Source
पहाड़, पिथौरागढ़-चम्पावत अंक (पुस्तक), 2010
“जब मेरे दिल की दुनियां बसाते नहीं हर घड़ी याद आने से क्या फायदा ...है कहूँ तो है, नहीं नहीं कहूँ तो है। इन दोनों के बीच में कुछ न कुछ तो है” ...ये पंक्तियाँ पिथौरागढ़ में नैनसिंह अम्बादत्त कव्वाल के रूप में तीस साल पहले गूँजती थी तो आदमी झूम के रह जाता था। 1965 में हबीब पेंटर आबाद थे पर यह दो कव्वाल उनसे कहीं कम न थे। यही बात शायद भूतपूर्व गवर्नर मोतीलाल बोरा ने भी महसूस की। जब पिथौरागढ़ टाउन हॉल में इन गजलों कव्वालियों का कार्यक्रम हुआ तो मंच पर आकर उन्होंने पीठ थपथपायी, कई गजलें सुनीं और नैन सिंह से कहा, “यकीन नहीं आता इतने बीहड़ इलाके में इतनी साफ जादुई आवाज में कोई उर्दू गजल गा सकता है।” फिर उन्होंने एक कोरा कागज उन्हें थमाया और दस्तखत कर बोले- “इसमें अपने लिये जो लिखना चाहो लिख लेना...।” सन 2005 में पुत्र शोक से सोर के सुरों का यह बादशाह तथा संगीत साधक पंचतत्व में विलीन हो गया।
नैन सिंह 1936 के बाद फौज में भर्ती हुए। फिर बर्मा में जापानियों की कैद में उन्हें मिले संगीत के असली गुरु डॉ. आर. के फर्नीस व डॉ. दीक्षित ने ही उन्हें संगीत में असली व्याकरण और गुरु मंत्र दिया- “हमेशा शागिर्द बने रहना, उस्ताद मत बनना...।” वापसी के बाद दर्जी की दुकान खोली और लग गये संगीत प्रचार-प्रसार में।
नैन सिंह के पिता फतै सिंह अच्छी ढोलक बजाते थे। एक बार वड्डा में वह ढोलक बजा रहे थे तो बालक नैन सिंह ताली बजा रहे थे। बालक को देख पटवारी वैराज सिंह ने कहा- “फतै सिंह, तुम्हारा यह लड़का एक दिन बहुत बड़ा संगीतज्ञ बनेगा।” बचपन में बोलते समय उनकी जबान लगती थी पर गाते समय नहीं। इस पर पिता ने कहा कि तुम बोला भी गाकर करो। तो वह गाने में ही बात करते। चल मेरे यार, जाते हैं बाजार, हो गये होशियार, देखेंगे संसार...। रामलीला में बहुत सी रचनाओं को उन्होंने रागों में बद्ध किया। चिरंजीलाल कविता लिखते और नैन सिंह स्वर देते थे। भीमपलासी में यह रचना दर्शकों को रुला देती थी-
विधिना डूबत नय्या आज...
तिलक कामोद में
देखो मुदित मन आज...
उनकी रचनाओं को आज जगह-जगह ‘अपना’ कहकर गाया जाता है। ठीक पिथौरागढ़ के शेर सिंह रावत की तरह, जिनकी रचना ‘स्वर्ग तारा ओ जुनैली रात, यो बाटो काजान्यो हो ला सुरा सुरा’ व अन्य गीतों को अपना कहकर लोक खोजियों-गायकों ने गाया और प्रसिद्धि ली।
पिथौरागढ़ कलाकारों से भरा होने पर भी ऐसे शोषणों का शिकार रहा। पर नैन सिंह कहते हैं, “कोई बात नहीं, अच्छी चीज सामने आए, क्या यह कम है?” उनका पहाड़ी गीत, जिसे उनके बेटे भगवान सिंह ने बनाया, बड़ा प्रसिद्ध हुआ- ‘मन्दिर में घंटि बाजि घन घन...।’ नैन सिंह ने अपने बड़े लड़के की मृत्यु के बाद लिखना शुरू किया। एक पुस्तक उन्होंने प्रकाशन हेतु मोतीलाल बोरा को दी जिसके 26 भाग थे। उसमें हजारों गीत स्वर सहित थे। उसी प्रकार ‘तत्व रत्नाकर’ के 26 भाग हैं जिसमें 600 पृष्ठ हैं। उनकी लेखनी में भाषा का व्याकरण नहीं है पर उनका सोर्याली बोली का प्रवाह सहजता और स्पष्टवादिता से पाठक को पकड़ लेता है। उन्होंने पहाड़ी लोक कथाओं तथा किस्सों पर भी लिखा है। कक्षा चार पास एक आम आदमी का अनुभव, उसकी सहज अभिव्यक्ति जिसे उसने पुस्तकालयों में नहीं, अपने जीवन में अपनी सजग दृष्टि से समझा है, अद्भुत है। उसकी रवानगी गाँव की एक नदी की शुद्धता जैसी है। उनकी इच्छा थी कि वह छपे पर कौन गुण ग्राहक है आज? इसलिये हम सोर के महान कव्वाल तथा गजल गायक नैनसिंह ऐर के कहे और लेखन की बानगी को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं।
“एक बात अजीब-सी मुझे याद आती है कि मैं डेढ़ साल का था, हाथों के बल चलता था। एक अनजाने उत्तरमुखी दरवाजे वाला घर भी था। उसके कमरे में भीतर चूल्हे में आग जलाये कई अनजानी स्त्रियाँ आग सेंक रही थीं। उन्हें में मेरी अनजान माँ भी थी। मैं घुटने के बल दरवाजे की तरफ आ रहा था तो औरतों ने मेरी माँ से कहा उसे पकड़ लाओ, वह गिर जायेगा। माँ मुझे गोद में पकड़कर ले गई। अभी तक सोचता रहता हूँ कि न वैसा घर मेरे मामा या मित्रों का है। शायद यह सब पूर्वजन्म का ही कुछ था। 5 साल की उम्र से स्कूल में पढ़ने लगा था। दस साल की उम्र में दर्जा चार पास हुआ। उस समय 5 कक्षा नहीं बल्कि, कक्षा चार तक की ही पढ़ाई होती थी। उसी साल यह घटना हो गई कि मेरे चाचा राय सिंह बर्मा में खत्म हो गये। उनकी पत्नी तथा 4 बच्चों को घर लाने के लिये पिताजी बर्मा गये। वहाँ ठेकेदारी का हिसाब करते हुए नौ महीना बीत गये और तब तक हमारा पढ़ना-लिखना बन्द हो गया। उनके घर आने के बाद मैं वड्डा के बाजार में दर्जियों के पास दर्जी का काम सीखने लगा। साथ ही वहाँ गाना-बजाना व फिर रामलीला में राम-लक्ष्मण का पार्ट कई वर्षों तक खेलता रहा।”
वेश-भूषा
अब मैं अपने इलाके के बचपन में देखी हुई परिस्थितियों के बारे में लिखता हूँ। वह जमाना आज के जमाने से भिन्न-सा था। मनुष्यों का सादा जीवन था। कहते थे कि मोटा पहिनना, खाना ही गुणकारी हुआ करता है। पुरुषों का भेष ऊपर चोला (एक चौकवेन्दी साकोट) एक लगोंटी ही पुराने बूढ़े लोग पहनते थे और युवक लोगों में कोट, कमीज, रेवदार पैजामा का चलन हो गया था और सिर में पगड़ी या दोकली की लखनऊ मेल सी टोपी पहनते थे। नारियों में 10-12 पाट का घाघरा व 6 कल्ली या दो कल्ली वाला आंगड़ा सिर में सुवेद लट्ठे का खातड़ा पहनती थीं। गरीबों की नारियाँ तो उसी घाघरे को रात में सोते वक्त भी ओढ़कर सोती थीं... वैसे आटा पीसने को गाड़घट चलाई जाती थी जो अब देखने को भी नहीं मिलती है। फिर भी घरों में भी आटा पीसने को चक्की, मसाला पीसने को सिलबट्टा व दाल दलने को दलनी हुआ करती थी। खाना-पहिनना तथा मेहनत से काम करने से ही लोगों की सेहत बनी रहती है, करके समझते थे और किसी मकान बनाने में सारा इलाका खेड़ी पनेली (मिल-जुलकर) कार्य किया करते थे। इसी प्रकार ग्रामों में एक-एक करके खेड़ी में (इकट्ठा) काम किया करते थे।
