियमित मान कर स्वीकार कर लेंगें। इस पर प्रतिक्रिया होगी। आज टुकड़ों-टुकड़ों में संघर्ष हो रहा है, कल निश्चित रूप से संगठित संघर्ष होगा और यह संघर्ष साम्प्रदायिक या जातिवदी संघर्ष नहीं होगा बल्कि इसमें समाज सरकार के सामने संघर्ष की मुद्रा में होगा।
जलसंकट और उसके समाधानों पर सवाल
राज्य के गांव हो चाहे शहर अब हर जगह पानी के लिए हिंसक टकराव हो रहा है। विडम्बना यह है कि तेज विकास के इस दौर में लोगों को कुछ और मयस्सर हो या ना हो, पीने को पानी भी अब नहीं मिल रहा है। सरकार अब भी इस वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन सरकारी बाबुओं और सचिवालय में बनने वाली नीतियों से नहीं हो सकता हे। उसे उसे सबसे पहले यह मानना होगा कि पानी और जंगल को खत्म और प्रदूषित होने से बचाया जाये। यह काम भ्रष्ट तंत्र के जरिये नहीं बल्कि समुदाय को संसाधनों का अधिकार देकर ही किया जा सकता है। ऐसी स्थिति मे जलस्वराज की जरूरत महसूस होती है, जिसमे समाज जल अंकेक्षण का काम करे। सरकार भूजल प्रबंधन के नाम पर भूजल दोहन की प्रवृत्तिा को बढ़ावा दे रही है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में पुराने नलकूप बंद करके और गहरे नलकूप का निर्माण करने के लिए 182 करोड़ रूपये खर्च होंगे। सरकार कहती है कि आज प्रति व्यक्ति 40 लीटर पानी उपलब्ध कराया जा रहा है और अब लक्ष्य 55 लीटर पानी की उपलब्धता का है। परन्तु सरकार यह छिपा जाती है कि राज्य के 5400 गांव पानी से दो से छह किलोमीटर दूर हैं। 90 बड़े और मध्यम शहर ऐसे हैं जहां माह में 8-10 दिन ही जलआपूर्ति होती है।
यह सही है कि बारिश के पानी को व्यर्थ बहने से बचाना एक महत्वपूर्ण उपाय है किन्तु यह भी हमें स्वीकार करना होगा कि बारिश के पानी को बचाने की तकनीकें पूरे देश में एक जैसी न होकर स्थानीय समाज, स्थानीय भूगर्भीय और भौगोलिक स्थिति, घनत्व और बारिश की मात्रा के आधार पर तय की जाना चाहिए। पारम्परिक तकनीक के साथ-साथ पारम्परिक सिध्दान्तों का भी सम्मान किया जाना जरूरी है। पानी अपने मूल रूप में अशुध्द नहीं होता है परन्तु उसकी अपनी चारित्रिक विशेषताएं (खारा, मीठा, हल्का तथा भारी पानी) जरूर होती है। वह मानवीय समाज से गुजरकर ही अशुध्द होता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में पानी के संकट के संकेत नजर आने लगे थे। तब न तो सरकार ने कोई ठोस पहल की। इसके कारण साफ हैं। सरकार और अन्तर्राष्ट्रीय वित्ताीय संस्थायें संकट को इतना गंभीर बना देना चाहती थीं कि लोग पानी के निजीकरण और बाजारीकरण्ा का तहेदिल से समर्थन करने लगें। ऐसा ही होने भी लगा है।
बहरहाल भोपाल की 30 बावड़ियाँ उपेक्षा और राजनीति के कारण जरूर खत्म हो रही हैं। इस बात पर भी न तो जनप्रतिनिधियों ने बहस की न ही जनता की अदालत में यह सवाल उठा कि तालाबों के शहर भोपाल में ऐसा पानी का संकट पैदा क्यों हुआ कि 800 करोड़ रूपये के कर्जे के साथ 100 किलोमीटर दूर से नर्मदा की धारा को मोड़ कर लाने की जरूरत पड़ रही है। इतना ही नहीं नर्मदा का पानी इंदौर लाने के बाद भी वहां एशियाई बैंक के कर्ज की जरूरत पड़ रही है। इस शहर में हर रोज 4 लाख पानी के पाउच बेचे जाते हैं जबकि डिण्डोरी जिले के सबसे भीतरी और दुर्गम पहुंच वाले आदिवासी बहुल बैगाचक में बोतलबंद पानी पहुंच चुका है परन्तु जल आपूर्ति की स्थाई व्यवस्था सरकार वहां नहीं कर पाई। केवल