मडुवा बौल में आगे-आगे हुड़का बजा गाना गाते हुए सारे गाँव के लोग मिलकर गुड़ाई, नेलाई, खेती कटाई, मड़ाई आदि करते थे। शिल्पकार लोग जैसे लुहार, दर्जी तथा धोबी जमींदारों (किसानों) की मदद भी करते थे व उनको हर घर से एक-एक सूपा भरके अनाज दाल आदि प्राप्त हो जाता था और ब्राह्मण लोग अपनी वृत्ति से पुरोहित व पुजारी बनकर खूब आमद कर लिया करते थे। लोग खुद मिलकर रास्ते, पुल आदि बनाते व एक-दूसरे के सहायक रहते थे। कहते हैं कि देश गुलाम है मगर लोग इतने आत्मनिर्भर थे कि कौन राज चला रहा है करके भी नहीं जानते थे। न बिजली की जरूरत-चीड़ देवदारों के छिलकों की रोशनी काफी थी-न जल निगम न कोई विशेष डिपार्ट ही होते थे- हर छह-छह महीने में कुछ लगान के पैसे ग्राम प्रधान के पास जमा करते थे। ग्राम प्रधान भी खान-दान से ही हुआ करते थे। वह उस रकम को पटवारी को दे देता था। किसी की जमीन का दाखिला, खाता आदि का दो रुपया टीका दे पटवारी या श्रेस्तेदार खुद कार्य कर देते थे। लोग आजाद थे मगर फिर भी राज विदेशी चला रहे हैं करके खुद स्वतंत्रता की भावना सभी पर बनी हुई रहती थी।
हम बालक नवयुवक व नारी-पुरुष सदा ही जलसों, मेलों में पर्व-पर्वों में हमेशा हाथों में तिरंगा लिये हुए आन्दोलन मचाये रहते थे। कोई-कोई नेता लोग कैदकर जेल भी भेज दिये जाते थे। फिर भी आन्दोलन बढ़ता जाता था, घटता नहीं था। स्कूलों में भी राष्ट्रीय गीत आदि से देशभक्ति की भावना सिखायी जाती थी। ग्रामों में गन्ना, तमाखू आदि भी खुद पैदा करते व बाहर से अनाज आदि नहीं आता था। खुद ग्रामों में खाद्य पदार्थ काफी हो जाया करते थे। बल्कि यहाँ से घी फल आदि की चौमाल कुमार लोग घोड़े खच्चरों में भाबर-टनकपुर ले जाते व देश से गुड़, चीनी, नमक व बाकी वेसाता सामान यहाँ लाकर बेचते थे। तिब्बत से भी नमक, सुहागा आदि भोटिया लोग गाँव-गाँव दे जाते व दाल, मिर्च आदि बदली में ले जाया करते थे...। आज के जमाने में सुविधाएँ और पैसा इतना हो गया है कि आदमी भोग-भोगकर अपना शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है। प्रकृति से नाता होना आदमी की अनिवार्यता है जिसे वह अपने मद में भूल गया है।... नये राज्य बनने की लूटपाट की हालात से मैं प्रसन्न नहीं हूँ। जब उत्तराखण्ड या उत्तरांचल का अलग संविधान का प्रश्न चला तो इस नये जिले में बादल छा गया, जिसके साथ-साथ कभी-कभी मुलायम हवा भी बहा करती थी-
मैंने स्वयं सैकड़ों राग-रागिनियों में निबद्ध कई रचनाएँ की हैं। हमारे लोक गीतों में राग-रागिनियाँ स्वाभाविक रूप से बसी हैं। भगनौलों में विलम्बित जैसे गाया जाता है वह अद्भुत है। हमारे उत्तराखण्ड में संगीत का भी पहले जमाने से इतना प्रचार रहा था कि आज भी हम पहले के खेल पाल गानों में विलम्बित द्रुति की गति पाते हैं, जैसे जागर में- जोधा अर्जुन पै कुन्ती को जायो हुंलो रामा इन्दर को वर दानी हूलो तः यो मेरा बाणः पै खाली जन जावो- हो ...हो ...हो ...तब दूसरे तरफ के उठायेंगे- मारी हाल्यो जोधा ले पनिये वांण मारयो हो-। अब देखिये छोटे लै में भी- चाचरी आदि ...हे है कुक्कूचल्या असमान-हैं हैं लंका बनी परमान आदि। ये पुराने दिनों का संगीत था। खुद हमारे जमाने में भी लोग हमारे छोटे बूबू से कहते थे -यार जमन दा, एक ठुमरी सुना दे हो। हमारे बचपन के जमाने में तो चलन ही था कि तमाम बरातों में मिरासी हुड़कनों की रातभर महफिलें जमती थीं। पैसों की हथ छूट होती थी। तो उस वक्त भी यहाँ पहाड़ी इलाके में खासतौर से थल, बागेश्वर, सेल, मल्ला शिखुच्च आदि के मिरासी लोग बड़े संगीतज्ञ थे। उन्हीं दिनों गजल कव्वाली आदि का भी खूब प्रचार था।
बाद में फिल्मी गानों ने भी जोर पकड़ लिया था। मगर अब जब से रेडियो टेलीविजन सिनेमा आदि चले हैं -हमारी संगीत विद्या बड़े-बड़े घरों में चली गयी है। सम्पन्न व बड़े घरों के युवक युवतियाँ नंगे होकर नाच रहे हैं और जिनका पेशा था, उनसे कहो तो नाक, मुँह सिकोड़ लेते हैं। कहते हैं कि हमें इतना नीच ठहरा लिया है कि हम तुम्हें गाना सुनायें। यही नहीं, आजादी के बाद सुधार के नाम पर जितना बिगाड़ हो रहा है -मैं चापलूस या खुशामदी नहीं स्पष्टवादिता रखता हूँ। कहता हूँ शहर में कुछ वेश्याओं के डेरे थे तो कोई रंडुवा लोग ही अपनी प्यास बुझा लेते थे। आज वह बन्द कर दिये हैं तो घर-घर में वेश्यालय बनते जा रहे हैं। शहर में एक शराब की भट्टी होती थी। कोई शराब पीना जानता ही नहीं था। कुछ फौजी अफसर आदि पेन्सन लेकर एक दो बोतल दवाई के तौर पर अपने साथ ले जाते थे। मगर अब घर-घर में शराब बनती व ब्लैक में बेची जाती है। नारी व बालक तक भी इससे अछूते नहीं हैं। कितने लोग झगड़ा करते मर जाते हैं। गाड़ी एक्सीडेंट हो जाती है...।
उस समय चिटकन मिरासी गजब का गायक था। उससे मैंने शुद्ध कल्याण सीखा। सेले सिल्ला की मिरासिन से ध्रुपद चार ताल। उस समय इम्तयाज उस्ताद थे, उनसे सीखा। यमन चार ताल जाजर देवल के उस्ताद से सीखा। वह गजब के गुणकारी थे। थल की हुड़क्याणी एक से एक उस्ताद थीं। एक गजल गाती थी। क्या आवाज थी- न करना किसी से मोहब्बत बुरी...। अब उल्टा जमाना ठुल घर वाले बम्बई में नाच रहे हैं। आज के पिथौरागढ़ की दुर्दशा का कारण है कि सब सरकार पर आधारित है, पानी बिजली। 1936 में जब वह भर्ती हुए तो सारी जनसंख्या पाकिस्तान बांग्लादेश मिलाकर 37 करोड़ थी। उस समय प्रकृति भी महामारी से नियंत्रण करती थी। पर अब तो नहुष जवानी माँग रहे हैं कि और भोग करें। राजा नहुष के बेटे ने जिसने अपनी जवानी बाप को नहीं दी उसे शाप दिया कि जा तू उल्टे काम करेगा। वही तो तुरकिस्तान देश बसाने वाला है। पहले बहुत जगही बस्तियाँ थीं। थलकेदार ध्वज में आज भी खेत के निशान हैं। कभी बस्ती होगी पर महामारी से खत्म हो गई होगी।
प्रकृति तो अपना सन्तुलन करती है। उसने आदमी की मति को भरमाया है। अब एटम बम यह काम करेगा। उस समय कपड़े भी मोटे स्वास्थ्य वाले पहनते थे। बोदियाल भांग के रेशे का चोला डयोटीयाल पहनते थे। बाद में नेपाल सरकार ने उसका पहनना ही बन्द करा दिया कि इससे हमारी इनसल्ट होती है। पर इतना ही किया तरक्की कुछ नहीं की। उस समय बीपी, टीबी रोग कुछ न था। कारण मोटा खाना पहनना था। कोई बीमारी न थी। सारे पिथौरागढ़ में थे सिर्फ गोरिंग के केदार दत्त पाटनी व गंगोली के चिंतामणी पन्त और तिलोकी डॉक्टर। ...आज तो डॉक्टर सीधे मुम्बई-दिल्ली-बरेली का रास्ता दिखा देते हैं। पहले लोग जितना भी जीते थे उसमें खुशी थी अपराध बहुत कम थे।
वह आज की सुविधा को विनाशक मानते हैं। कहते हैं, यह हमारी पहचान को भी खत्म कर रही है। पहले तीन दिन तक खुली दिवाली होती थी। बाजारों गलियों तक में जुआ होता था। फिर सालभर कोई चक्कर नहीं। अब तो सालभर घर-घर में जुआ होता है और पुलिस उनकी सहायक है हफ्ता लेकर। सारे गाँव में बर्बादी चुनाव से है। नीचे से ऊपर तक भाई भतीजावाद व सैकड़ों की तादाद में असम्बली लोक सभा में भाषावाद, इलाकावाद, जातिवाद आदि जो भी बहस वहाँ छिड़ी तुरन्त ही देश में उसी के बात पर मार काट शुरू हो जाती है।
अंग्रेजों ने तो भारत-तिब्बत रेलवे लेन टनकपुर से पिथौरागढ़-धारचुला की पैमाइश भी कर ली थी, पर यहाँ आजादी के बाद यह तो दूर, टनकपुर पुराने रेलवे स्टेशन से पूर्णागिरी के नीचे तक 15-20 मील भी मैदान होते हुए पटरी नहीं लगा सके। जबकि दानसिंह बिष्ट जी ने सारे पहाड़ की लकड़ियाँ रेलवे लाइनों में बिछा के रख दीं। हमें तो अंग्रेजों का एहसान मानना चाहिए की उन्होंने आराम से एक अच्छे प्रबन्ध वाला देश हमारे लिये छोड़ा। हमारे वहाँ विकास के नाम पर 6 जिले भर बना दिये, बस छुट्टी। मैंने अपनी 1200 पृष्ठ की किताब बोरा जी को छपाने दी पर वह अभी तक नहीं मिली और एक एम.पी. तक ने भी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया। जबकि हम जिस देश को तानाशाह साम्राज्यवादी कहते हैं उसका प्रधानमंत्री तक जवाब देता है (वह टेन डाउनिंग स्ट्रीट के पीएम की चिट्ठी दिखाते हैं)।
साम्राज्यवादी बनने के लिये भी ईमानदारी कुछ दम चाहिए। हममें क्या है? अपने ही घर के शेर। यहाँ कौन सुनने वाला है। यहाँ सभ्य आदमी को बकना बेकार है।” ...सन 1930-35 से फिल्मी गानों का जोर हर जगह बढ़ने लगा। उसी समय हमारे इलाके में श्री वुलाकी राम सुखवासी संगीतज्ञ देहरादून के रहने वाले आ गये। उन्होंने पिथौरागढ़ व डोटी के इलाकों में शास्त्रीय संगीत का खूब प्रचार किया और उनके सैकड़ों लोग शागिर्द बन गये थे। वह सिखलाई के दस रुपया माहवार लिया करते थे। मेरे बड़े भाई ददा श्याम जी व मुझे भी सीखने का बहुत शौक था, मगर हालात हमारी गरीब थी। दस रुपया जुटाना बड़ा कठिन था। अतः जब वह दूसरों को सरगम सिखाते तो हम देखते रहते थे। ग्राम नजदीक खेड़ा में एक बूढ़े नन्दाबल्लभ सुबेदार थे। उनसे हारमोनियम माँगकर हम दोनों भाई खुद-ब-खुद सीखा करते थे। फिर थोड़ा आदि जगहों पर रामलीला का पाठ खेलते थे- ऐसे ही जुलाघाट की रामलीला में इन्तियाज उस्ताद से मेरी संगत हो गई। उन्होंने राग भजन गजल आदि भी कुछ सिखलाई दी।... मेरे 13-14 वर्ष की आयु में यहाँ एक मुरादाबादी पं. चिरंजी लाल एकांगी नाटक दिखाने वाला आया। उसने मुझे हारमोनियम बजाने व मेरे ही सहपाठी एक दानी कोली नाम का लड़का ढोलक बनाने को अपने साथ ले लिये –तब वह हमें 3-4 महीने तक नेपाली राज डोटी डड़ेल धुरा, सलगड़ी, थलारा चीर-चीर बुंगल, मली सोराड़ से गढ़ी आदि जगहों पर ले गया। वह वहाँ अपने नाटक करता था।
पं. चिरंजी लाल पर इतनी सिफत थी कि उससे कोई नाटक करने को कहा जाये तो वह तुरन्त ही उनके गाने रचके गा देता था- जैसे सुलोचना के सती कथा में- उखरे न दूध के दांत उमर मेरी कैसे कटे बारी। आम पके महुवा गदराये –कच्चे नींबू रस भरी लाये-जब ही फल मुखिन पर आये- टूट गये डाली-उमर मेरी। यानी कविता बना लेना उनके मुख पर ही था। पं. चिरंजी लाल की संगत में मुझे भी कुछ-कुछ कविता का ज्ञान होने लगा- जो कि टूटी-फूटी अभी तक मैं लिखता हूँ। 14-15 वर्ष की आयु में मैंने देवलथल की रामलीला में हारमोनियम बजाया था। 16 साल की उम्र में, मैं आर्मी मेडिकल कोर में भर्ती हो गया था। उस वक्त 1936 में हम 11 रुपया माहवार पर भर्ती हुए थे। सन 1937-38 में मैंने टेलरिंग मास्टर कोर्स क्लोदिंग फैक्ट्री, शाहजहाँपुर में पास किया था मगर सन 1939 में दुनिया में लड़ाई छिड़ने पर हमें सिंगापुर मलाया में भेजा गया था। सन 1942 में हम जापान के कैद में पड़ गये और सन 1945 में कैद से छूट आठवें साल में भारत आये...।