आदिवासी इलाकों में ही नहीं अब तो हर जिले में बिजली की कमी के कारण पानी की आपूर्ति अनियमित हो चुकी है। कर्ज के 250 करोड़ रूपये की भोज वेटलैंण्ड परियोजना का अनुभव इस संभावना को ठोस रूप प्रदान करता है। ढाई सौ करोड़ रूपये खर्च करने के बाद आज भी बड़ी झील में 35 नालों और सीवेज लाइनों से मैला और गंदा पानी जाता है जिसे पीने का काम शहर के लोग बड़े गर्व के साथ करते हैं। और तो और गांधी चिकित्सा महाविद्यालय और हमीदिया अस्पताल का गंदा पानी भी बहकर वहीं पर जाता है पर सरकार को पता नहीं है। वर्ष 2004 से पानी का संकट कितना गंभीर रूप ले चुका है इसका अनुमान केन्द्रीय भूजल बोर्ड आंकड़ों से ही पता चलता है। मध्यप्रदेश के 24 विकासखण्ड ऐसे हैं जहां संग्रहीत होने वाले भूजल का 100 फीसदी से ज्यादा दोहन कर लिया गया जबकि 23 विकासखण्डों में 65 से 100 फीसदी यानी अधिकतम औसत से ज्यादा पानी का उपयोग किया गया। केन्द्रीय भूजल बोर्ड की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार उनके द्वारा अध्ययन किये गये कुंओं में से 40.73 प्रतिशत कुंओं का जलस्तर दो मीटर उतर चुका है। कई जिलों में तो यह गिरावट चार मीटर से ज्यादा दर्ज की गई।
सरकार भी पानी के संकट को खुद आगे रहकर प्रचारित कर रही है ताकि निजीकरण की नीतियां लागू की जा सकें। रूफ टॉप हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहित करने की नीति के तहत भारत सरकार द्वारा मध्यप्रदेश के संदर्भ में किये गये विश्लेषण से यह स्पष्ट हो गया है कि पानी के संकट के समाधान का भी एक बहुत बड़ा-फायदेमंद बाजार है। इसके मुताबिक ज्यादा जनसंख्या वाले 19 शहरी इलाकों में रहने वाले 9.76 लाख परिवारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाना है। इनमें से अगर 25 फीसदी परिवारों ने भी यदि इस पध्दति को अपनाया तो 244 करोड़ रूपये खर्च होंगे। हर परिवार को 10 हजार रूपये इस पध्दति पर खर्च करने हैं जिसमें यह कोई सुनिश्चितता नहीं है कि जल संकट का स्थाई हल होगा। इसके साथ ही मध्यप्रदेश के ग्रामीण इलाकों में भी इसे लागू करने का विचार है और इस पर 1911.5 करोड़ रूपये खर्च होंगे। यानि कि प्रदेश के लोगों को कुल 2156 करोड़ रूपये इस विचार पर खर्च करने होंगे।
इस गंभीर संकट की स्थिति में सरकार का अपना कोई नजरिया नहीं है बल्कि उसमें शामिल राजनैतिक व्यक्ति और अफसरशाह अपने-अपने हितों को प्राथमिकता देते हुये निर्णय कर रहे हैं। पानी की गुणवत्ता और स्वच्छता पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करा पाने की क्षमता के मामले में भारत को 122वें स्थान पर रखा जाता है।
पानी की स्थिति
इनमें से भिण्ड, ग्वालियर, श्योपरु, मुरैना, शिवपुरी, दतिया, छतरपुर, राजगढ़, टीकमगढ़, रीवा, पन्ना, सतना, सागर और छिंदवाड़ा के कई इलाकों में भूजल स्तर चार मीटर से भी नीचे जा चुका है।
क्या होगा अगले पांच साल में ?
इकाई और पेयजल उपलब्धता पेयजल की जरूरत की पहचान और आंकलन की इकाई बसाहटें है। मध्यप्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अनुसार राज्य की बसाहटों और पेयजल उपलब्धता की स्थिति इस प्रकार है :-
हैण्डपम्प की स्थिति
राज्य में कुल नलजल/सतही जल
स्रोत: लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग, मध्यप्रदेश सरकार, 1.1.2007 की स्थिति मध्यप्रदेश में भूजल की स्थिति (ब्लाकवार)
सचिन कुमार जैन |