12-13 साल की उम्र में, मैं यहाँ पिथौरागढ़ बाजार में दर्जी का काम सीखने श्री खुसाल सिंह टेलर मास्टर के पास नई बाजार में रहता था। उस वक्त मामूली सी बाजार थी। सिर्फ पुरानी बाजार व नया बाजार शिवालय धारे तक ही थी। बाकी -सिमलगैर सिल्थाम आदि बीहड़ थे -एक तली बाजार भवानी गंज में गोर्खा व कुछ मोछी लोग रहते थे -यहाँ पानी के नल कहीं से भी नहीं थे। जगह-जगह पर पानी के सोते धारे नौले बने हुए थे। उनसे ही काफी पानी बहता था। मैं भी अपने मास्टर साहब गुरू जी के लिये -कोत के नौले से पानी भरता था। कुछ अर्से बाद दो वर्गों में कुछ आपस के झगड़ों के जद्दोजहद से एक खर्कवाल सेठ ने मैलानी चन्डाक से पिथौरागढ़ में पानी के नल भी पहुँचाये थे। पिथौरागढ़ के ऊपरी सिरे पर जहाँ उल्का देवी का मन्दिर है, उसी के साथ एक ऊँचे पहाड़ी टीले पर एक पुराना किला था। वह करीब 5-6 मंजिल का दिल्ली के कुतुबमीनार सा चारों तरफ राइफल तोप आदि चलाने जमाने के सुराख बनाया हुआ शोभायवान स्तूप सा बना था। कहते थे कि वह गोर्खा चन्द राजा का बना हुआ था- खूब ऊँची जगह होने से वह सतगढ़ आदि दूर-दूर से पिथौरागढ़ का ताज सा शोभायमान नजर आता था।
सन 60-62 में जब चीन का हमला हुआ था- यहाँ पिथौरागढ़ में एक कमेटी व चेयरमैन पैदा हुए थे कि उसी जमाने में सिर्फ एक क्लर्क लछिमन सिंह टौन एरिया का मालिक ही रहता था- वह शराबी था। उसने टौन एरिया के रुपयों का गमन कर दिया व खुद भी जहर खाकर मर गया। इन कमेटी व चेयरमैन के ऐसी मति उपजी कि उन्हें बहाना मिला कि प्रचार करने लगे कि इस किले को चीन अपनी सरहद बतायेगा। असल में उन्हें यह लालच था कि पुराने राजे-महाराजाओं का सोना-धन आदि यहाँ गड़ा होगा- सो लालच से किला तोड़ दिया गया धन तो निकला होगा या नहीं यह पता नहीं पर जिस दिन इस किले पर कुली लोग चोटकर रहे थे, मैं अपनी छत से देख रहा था और एक-एक चोट मेरे दिल में लग रही थी। पुराने स्मारक नष्ट किये गये और पानी के सोते नौले धारे सभी पाटकर उनके ऊपर टट्टी बनाया गया। इतना अन्धेर कर दिया कि जिस पानी को सदा से लोग पीते थे आज वह गन्दा होकर कोत का नौला धर्मशाला नुरूवा का धारा नया बाजार बन्दकर दिया व जिसे हिन्दू विष्णुरूप जल समझते रहे हैं। उसे बेकार करके अब पानी टैंकरों आदि में बाहर लाकर वितरण हो रहा है...।
भोगवाद के कारण गाँव वाले भी शहर में बस रहे हैं। आजादी के पीछे गाँधी का ही हाथ नहीं, सुभाष चन्द्र बोस का भी है। जिन्होंने अपना जीवन काँटों में गुजारा पर आम जनता, सरकार ने उन्हें न जानने का प्रयास किया न सम्मान दिया। लेफ्टिनेन्ट करम घोष चन्द्र, जो आज भी घंटाकरण में रहते हैं और ग्राम जलतुरी सौन पट्टी के हैं, ने किस तरह आइ.एन.ए. के गुप्तचर बनकर काम किया... वह 15 अगस्त 1947 को भयंकर बारिश में भी खुशी से लोग जुलूस निकाल रहे थे। मेरी दुकान में एक सुबेदार गुंसाई सिंह, बोर गाँव वाले बैठे हुए थे। इतने में ही बाहर से छतरी ओढ़े कन्धे में झोला लटकाये सिमलकोट गाँव के नेता जमन सिंह वल्दिया जी भी दुकान में आये। सायद गुंसाई जी से जीजा-साला का रिश्ता लगता था। आते ही बोले, देख साले गुंसाई सिंह! आज हमने आजादी ली है कि नहीं और साले तुम तो जिन्दगी भर ही अंग्रेजों के पिट्ठू रहे- हमने जल भोगा, डन्डे सहे और शान्ति रूप तलवार से दुश्मन का नाश किया व उसे भगाया आदि कितनी बातें वह नेता कहने लगा -बड़ी देर तक तो सब सुनते रहे।
आखिर गुस्साये सिंह से रहा नहीं गया- वह बोला- अबे साले जब तुझे इतना ही पता नहीं है कि आजादी की लड़ाई में फौजियों का कितना हाथ है यह कि सबसे पहले सन 1857 में मंगल पांडे ने अपनी बलि देकर आजादी जंग छेड़ी थी व अन्त में सुभाष बोस ने फौज बनाकर अपनी ही बलि दी है फिर तू क्या समझ रहा है कि हमारे शान्ति रूप डंडे से भारत आजाद हुआ है। तुझे मालूम होना चाहिए सन 1930-1942 तक कितना विद्रोह हुआ है। भगत सिंह आजाद आदि कितनों ने इंग्लैण्ड में जाकर बम चलाये बम्बई में नेवी में विद्रोह हुआ तभी अंग्रेज जान बचाकर जाने वाले थे –तुम पर अंग्रेज मेहरबान हुए थे क्या? आज भारत आजाद हुआ है तो क्या तिलक लगाकर अंग्रेज तुम्हें सौंप गये।
प्रस्तुति: प्रभात उप्रेती
नैन सिंह 1936 के बाद फौज में भर्ती हुए। फिर बर्मा में जापानियों की कैद में उन्हें मिले संगीत के असली गुरु डॉ. आर. के फर्नीस व डॉ. दीक्षित ने ही उन्हें संगीत में असली व्याकरण और गुरु मंत्र दिया- “हमेशा शागिर्द बने रहना, उस्ताद मत बनना...।” वापसी के बाद दर्जी की दुकान खोली और लग गये संगीत प्रचार-प्रसार में।
नैन सिंह के पिता फतै सिंह अच्छी ढोलक बजाते थे। एक बार वड्डा में वह ढोलक बजा रहे थे तो बालक नैन सिंह ताली बजा रहे थे। बालक को देख पटवारी वैराज सिंह ने कहा- “फतै सिंह, तुम्हारा यह लड़का एक दिन बहुत बड़ा संगीतज्ञ बनेगा।” बचपन में बोलते समय उनकी जबान लगती थी पर गाते समय नहीं। इस पर पिता ने कहा कि तुम बोला भी गाकर करो। तो वह गाने में ही बात करते। चल मेरे यार, जाते हैं बाजार, हो गये होशियार, देखेंगे संसार...। रामलीला में बहुत सी रचनाओं को उन्होंने रागों में बद्ध किया। चिरंजीलाल कविता लिखते और नैन सिंह स्वर देते थे। भीमपलासी में यह रचना दर्शकों को रुला देती थी-
विधिना डूबत नय्या आज...
तिलक कामोद में
देखो मुदित मन आज...
उनकी रचनाओं को आज जगह-जगह ‘अपना’ कहकर गाया जाता है। ठीक पिथौरागढ़ के शेर सिंह रावत की तरह, जिनकी रचना ‘स्वर्ग तारा ओ जुनैली रात, यो बाटो काजान्यो हो ला सुरा सुरा’ व अन्य गीतों को अपना कहकर लोक खोजियों-गायकों ने गाया और प्रसिद्धि ली।
पिथौरागढ़ कलाकारों से भरा होने पर भी ऐसे शोषणों का शिकार रहा। पर नैन सिंह कहते हैं, “कोई बात नहीं, अच्छी चीज सामने आए, क्या यह कम है?” उनका पहाड़ी गीत, जिसे उनके बेटे भगवान सिंह ने बनाया, बड़ा प्रसिद्ध हुआ- ‘मन्दिर में घंटि बाजि घन घन...।’ नैन सिंह ने अपने बड़े लड़के की मृत्यु के बाद लिखना शुरू किया। एक पुस्तक उन्होंने प्रकाशन हेतु मोतीलाल बोरा को दी जिसके 26 भाग थे। उसमें हजारों गीत स्वर सहित थे। उसी प्रकार ‘तत्व रत्नाकर’ के 26 भाग हैं जिसमें 600 पृष्ठ हैं। उनकी लेखनी में भाषा का व्याकरण नहीं है पर उनका सोर्याली बोली का प्रवाह सहजता और स्पष्टवादिता से पाठक को पकड़ लेता है। उन्होंने पहाड़ी लोक कथाओं तथा किस्सों पर भी लिखा है। कक्षा चार पास एक आम आदमी का अनुभव, उसकी सहज अभिव्यक्ति जिसे उसने पुस्तकालयों में नहीं, अपने जीवन में अपनी सजग दृष्टि से समझा है, अद्भुत है। उसकी रवानगी गाँव की एक नदी की शुद्धता जैसी है। उनकी इच्छा थी कि वह छपे पर कौन गुण ग्राहक है आज? इसलिये हम सोर के महान कव्वाल तथा गजल गायक नैनसिंह ऐर के कहे और लेखन की बानगी को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं।
“एक बात अजीब-सी मुझे याद आती है कि मैं डेढ़ साल का था, हाथों के बल चलता था। एक अनजाने उत्तरमुखी दरवाजे वाला घर भी था। उसके कमरे में भीतर चूल्हे में आग जलाये कई अनजानी स्त्रियाँ आग सेंक रही थीं। उन्हें में मेरी अनजान माँ भी थी। मैं घुटने के बल दरवाजे की तरफ आ रहा था तो औरतों ने मेरी माँ से कहा उसे पकड़ लाओ, वह गिर जायेगा। माँ मुझे गोद में पकड़कर ले गई। अभी तक सोचता रहता हूँ कि न वैसा घर मेरे मामा या मित्रों का है। शायद यह सब पूर्वजन्म का ही कुछ था। 5 साल की उम्र से स्कूल में पढ़ने लगा था। दस साल की उम्र में दर्जा चार पास हुआ। उस समय 5 कक्षा नहीं बल्कि, कक्षा चार तक की ही पढ़ाई होती थी। उसी साल यह घटना हो गई कि मेरे चाचा राय सिंह बर्मा में खत्म हो गये। उनकी पत्नी तथा 4 बच्चों को घर लाने के लिये पिताजी बर्मा गये। वहाँ ठेकेदारी का हिसाब करते हुए नौ महीना बीत गये और तब तक हमारा पढ़ना-लिखना बन्द हो गया। उनके घर आने के बाद मैं वड्डा के बाजार में दर्जियों के पास दर्जी का काम सीखने लगा। साथ ही वहाँ गाना-बजाना व फिर रामलीला में राम-लक्ष्मण का पार्ट कई वर्षों तक खेलता रहा।”
वेश-भूषा
अब मैं अपने इलाके के बचपन में देखी हुई परिस्थितियों के बारे में लिखता हूँ। वह जमाना आज के जमाने से भिन्न-सा था। मनुष्यों का सादा जीवन था। कहते थे कि मोटा पहिनना, खाना ही गुणकारी हुआ करता है। पुरुषों का भेष ऊपर चोला (एक चौकवेन्दी साकोट) एक लगोंटी ही पुराने बूढ़े लोग पहनते थे और युवक लोगों में कोट, कमीज, रेवदार पैजामा का चलन हो गया था और सिर में पगड़ी या दोकली की लखनऊ मेल सी टोपी पहनते थे। नारियों में 10-12 पाट का घाघरा व 6 कल्ली या दो कल्ली वाला आंगड़ा सिर में सुवेद लट्ठे का खातड़ा पहनती थीं। गरीबों की नारियाँ तो उसी घाघरे को रात में सोते वक्त भी ओढ़कर सोती थीं... वैसे आटा पीसने को गाड़घट चलाई जाती थी जो अब देखने को भी नहीं मिलती है। फिर भी घरों में भी आटा पीसने को चक्की, मसाला पीसने को सिलबट्टा व दाल दलने को दलनी हुआ करती थी। खाना-पहिनना तथा मेहनत से काम करने से ही लोगों की सेहत बनी रहती है, करके समझते थे और किसी मकान बनाने में सारा इलाका खेड़ी पनेली (मिल-जुलकर) कार्य किया करते थे। इसी प्रकार ग्रामों में एक-एक करके खेड़ी में (इकट्ठा) काम किया करते थे।
मडुवा बौल में आगे-आगे हुड़का बजा गाना गाते हुए सारे गाँव के लोग मिलकर गुड़ाई, नेलाई, खेती कटाई, मड़ाई आदि करते थे। शिल्पकार लोग जैसे लुहार, दर्जी तथा धोबी जमींदारों (किसानों) की मदद भी करते थे व उनको हर घर से एक-एक सूपा भरके अनाज दाल आदि प्राप्त हो जाता था और ब्राह्मण लोग अपनी वृत्ति से पुरोहित व पुजारी बनकर खूब आमद कर लिया करते थे। लोग खुद मिलकर रास्ते, पुल आदि बनाते व एक-दूसरे के सहायक रहते थे। कहते हैं कि देश गुलाम है मगर लोग इतने आत्मनिर्भर थे कि कौन राज चला रहा है करके भी नहीं जानते थे। न बिजली की जरूरत-चीड़ देवदारों के छिलकों की रोशनी काफी थी-न जल निगम न कोई विशेष डिपार्ट ही होते थे- हर छह-छह महीने में कुछ लगान के पैसे ग्राम प्रधान के पास जमा करते थे। ग्राम प्रधान भी खान-दान से ही हुआ करते थे। वह उस रकम को पटवारी को दे देता था। किसी की जमीन का दाखिला, खाता आदि का दो रुपया टीका दे पटवारी या श्रेस्तेदार खुद कार्य कर देते थे। लोग आजाद थे मगर फिर भी राज विदेशी चला रहे हैं करके खुद स्वतंत्रता की भावना सभी पर बनी हुई रहती थी।
हम बालक नवयुवक व नारी-पुरुष सदा ही जलसों, मेलों में पर्व-पर्वों में हमेशा हाथों में तिरंगा लिये हुए आन्दोलन मचाये रहते थे। कोई-कोई नेता लोग कैदकर जेल भी भेज दिये जाते थे। फिर भी आन्दोलन बढ़ता जाता था, घटता नहीं था। स्कूलों में भी राष्ट्रीय गीत आदि से देशभक्ति की भावना सिखायी जाती थी। ग्रामों में गन्ना, तमाखू आदि भी खुद पैदा करते व बाहर से अनाज आदि नहीं आता था। खुद ग्रामों में खाद्य पदार्थ काफी हो जाया करते थे। बल्कि यहाँ से घी फल आदि की चौमाल कुमार लोग घोड़े खच्चरों में भाबर-टनकपुर ले जाते व देश से गुड़, चीनी, नमक व बाकी वेसाता सामान यहाँ लाकर बेचते थे। तिब्बत से भी नमक, सुहागा आदि भोटिया लोग गाँव-गाँव दे जाते व दाल, मिर्च आदि बदली में ले जाया करते थे...। आज के जमाने में सुविधाएँ और पैसा इतना हो गया है कि आदमी भोग-भोगकर अपना शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य खराब कर रहा है। प्रकृति से नाता होना आदमी की अनिवार्यता है जिसे वह अपने मद में भूल गया है।... नये राज्य बनने की लूटपाट की हालात से मैं प्रसन्न नहीं हूँ। जब उत्तराखण्ड या उत्तरांचल का अलग संविधान का प्रश्न चला तो इस नये जिले में बादल छा गया, जिसके साथ-साथ कभी-कभी मुलायम हवा भी बहा करती थी-
मैंने स्वयं सैकड़ों राग-रागिनियों में निबद्ध कई रचनाएँ की हैं। हमारे लोक गीतों में राग-रागिनियाँ स्वाभाविक रूप से बसी हैं। भगनौलों में विलम्बित जैसे गाया जाता है वह अद्भुत है। हमारे उत्तराखण्ड में संगीत का भी पहले जमाने से इतना प्रचार रहा था कि आज भी हम पहले के खेल पाल गानों में विलम्बित द्रुति की गति पाते हैं, जैसे जागर में- जोधा अर्जुन पै कुन्ती को जायो हुंलो रामा इन्दर को वर दानी हूलो तः यो मेरा बाणः पै खाली जन जावो- हो ...हो ...हो ...तब दूसरे तरफ के उठायेंगे- मारी हाल्यो जोधा ले पनिये वांण मारयो हो-। अब देखिये छोटे लै में भी- चाचरी आदि ...हे है कुक्कूचल्या असमान-हैं हैं लंका बनी परमान आदि। ये पुराने दिनों का संगीत था। खुद हमारे जमाने में भी लोग हमारे छोटे बूबू से कहते थे -यार जमन दा, एक ठुमरी सुना दे हो। हमारे बचपन के जमाने में तो चलन ही था कि तमाम बरातों में मिरासी हुड़कनों की रातभर महफिलें जमती थीं। पैसों की हथ छूट होती थी। तो उस वक्त भी यहाँ पहाड़ी इलाके में खासतौर से थल, बागेश्वर, सेल, मल्ला शिखुच्च आदि के मिरासी लोग बड़े संगीतज्ञ थे। उन्हीं दिनों गजल कव्वाली आदि का भी खूब प्रचार था।
बाद में फिल्मी गानों ने भी जोर पकड़ लिया था। मगर अब जब से रेडियो टेलीविजन सिनेमा आदि चले हैं -हमारी संगीत विद्या बड़े-बड़े घरों में चली गयी है। सम्पन्न व बड़े घरों के युवक युवतियाँ नंगे होकर नाच रहे हैं और जिनका पेशा था, उनसे कहो तो नाक, मुँह सिकोड़ लेते हैं। कहते हैं कि हमें इतना नीच ठहरा लिया है कि हम तुम्हें गाना सुनायें। यही नहीं, आजादी के बाद सुधार के नाम पर जितना बिगाड़ हो रहा है -मैं चापलूस या खुशामदी नहीं स्पष्टवादिता रखता हूँ। कहता हूँ शहर में कुछ वेश्याओं के डेरे थे तो कोई रंडुवा लोग ही अपनी प्यास बुझा लेते थे। आज वह बन्द कर दिये हैं तो घर-घर में वेश्यालय बनते जा रहे हैं। शहर में एक शराब की भट्टी होती थी। कोई शराब पीना जानता ही नहीं था। कुछ फौजी अफसर आदि पेन्सन लेकर एक दो बोतल दवाई के तौर पर अपने साथ ले जाते थे। मगर अब घर-घर में शराब बनती व ब्लैक में बेची जाती है। नारी व बालक तक भी इससे अछूते नहीं हैं। कितने लोग झगड़ा करते मर जाते हैं। गाड़ी एक्सीडेंट हो जाती है...।
उस समय चिटकन मिरासी गजब का गायक था। उससे मैंने शुद्ध कल्याण सीखा। सेले सिल्ला की मिरासिन से ध्रुपद चार ताल। उस समय इम्तयाज उस्ताद थे, उनसे सीखा। यमन चार ताल जाजर देवल के उस्ताद से सीखा। वह गजब के गुणकारी थे। थल की हुड़क्याणी एक से एक उस्ताद थीं। एक गजल गाती थी। क्या आवाज थी- न करना किसी से मोहब्बत बुरी...। अब उल्टा जमाना ठुल घर वाले बम्बई में नाच रहे हैं। आज के पिथौरागढ़ की दुर्दशा का कारण है कि सब सरकार पर आधारित है, पानी बिजली। 1936 में जब वह भर्ती हुए तो सारी जनसंख्या पाकिस्तान बांग्लादेश मिलाकर 37 करोड़ थी। उस समय प्रकृति भी महामारी से नियंत्रण करती थी। पर अब तो नहुष जवानी माँग रहे हैं कि और भोग करें। राजा नहुष के बेटे ने जिसने अपनी जवानी बाप को नहीं दी उसे शाप दिया कि जा तू उल्टे काम करेगा। वही तो तुरकिस्तान देश बसाने वाला है। पहले बहुत जगही बस्तियाँ थीं। थलकेदार ध्वज में आज भी खेत के निशान हैं। कभी बस्ती होगी पर महामारी से खत्म हो गई होगी।
प्रकृति तो अपना सन्तुलन करती है। उसने आदमी की मति को भरमाया है। अब एटम बम यह काम करेगा। उस समय कपड़े भी मोटे स्वास्थ्य वाले पहनते थे। बोदियाल भांग के रेशे का चोला डयोटीयाल पहनते थे। बाद में नेपाल सरकार ने उसका पहनना ही बन्द करा दिया कि इससे हमारी इनसल्ट होती है। पर इतना ही किया तरक्की कुछ नहीं की। उस समय बीपी, टीबी रोग कुछ न था। कारण मोटा खाना पहनना था। कोई बीमारी न थी। सारे पिथौरागढ़ में थे सिर्फ गोरिंग के केदार दत्त पाटनी व गंगोली के चिंतामणी पन्त और तिलोकी डॉक्टर। ...आज तो डॉक्टर सीधे मुम्बई-दिल्ली-बरेली का रास्ता दिखा देते हैं। पहले लोग जितना भी जीते थे उसमें खुशी थी अपराध बहुत कम थे।
वह आज की सुविधा को विनाशक मानते हैं। कहते हैं, यह हमारी पहचान को भी खत्म कर रही है। पहले तीन दिन तक खुली दिवाली होती थी। बाजारों गलियों तक में जुआ होता था। फिर सालभर कोई चक्कर नहीं। अब तो सालभर घर-घर में जुआ होता है और पुलिस उनकी सहायक है हफ्ता लेकर। सारे गाँव में बर्बादी चुनाव से है। नीचे से ऊपर तक भाई भतीजावाद व सैकड़ों की तादाद में असम्बली लोक सभा में भाषावाद, इलाकावाद, जातिवाद आदि जो भी बहस वहाँ छिड़ी तुरन्त ही देश में उसी के बात पर मार काट शुरू हो जाती है।
अंग्रेजों ने तो भारत-तिब्बत रेलवे लेन टनकपुर से पिथौरागढ़-धारचुला की पैमाइश भी कर ली थी, पर यहाँ आजादी के बाद यह तो दूर, टनकपुर पुराने रेलवे स्टेशन से पूर्णागिरी के नीचे तक 15-20 मील भी मैदान होते हुए पटरी नहीं लगा सके। जबकि दानसिंह बिष्ट जी ने सारे पहाड़ की लकड़ियाँ रेलवे लाइनों में बिछा के रख दीं। हमें तो अंग्रेजों का एहसान मानना चाहिए की उन्होंने आराम से एक अच्छे प्रबन्ध वाला देश हमारे लिये छोड़ा। हमारे वहाँ विकास के नाम पर 6 जिले भर बना दिये, बस छुट्टी। मैंने अपनी 1200 पृष्ठ की किताब बोरा जी को छपाने दी पर वह अभी तक नहीं मिली और एक एम.पी. तक ने भी चिट्ठी का जवाब नहीं दिया। जबकि हम जिस देश को तानाशाह साम्राज्यवादी कहते हैं उसका प्रधानमंत्री तक जवाब देता है (वह टेन डाउनिंग स्ट्रीट के पीएम की चिट्ठी दिखाते हैं)।
साम्राज्यवादी बनने के लिये भी ईमानदारी कुछ दम चाहिए। हममें क्या है? अपने ही घर के शेर। यहाँ कौन सुनने वाला है। यहाँ सभ्य आदमी को बकना बेकार है।” ...सन 1930-35 से फिल्मी गानों का जोर हर जगह बढ़ने लगा। उसी समय हमारे इलाके में श्री वुलाकी राम सुखवासी संगीतज्ञ देहरादून के रहने वाले आ गये। उन्होंने पिथौरागढ़ व डोटी के इलाकों में शास्त्रीय संगीत का खूब प्रचार किया और उनके सैकड़ों लोग शागिर्द बन गये थे। वह सिखलाई के दस रुपया माहवार लिया करते थे। मेरे बड़े भाई ददा श्याम जी व मुझे भी सीखने का बहुत शौक था, मगर हालात हमारी गरीब थी। दस रुपया जुटाना बड़ा कठिन था। अतः जब वह दूसरों को सरगम सिखाते तो हम देखते रहते थे। ग्राम नजदीक खेड़ा में एक बूढ़े नन्दाबल्लभ सुबेदार थे। उनसे हारमोनियम माँगकर हम दोनों भाई खुद-ब-खुद सीखा करते थे। फिर थोड़ा आदि जगहों पर रामलीला का पाठ खेलते थे- ऐसे ही जुलाघाट की रामलीला में इन्तियाज उस्ताद से मेरी संगत हो गई। उन्होंने राग भजन गजल आदि भी कुछ सिखलाई दी।... मेरे 13-14 वर्ष की आयु में यहाँ एक मुरादाबादी पं. चिरंजी लाल एकांगी नाटक दिखाने वाला आया। उसने मुझे हारमोनियम बजाने व मेरे ही सहपाठी एक दानी कोली नाम का लड़का ढोलक बनाने को अपने साथ ले लिये –तब वह हमें 3-4 महीने तक नेपाली राज डोटी डड़ेल धुरा, सलगड़ी, थलारा चीर-चीर बुंगल, मली सोराड़ से गढ़ी आदि जगहों पर ले गया। वह वहाँ अपने नाटक करता था।
पं. चिरंजी लाल पर इतनी सिफत थी कि उससे कोई नाटक करने को कहा जाये तो वह तुरन्त ही उनके गाने रचके गा देता था- जैसे सुलोचना के सती कथा में- उखरे न दूध के दांत उमर मेरी कैसे कटे बारी। आम पके महुवा गदराये –कच्चे नींबू रस भरी लाये-जब ही फल मुखिन पर आये- टूट गये डाली-उमर मेरी। यानी कविता बना लेना उनके मुख पर ही था। पं. चिरंजी लाल की संगत में मुझे भी कुछ-कुछ कविता का ज्ञान होने लगा- जो कि टूटी-फूटी अभी तक मैं लिखता हूँ। 14-15 वर्ष की आयु में मैंने देवलथल की रामलीला में हारमोनियम बजाया था। 16 साल की उम्र में, मैं आर्मी मेडिकल कोर में भर्ती हो गया था। उस वक्त 1936 में हम 11 रुपया माहवार पर भर्ती हुए थे। सन 1937-38 में मैंने टेलरिंग मास्टर कोर्स क्लोदिंग फैक्ट्री, शाहजहाँपुर में पास किया था मगर सन 1939 में दुनिया में लड़ाई छिड़ने पर हमें सिंगापुर मलाया में भेजा गया था। सन 1942 में हम जापान के कैद में पड़ गये और सन 1945 में कैद से छूट आठवें साल में भारत आये...।
12-13 साल की उम्र में, मैं यहाँ पिथौरागढ़ बाजार में दर्जी का काम सीखने श्री खुसाल सिंह टेलर मास्टर के पास नई बाजार में रहता था। उस वक्त मामूली सी बाजार थी। सिर्फ पुरानी बाजार व नया बाजार शिवालय धारे तक ही थी। बाकी -सिमलगैर सिल्थाम आदि बीहड़ थे -एक तली बाजार भवानी गंज में गोर्खा व कुछ मोछी लोग रहते थे -यहाँ पानी के नल कहीं से भी नहीं थे। जगह-जगह पर पानी के सोते धारे नौले बने हुए थे। उनसे ही काफी पानी बहता था। मैं भी अपने मास्टर साहब गुरू जी के लिये -कोत के नौले से पानी भरता था। कुछ अर्से बाद दो वर्गों में कुछ आपस के झगड़ों के जद्दोजहद से एक खर्कवाल सेठ ने मैलानी चन्डाक से पिथौरागढ़ में पानी के नल भी पहुँचाये थे। पिथौरागढ़ के ऊपरी सिरे पर जहाँ उल्का देवी का मन्दिर है, उसी के साथ एक ऊँचे पहाड़ी टीले पर एक पुराना किला था। वह करीब 5-6 मंजिल का दिल्ली के कुतुबमीनार सा चारों तरफ राइफल तोप आदि चलाने जमाने के सुराख बनाया हुआ शोभायवान स्तूप सा बना था। कहते थे कि वह गोर्खा चन्द राजा का बना हुआ था- खूब ऊँची जगह होने से वह सतगढ़ आदि दूर-दूर से पिथौरागढ़ का ताज सा शोभायमान नजर आता था।
सन 60-62 में जब चीन का हमला हुआ था- यहाँ पिथौरागढ़ में एक कमेटी व चेयरमैन पैदा हुए थे कि उसी जमाने में सिर्फ एक क्लर्क लछिमन सिंह टौन एरिया का मालिक ही रहता था- वह शराबी था। उसने टौन एरिया के रुपयों का गमन कर दिया व खुद भी जहर खाकर मर गया। इन कमेटी व चेयरमैन के ऐसी मति उपजी कि उन्हें बहाना मिला कि प्रचार करने लगे कि इस किले को चीन अपनी सरहद बतायेगा। असल में उन्हें यह लालच था कि पुराने राजे-महाराजाओं का सोना-धन आदि यहाँ गड़ा होगा- सो लालच से किला तोड़ दिया गया धन तो निकला होगा या नहीं यह पता नहीं पर जिस दिन इस किले पर कुली लोग चोटकर रहे थे, मैं अपनी छत से देख रहा था और एक-एक चोट मेरे दिल में लग रही थी। पुराने स्मारक नष्ट किये गये और पानी के सोते नौले धारे सभी पाटकर उनके ऊपर टट्टी बनाया गया। इतना अन्धेर कर दिया कि जिस पानी को सदा से लोग पीते थे आज वह गन्दा होकर कोत का नौला धर्मशाला नुरूवा का धारा नया बाजार बन्दकर दिया व जिसे हिन्दू विष्णुरूप जल समझते रहे हैं। उसे बेकार करके अब पानी टैंकरों आदि में बाहर लाकर वितरण हो रहा है...।
भोगवाद के कारण गाँव वाले भी शहर में बस रहे हैं। आजादी के पीछे गाँधी का ही हाथ नहीं, सुभाष चन्द्र बोस का भी है। जिन्होंने अपना जीवन काँटों में गुजारा पर आम जनता, सरकार ने उन्हें न जानने का प्रयास किया न सम्मान दिया। लेफ्टिनेन्ट करम घोष चन्द्र, जो आज भी घंटाकरण में रहते हैं और ग्राम जलतुरी सौन पट्टी के हैं, ने किस तरह आइ.एन.ए. के गुप्तचर बनकर काम किया... वह 15 अगस्त 1947 को भयंकर बारिश में भी खुशी से लोग जुलूस निकाल रहे थे। मेरी दुकान में एक सुबेदार गुंसाई सिंह, बोर गाँव वाले बैठे हुए थे। इतने में ही बाहर से छतरी ओढ़े कन्धे में झोला लटकाये सिमलकोट गाँव के नेता जमन सिंह वल्दिया जी भी दुकान में आये। सायद गुंसाई जी से जीजा-साला का रिश्ता लगता था। आते ही बोले, देख साले गुंसाई सिंह! आज हमने आजादी ली है कि नहीं और साले तुम तो जिन्दगी भर ही अंग्रेजों के पिट्ठू रहे- हमने जल भोगा, डन्डे सहे और शान्ति रूप तलवार से दुश्मन का नाश किया व उसे भगाया आदि कितनी बातें वह नेता कहने लगा -बड़ी देर तक तो सब सुनते रहे।
आखिर गुस्साये सिंह से रहा नहीं गया- वह बोला- अबे साले जब तुझे इतना ही पता नहीं है कि आजादी की लड़ाई में फौजियों का कितना हाथ है यह कि सबसे पहले सन 1857 में मंगल पांडे ने अपनी बलि देकर आजादी जंग छेड़ी थी व अन्त में सुभाष बोस ने फौज बनाकर अपनी ही बलि दी है फिर तू क्या समझ रहा है कि हमारे शान्ति रूप डंडे से भारत आजाद हुआ है। तुझे मालूम होना चाहिए सन 1930-1942 तक कितना विद्रोह हुआ है। भगत सिंह आजाद आदि कितनों ने इंग्लैण्ड में जाकर बम चलाये बम्बई में नेवी में विद्रोह हुआ तभी अंग्रेज जान बचाकर जाने वाले थे –तुम पर अंग्रेज मेहरबान हुए थे क्या? आज भारत आजाद हुआ है तो क्या तिलक लगाकर अंग्रेज तुम्हें सौंप गये।
प्रस्तुति: प्रभात उप्रेती
TAGS |
pithoragarh in hindi, uttarakhand in hindi, dharchula in hindi, pithoragarh costumes in hindi, livelihood of pithoragarh in hindi, people costumes in pithoragarh in hindi, pithoragarh dress fashion in hindi, old pithoragarh in hindi, pithoragarh traditions in hindi |